पश्चिम ने सराहा, भारत ने नकारा…पर सबने काबिलियत को स्वीकारा…

36

पश्चिम ने सराहा, भारत ने नकारा…पर सबने काबिलियत को स्वीकारा…

कौशल किशोर चतुर्वेदी

नीरद चंद्र चौधरी ऐसा नाम है, जिन्हें भारत के सबसे विवादास्पद लेखक का तमगा हासिल है। फिर भी उनकी क़ाबिलियत संदेह से परे है। ‘द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन’, ‘कॉन्टिनेंट ऑफ़ सर्से’, ‘पैसेज टु इंग्लैंड’ जैसी पुस्तकों के लेखक नीरद चौधरी को पश्चिम में ज़रूर सराहा गया लेकिन भारत में उनको वो सम्मान कभी नहीं मिल पाया जिसके वो हक़दार थे। यह भी कह सकते हैं कि भारत ने उन्हें खुलकर नकारा। तथाकथित भारत विरोधी विचारों के कारण उनकी बहुत आलोचना हुई लेकिन उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की। खुशवंत सिंह उन्हें अपना गुरू मानते थे और कहा करते थे कि नीरद बाबू को इस बात में बहुत आनंद आता था जब ग़लत कारणों से उनकी आलोचना की जाती थी। यही वजह है कि 1970 में इंग्लैंड जाने के बाद वो भारत कभी नहीं लौटे और वहीं ऑक्सफ़र्ड में बस गए। पर उन्होंने आख़िर तक अपने भारतीय पासपोर्ट को सरेंडर नहीं किया। विवाद की यह झलक देखिए कि नीरद चौधरी को उनको आकाशवाणी की नौकरी से सिर्फ़ इसलिए जबरन रिटायर किया गया था क्योंकि उन्होंने अपनी आत्मकथा को ब्रिटिश साम्राज्य को समर्पित किया था और ये फ़ैसला भारत सरकार में उच्चतम स्तर पर लिया गया था। राष्ट्रीय अभिलेखागार में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का वो नोट सुरक्षित है जिसमें उन्होंने लिखा है कि अगर इन्हें भारतीय लोगों पर इतना भरोसा नहीं है तो उन्हें कहीं और चले जाना चाहिए।

तो नीरद चौधरी की काबिलियत का अहसास सबको हो गया है। खुशवंत सिंह को जानने वाले भी यह समझ गए होंगे कि खुशवंत के गुरु यानि क्या व्यक्तित्व रहा होगा नीरद चौधरी का। खुशवंत सिंह ने लिखा है कि जिन बुद्धिजीवियों को उन्हें अपना दोस्त बनाने का मौक़ा मिला है… उनमें नीरद चौधरी शायद सबसे ऊपर हैं। दुनिया की हर चीज़ के बारे में उनका ज्ञान, अब किवदंती बन गया है। खुद नीरद चौधरी अक्सर प्लेटो के उस कथन को उद्धृत किया करते थे कि वो जीवन जिस पर सवाल नहीं उठाए जाएं, वो जीने लायक़ नहीं हैं। इसीलिए उन्हें उनके लेखन के अलावा उनके अनोखेपन और लीक से हट कर जीवन जीने के उनके जुनून के लिए भी याद किया जाता है।बेरोज़गार हो जाने के बाद भी नीरद चौधरी ने अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं किया। खुशवंत सिंह ने अपनी किताब ‘नॉट ए नाइस मैन टु नो’ में एक दिलचस्प संस्मरण लिखा है। खुशवंत लिखते हैं, ”एक बार वित्त मंत्री टीटीके कृष्णमाचारी ने मुझे बुलाकर अनुरोध किया कि मैं नीरद को मनाऊँ कि वो पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों की कठिनाइयों के बारे में लेखों की एक सीरीज़ करें और इसके लिए वो जितना भी पैसा मांगें उन्हें दिया जाए। मैंने टीटीके को याद दिलाया कि नीरद पर तो पूरे भारत में लिखने पर प्रतिबंध लगाया गया है। उन्होंने कहा कि ये प्रतिबंध उठा लिया जाएगा।” खुशवंत सिंह लिखते हैं, ”मैंने नीरद को ये कहकर तुरंत बुलवा भेजा कि मेरे पास आपके लिए शुभ समाचार है। नीरद ने मेरी बात सुनते ही कहा, तो भारत सरकार ने मेरे ऊपर से प्रतिबंध उठा लिया है। मैंने कहाँ जी हाँ। नीरद दो मिनट चुप रहे और फिर धीमे से बोले… लेकिन मैंने भारत सरकार से प्रतिबंध उठाने का फ़ैसला अभी नहीं किया है। वो चुपचाप उठे… अपनी सोलर टोपी उठाई और कमरे से बाहर चले गए।”

नीरद चंद्र चौधरी को याद करने का आज खास अवसर है। चौधरी का जन्म 23 नवंबर 1897 को किशोरगंज , मयमनसिंह , पूर्वी बंगाल , ब्रिटिश भारत (अब बांग्लादेश ) में हुआ था , वे वकील उपेंद्र नारायण चौधरी और सुशीला सुंदरानी चौधुरानी के आठ बच्चों में से दूसरे थे। उनके माता-पिता उदार मध्यमवर्गीय हिंदू थे जो ब्रह्मो समाज आंदोलन से जुड़े थे। चौधरी 1959 के दशक में इंग्लैंड चले गए और 1979 के दशक में ऑक्सफोर्ड में बस गए। चौधरी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भी एक सक्रिय लेखक थे। उन्होंने 99 वर्ष की आयु में अपनी अंतिम रचना प्रकाशित की। उनकी पत्नी अमिया चौधरी का 1994 में ऑक्सफ़ोर्ड, इंग्लैंड में निधन हो गया। 1999 में, अपने 102वें जन्मदिन से तीन महीने पहले, 1 अगस्त 1999 को उनका भी ऑक्सफ़ोर्ड में निधन हो गया। वे 1982 से अपनी मृत्यु तक 20 लैथबरी रोड पर रहे और 2008 में ऑक्सफ़ोर्डशायर ब्लू प्लेक बोर्ड द्वारा एक नीली पट्टिका स्थापित की गई।

1951 में प्रकाशित उनकी उत्कृष्ट कृति, द ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन ने उन्हें महान भारतीय लेखकों की विशिष्ट सूची में शामिल कर दिया। चौधरी ने कहा था कि द ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन ‘आत्मकथा से अधिक वर्णनात्मक नृवंशविज्ञान का अभ्यास है।’ वह उन परिस्थितियों का वर्णन करने में रुचि रखते हैं जिनमें एक भारतीय सदी के शुरुआती दशकों में वयस्कता तक बढ़ा, और चूंकि उन्हें लगता है कि पुस्तक का मूल सिद्धांत यह है कि पर्यावरण को उसके उत्पाद से अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। वह विवरण में उन तीन स्थानों का वर्णन करते हैं, जिनका उन पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। किशोरगंज, वह देहाती शहर जहां वह बारह वर्ष की आयु तक रहे; बंगराम; उनका पैतृक गांव; और कालीकच्छ, उनकी मां का गांव। चौथा अध्याय इंग्लैंड को समर्पित है, जिसने उनकी कल्पना में एक बड़ा स्थान प्राप्त किया।उन्होंने अपनी पुस्तक के समर्पण के कारण नए स्वतंत्र भारत में विवाद खड़ा किया। नीरद चंद्र चौधरी ने अपनी आत्मकथा ‘द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन’ को ब्रिटिश साम्राज्य को समर्पित किया था। तब से उनके ऊपर भारत विरोधी होने का तमग़ा चस्पाँ हुआ, जो ताउम्र नहीं उतरा। ‘चौधरी को सरकारी सेवा से बाहर कर दिया गया, उनकी पेंशन छीन ली गई, भारत में एक लेखक के रूप में उन्हें काली सूची में डाल दिया गया और उन्हें दरिद्रता का जीवन जीने के लिए मजबूर किया गया’। लेकिन वीएस नॉयपॉल ने इस किताब के बारे में कहा था कि यह संभवत: भारत-ब्रिटिश समागम के बाद आने वाली सबसे बड़ी किताब है। अंग्रेज़ी साहित्य के कई हलक़ों में इसे भारतीय लेखकों द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी पाँच सर्वकालिक महान कृतियों में रखा जाता है।

तो नीरद चंद्र चौधरी को आज इस दुनिया से विदा हुए 25 साल बीत गए, पर 57 साल की उम्र में उनका भारत छोड़कर इंग्लैंड जाना और 99 साल की उम्र तक लेखक के रूप में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराना…वाकई अद्भुत है। विवादों में भी उनकी काबिलियत की सराहना और उनके व्यक्तित्व का मुरीद हुए बिना उनके आलोचक भी नहीं रह सकते। भले ही उनके लेखन को पश्चिम में सराहा गया हो और भारत में नकारा गया हो, पर अंतत: उनके लेखन और काबिलियत को सभी जगह स्वीकार किया गया

…।