पश्चिम बंगाल अभी भी वैसा ही है ‘सबरों की माता’…!
पश्चिम बंगाल 27 जुलाई 2024 को इसलिए चर्चा में है, क्योंकि नीति आयोग की बैठक में यहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भेदभाव का आरोप लगाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में नीति आयोग की गवर्निंग काउंसिल की 9वीं बैठक में शामिल होने पहुंची ममता बनर्जी बड़ा आरोप लगाते हुए बीच में ही बैठक छोड़कर बाहर निकल गईं। ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया गया और पांच मिनट में उन्हें रोक दिया गया। हालांकि, सरकारी सूत्रों का कहना है कि माइक बंद करने का ममता बनर्जी का दावा गलत है। खैर यह बात हुई राजनीतिक, पर हम बात कर रहे हैं साहित्यिक। ‘सबरों की माता’ नाम से लोकप्रिय बंगाली साहित्यकार महाश्वेता देवी का निधन 28 जुलाई 2016 को 90 वर्ष की आयु में हुआ था। जिनके मन में यह बात थी कि ‘ मैं अंतिम वाक्य तक मनुष्यों के लिए बोलना चाहती हूँ। उन मनुष्यों की बात, जिनके सीने की हड्डी उभरी है। जो दुखी हैं, मेहनती हैं। बंगाल के गाँव में अभी भी वे मनुष्य रहते हैं जो खाली देह, सिर्फ लंगोटा पहने आज भी अपने कंधे पर हल उठाए खेत जोत रहे हैं। आदिकाल से हमारे सामने यही एक चित्र है। इसलिए मेरे उपन्यासों में बार-बार घूम फिर कर नाना आकृतियों, जातियों और भाषाओं के मनुष्यों की बातें चली आती हैं।’ ऐसी महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित भारत के ढाका में 14 जनवरी 1926 को हुआ था और निधन 28 जुलाई 2016 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ था।वह एक भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। उन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
महान लेखिका महाश्वेता देवी का मानना था कि ‘वास्तविक इतिहास आम लोगों द्वारा बनाया जाता है। मैं लगातार विभिन्न रूपों में लोक कथाओं, गाथाओं, मिथकों और किंवदंतियों के पुनः प्रकट होने को देखती रहती हूँ, जिन्हें आम लोग पीढ़ियों से आगे बढ़ाते आ रहे हैं। मेरे लेखन का कारण और प्रेरणा वे लोग हैं जो शोषित और उपयोग किए जाते हैं, फिर भी हार नहीं मानते। मेरे लिए, लेखन के लिए सामग्री का अंतहीन स्रोत इन आश्चर्यजनक रूप से महान, पीड़ित मनुष्यों में है..।’ उन्होंने अपनी रचनाओं से आदिवासियों, दलितों, शोषितों और वंचितों के प्रति जन-जन के मन में गहरी प्रेम-संवेदना का संचार किया। एक कलम हाशिए पर पड़े लोगों के साथ आजीवन खड़ी रही।
महाश्वेता देवी ने कम्युनिस्टों पर प्रशासनिक अत्याचार के दंश को देखा भी और खुद भी झेला। साल 1950 में मात्र कम्युनिस्ट होने के संदेह पर आपको नौकरी से निकाल दिया गया। पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों की सरकार थी। लंबे समय से वे सत्ता में थे। आपको लगा कि वह अच्छा काम नहीं कर रहे हैं तो आपने विपक्ष के मंच पर सत्ता के विपरीत खड़े होकर यह एहसास भी दिलाया कि लोकतंत्र में लोक सर्वोपरि होता है। आपने पश्चिम बंगाल के आदिवासी समुदायों और वंचित लोगों के बीच में रहकर उनके जीवन को निकट से देखा और उनके अधिकारों के लिए वकालत की। आपको प्यार से “सबरों की माता” कहा जाता था क्योंकि आपने पश्चिम बंगाल में सबर जनजाति के अधिकारों के लिए सराहनीय काम किया था। आपने त्रैमासिक बोर्टिका का संपादन किया जो पूर्वी भारत में भूमिहीन मजदूरों जैसे हाशिए पर पड़े लोगों के हितों की वकालत करने वाला प्रकाशन था। आपने एक सामाजिक संगठन की स्थापना करके राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों की सूचना दी और आदिवासियों की भूमि के सरकारी अधिग्रहण के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। आपने अपनी लेखनी से ही अन्याय का विरोध नहीं किया, बल्कि एक प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न मुद्दों के लिए जमीन पर उतरकर कड़ा संघर्ष भी किया।
आपने 100 से ज्यादा उपन्यासों और कहानी संग्रहों द्वारा निचले पायदान पर रह रहे लोगों के दर्द को मजबूत स्वर प्रदान किया। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत आपका उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी व लोकनायक बिरसा मुंडा के जीवन पर आधारित है। उपन्यास ‘अग्नि गर्भ’ में नक्सलबाड़ी आदिवासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में लिखी गई चार लंबी कहानियाँ शामिल हैं।
आपकी कई रचनाओं पर फिल्में भी बनाई गई हैं। आपके उपन्यास ‘रुदाली’ पर कल्पना लाजमी ने रुदाली तथा ‘हजार चौरासी की माँ’ पर इसी नाम से फिल्मकार गोविंद निहलानी ने फिल्म बनाई। दोनों ही फिल्मों को खासी सराहना मिली।
देश के आदिवासियों के बीच रहकर उनके लिए किए गए कार्यों की स्वीकृति के तौर पर भारत सरकार ने आपको वर्ष 1986 में पद्मश्री और वर्ष 2006 में पद्म विभूषण की उपाधि से सम्मानित किया। वर्ष 1997 में आपको मैग्सेसे पुरस्कार मिला और इसी वर्ष आपको नेल्सन मंडेला के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला। इस पुरस्कार में मिली 5 लाख रुपए की राशि को आपने बंगाल की पुरुलिया आदिवासी समिति को प्रदान कर दिया। 14 जनवरी 2018 को आपकी 92 वीं जयंती पर गूगल ने आपको सम्मान देते हुए गूगल डूडल बनाया।
महाश्वेता देवी की आठवीं पुण्यतिथि पर यह सवाल जेहन में आना स्वाभाविक है कि उनकी नजरों में समाया पीड़ितों-शोषितों से भरा पश्चिम बंगाल कितना बदल पाया है। इन हाशिये पर पड़े लोगों के नाम पर क्या राजनीति ही हो रही है या फिर वास्तव में लंगोट पहने गरीब आज भी हल चलाने को मजबूर है। क्योंकि महान साहित्यकार की ममता लोकतंत्र और लोक में हाशिये पर पड़े लोगों के साथ बराबरी से थी। इसलिए महाश्वेता की उम्मीदों का पश्चिम बंगाल बनाने की जिम्मेदारी अब ममता के कंधों पर है और ‘सबरों की माता’ की आत्मा को तब तक शांति नहीं मिलेगी, जब तक पश्चिम बंगाल, पीड़ित-वंचितों से मुक्त नहीं होगा। आपको याद करते हुए यह सवाल मन में इसलिए कौंध रहा है क्योंकि तटस्थ नजरों में पश्चिम बंगाल अब भी वैसा ही है ‘सबरों की माता’…।