दीवारों के कान होते हैं, पर वह बोलती नहीं हैं साहब …!

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दीवारों के कान होते हैं, पर वह बोलती नहीं हैं साहब …!

‘दीवारों के भी कान होते हैं’, यह कहावत बड़ी पुरानी है। यह कहावत तब बोली जाती है जब कोई राज की बात किसी को बताई जा रही होती है और तीसरा इसे सुन न ले, इसलिए धीमी आवाज में खुसर-पुसर कर बात पूरी की जाती है। राज बताने वाला थोड़ी भी तेज आवाज में बोलता है तो सुनने वाला बोलता है, धीरे बोलो दीवारों के भी कान होते हैं। और यह बात सच भी है। जब राज की बात होती है तो दीवारों की ओट में छिपकर भी बात सुनने वाले मौजूद रहते हैं। अब दीवारों के कान हों या भले ही न हों, पर ऐसी कहावत आज तक नहीं सुनी गई है कि दीवारें बोलती हैं। अगर दीवारें बोल पातीं, तो शायद कभी मौतों की गुनहगार बनने को राजी नहीं होतीं। अगर समय पर उनके जर्जर शरीर को जमींदोज न किया जाता, तो वह चीख-चीखकर यह जरूर बोलती रहतीं कि कोई मेरे पास न आओ…मैं जर्जर हूं और कभी भी गिर सकती हूं। तब निश्चित तौर पर बच्चे हों या बड़े-बुजुर्ग, दीवार की बात पर गौर भी करते और अपनी जान बचाने के साथ दीवार को कुसूरवार भी न बना पाते।

मध्यप्रदेश में लगातार दो दिन दीवारें हत्या की दोषी साबित हो गईं हैं। रीवा में 3 अगस्त को चार स्कूली बच्चों की दीवार गिरने से मौत हो गई। तो सागर के शाहपुर में एक धार्मिक आयोजन में मिट्टी के शिवलिंग बनाते समय जर्जर दीवार के ढहने से 9 बच्चे मौत के मुंह में समा गए। सरकार की संवेदनशीलता मृतकों के परिजनों को सहायता देने और जिम्मेदार अफसरों-कर्मचारियों को चिन्हित कर कार्यवाही करने में समाहित है। सो सरकार अपना फर्ज निभा रही है। दिल्ली में बेसमेंट की घटना में सिविल सेवा की तैयारी कर रहे बच्चों के साथ भी ऐसी ही अनहोनी हुई थी। वहां भी कार्यवाही हुई है। यह 21वीं सदी का भारत है। और 77 साल की आजादी है। और आजाद भारत की परिपक्व विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है। और साथ में चौथा स्तंभ भी है। यहां सबके बीच समन्वय की रस्म अदायगी बखूबी निभाई जा रही है। बेसमेंट में कोचिंग पढ़कर प्रतिभाएं अपना हुनर दिखाने को तैयार हो रहे हैं। सैद्धांतिक और व्यावहारिक परिस्थितियों में तालमेल बैठाने की कला में सभी स्तंभ पारंगत हैं। मीडिया को तो गोदी मीडिया कहकर कटघरे में खड़ा किया जा सकता है, पर राष्ट्र निर्माण के पर्याय बाकी तीन स्तंभ की तरफ उंगली उठाने का साहस भी दुस्साहस की श्रेणी में ही समाहित है। पर दुर्घटनाएं चाहे सड़कों पर हों या फिर कहीं और हों, इनके जिम्मेदार कौन हैं…और उनके जिम्मेदारी निभाने में किस तरह की अड़चन हैं, अब इस गंभीर मुद्दे पर गहन चिंतन-मनन करने का समय आ गया है। अगर हम अब भी नहीं चेते, तो यह समय भी निकल जाएगा। तब दीवारें परवश गिर-गिरकर बेवजह ही गुनहगार बनने को मजबूर रहेंगीं। फिर भी क्या करें? दीवारों के कान होते हैं, पर वह बोल नहीं पातीं वरना वह किसी की भी हत्या की गुनहगार बनने को कभी राजी नहीं होतीं।

दीवार भी एक कमाल की चीज़ हैं जब वो किसी मकान का हिस्सा होती हैं तो वह घर-परिवार की खुशी का संसार होती हैं। पर जब वह जर्जर होकर गिरती हैं और बच्चों या बड़ों की जान जाती है, तो वही दीवारें हत्यारी और गुनहगार बन जाती हैं। एक ही देश दो भागों में बंटकर सीमा की दीवार खड़ी कर लें, तो एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। अगर दो देशों के बीच दीवार गिरा दी जाए, तो भाईचारा, अपनापन और रिश्ते-नाते खुशी बनकर तैरने लगते हैं। इसी तरह दो भाई घर में दीवार बनाकर अपना-अपना हिस्सा बांट लेते हैं तो संबंधों में भी दीवार खड़ी हो जाती है। और दीवार तोड़कर दिल मिल जाएं, तो संबंधों की सौगात लौट आती है। इस बात को शायर फ़रहत एहसास ने बेहतर ढंग से इस तरह समझाया है –

‘मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूँ

चलो दीवार ढाने जा रहा हूँ।’

यह तो खुशी की बात है कि दीवार ढहाकर बिछड़ों को मिलाया जाए। पर दीवार ढहने से यदि अपने हमेशा हमेशा के लिए बिछड़ जाएं तो उतनी ही दुखी करने वाली बात है। चाहे मध्यप्रदेश के रीवा में दर्दनाक हादसे में दीवार गिरने से चार स्कूली बच्चों की मौत हो या फिर सागर जिले के शाहपुर में हृदय विदारक घटना में दीवार गिरने से 9 बच्चों की मौत हो। इन बच्चों के परिजन तो उन दीवारों को देखकर यही कहेंगे कि

‘दीवारों को देखकर रोना अच्छा लगता है,

हम भी दबकर मर जाएँगे ऐसा लगता है।’

तो बात वही कि एक बार फिर सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारी का अहसास नए सिरे से करना होगा। इसके लिए सरकार के तीन स्तंभ की बात हो, चौथे स्तंभ मीडिया की बात हो या फिर सबसे बड़े स्तंभ जनता-जनार्दन की बात हो। सबको अपनी जिम्मेदारी का अहसास करना ही होगा और जागरूकता का पर्याय बनना पड़ेगा…तभी दीवारों, बेसमेंट और बोरवेल जैसी ह्रदय विदारक घटनाएं टाली जा सकेंगी। क्योंकि दीवारों के कान होते हैं, पर वह बोलती नहीं हैं

साहब …!