जब माण्डव की मुस्लिम शहजादी सती हुई,800 साल पुरानी घटना
अनिल तंवर की खास रिपोर्ट
यह घटना आज से करीब 800 साल पुरानी है और इसका समय 1400- 1500 ईस्वी के आसपास का है।
यह इतिहास में घटी एक ऐसी घटना है जिसके बारे में ना तो इतिहासकारों ने कभी बताया और ना ही समाज ने भी इसे उतनी ही दिलचस्पी से इसको आगे बढ़ाया।
तकरीबन 800 साल पहले 1400- 1500 ईस्वी के आसपास नसीरुद्दीन खिलजी का माण्डव जिला धार में शासन था। उसकी एक लड़की थी जिसका नाम जैतुन्निसा था ।
धार निवासी धर्मेन्द्र मण्डलोई जो कि गोविन्द राम मण्डलोई की 15 वीं पीढ़ी के वंशज है, बताते है कि माण्डव में उनके पूर्वज गोविन्द राम मण्डलोई टैक्स कलेक्शन (लगान वसूली) का काम करते थे । एक दिन गोविंदराम बैलगाड़ी पर टैक्स की रकम लेकर राजभवन जा रहे थे तभी रास्ते में दो शेरों ने उन पर हमला कर दिया। वीर गोविंदराम दोनों शेरों को भगाने के बाद ख़ज़ाना लेकर दरबार पहुंचे। उनका यह किस्सा नसीरुद्दीन तक भी पहुंच चुका था। गोविंदराम की वीरता पर सुल्तान बहुत खुश हुए। राज दरबार में उनको सम्मानित किया गया। यही मौका था, जब शहजादी जैतुन्निशा ने गोविंदराम को पहली बार देखा। देखते ही वह उनकी बहादुरी से उन पर मोहित हो गईं तथा दासी के हाथ प्रेम पत्र भिजवा दिया।
नसीरुद्दीन को जब इसका पता चला, तो उन्होंने बेटी को खूब समझाया। लेकिन, गोविंदराम के इश्क में पड़ी जैतुन्निशा ने कुछ भी सुनने से इन्कार कर दिया। आखिरकार सुल्तान ने गोविंदराम को बुलाया। गोविंदराम ने भी अपनी मजबूरी गिना दी कि वह विवाहित है तथा विवाह पश्चात शहजादी को सुलतान के महल जैसी सुख-सुविधा भी नहीं दे सकते ।’
लेकिन, जैतुन्निशा ने तो फैसला कर लिया था कि शादी ना हुई, तो गोविंदराम की तलवार से विवाह कर लेंगी। फिर आजीवन उस तलवार को ही अपना पति मानकर रहेंगी।
प्यार जीत गया। दोनों का गंधर्व विवाह हुआ। शादी के बाद जैतुन्निशा का नाम रखा गया बेसरबाई। लेकिन, विवाह से पहले ही सुल्तान ने शर्त रखी थी कि जैतुन्निशा राजमहल में ही रहेंगी। शहजादी ने भी यह शर्त मानी और महल में ही रहीं।
धर्मेन्द्र मण्डलोई के अनुसार कुछ दिनों के बाद गोविंदराम मनावर लौट गए। वहां सांप के काटने से उनकी मौत हो गई। सर्पदंश से मौत होने पर हिंदुओं में भी शव दफनाने की प्रथा थी। कुछ जगह रिवाज आज भी मिलता है। लेकिन, गोविंदराम को जब दफनाया गया तो कुछ लोगों ने कहानी गढ़ दी कि मुस्लिम लड़की से धर्म बदलकर विवाह किया था, इसलिए दफनाया गया।
उस समय सर्पदंश से या कोई भी ज़हरीले प्राणी के काटने से मृत्यु होती थी तो उसको जलाते नहीं थे। बहुत लोगों ने जैसे भ्रमित भी किया कि उनको दफनाया क्यों? वह तो हिंदू है अत: उनका दाह संस्कार किया जाना था । लेकिन जिनकी जहरीले प्राणी के काटने से मृत्यु होती थी, सर्पदंश वगैरह से तो उनको तब दफनाया जाता था ताकि पर्यावरण दूषित नहीं हो और इसी आधार पर उनका जमीन में दफना कर अंतिम संस्कार कर दिया।
इस बीच, पति की मौत की सूचना बेसरबाई तक पहुंची, तो वह घोड़े पर सवार होकर मनावर आ गईं। हिंदू सुहागिनों की तरह 16 शृंगार किए। फिर सती होने के लिए चल दीं। समाज के लोगों को यह पता चला तो रोकने का प्रयास भी किया गया । तब बेसरबाई ने गंधर्व विवाह की बात बताई। उन्होंने घरवालों से गोविंदराम की पगड़ी मांगी और मान नदी के किनारे पहुंच गईं।
गोविंदराम की 15वीं पीढ़ी के धर्मेंद्र मंडलोई ने बताया कि मान नदी के किनारे तमोली जाति की एक महिला रहती थी। उसने ही चिता के लिए लकड़ी की व्यवस्था की थी। चिता जलाने के लिए वह आग लेकर आई, तो बेसरबाई ने मना कर दिया।
कहते हैं कि उन्होंने अपनी योग अग्नि से चिता जलाई और सती हो गईं। धर्मेंद्र मंडलोई के मुताबिक, ‘सती होने से पहले परिवार के लोग उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने कुछ नियम-कायदे बताए। हमारे समाज में आज भी उन नियमों का पालन होता है।’
मंडलोई ब्राह्मण धार, इंदौर और खंडवा के आसपास रहते हैं। मनावर में श्री खेड़ापती हनुमान मंदिर में बेसरबाई का सती स्तंभ लगा है। मंडलोई समाज के घरों में कोई भी मांगलिक कार्य होता है, तो भोग बेसरबाई को ज़रूर लगाया जाता है।