जब हो ‘ध्यान’ का ज्ञान, तभी निखरे जहान!

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जब हो ‘ध्यान’ का ज्ञान, तभी निखरे जहान!

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– कर्मयोगी

‘ध्यान’ शब्द भी लगभग उतना ही प्राचीन है, जितना कि ‘योग’ शब्द। यही वजह है कि अनेक लोग ध्यान को ही योग समझते हैं। आज किसी से भी पूछो; ध्यान क्या है? तो जवाब मिलेगा, कि किसी एकांत स्थान पर बैठकर, आंखें बंद कर लेना ही ध्यान होता है। तो क्या कहीं पर भी एकांत स्थान देखकर अपनी आंखें बंद कर लेने से ध्यान हो जाता है? या फिर ध्यान लगाने के लिए हमें घर का त्याग करके गंगा के तट, हिमालय पर्वत की चोटी, जंगल या फिर गुफाओं आदि में जाना पड़ेगा? दरअसल, आप जहां भी हैं, जो भी काम कर रहे हैं, उसे छोड़ने की जरूरत नहीं है। ध्यान के लिए तो केवल ध्यान को समझने की आवश्यकता है।

भागदौड़ भरी जिन्दगी में ध्यान एक ऐसा आवश्यक माध्यम है, जिसका हमारी दिनचर्या में होना अति आवश्यक है। आज हमारे जीवन में दर्शनों, उपनिषदों व मोक्षदायक ग्रन्थों के स्वाध्याय और ज्ञानी महात्माओं के सान्निध्य का अभाव होता जा रहा है। जिसके कारण अज्ञानी लोग ध्यान के विशेषज्ञ बन बैठे हैं। वे ध्यान के नाम पर कुछ भी जटिल तरीका बताने लगते हैं और हम अपनी आंख और विवेक दोनों को बंद करके उनका अनुसरण करते रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहता तो यही है कि उसका कोई भी कार्य असफल न हो, बल्कि सभी कार्य कुशलता पूर्वक सम्पन्न हों। लेकिन क्या ऐसा सम्भव है कि हम अपने सभी कार्यों को बिना गलती किए, पूर्ण कर सकते हैं? प्रश्न यह भी है, कि क्या ऐसा कोई नियम अथवा सिद्धांत है, जो हमारे सभी कार्यों को बिना किसी त्रुटि के पूर्ण करने में सहायक हो? सभी प्रश्नों का एक ही प्रामाणिक उत्तर है ‘ध्यान’।

सरल शब्दों में ध्यान
सार्वजनिक जीवन में जिस भी स्थान पर अधिक दुर्घटनाओं की संभावनाएं होती हैं, वहां पर एक वाक्य मुख्य रूप से अंकित किया जाता है, सावधानी हटी-दुर्घटना घटी। ये सावधानी ही ध्यान है। संधि विच्छेद करते हैं, तो हमें पता चलता है कि स+अवधान से सावधान शब्द बनता है। इसमें स का अर्थ है “सहित” और अवधान का ध्यान। इस प्रकार सावधान शब्द का अर्थ हुआ जो ध्यान के साथ किया जाये। अर्थात् जो पूर्ण मनोयोग और सावधानी के साथ किया जाये। फिर चाहे वह रसोई में भोजन तैयार करना हो या सड़क पर गाड़ी चलाना हम कह सकते हैं कि यह सावधानी ही ध्यान है।

धारणा से ध्यान
योग दर्शन में ध्यान को अष्टांग योग के सातवें अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। इससे पहले के छह अंग निम्न हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार व धारणा। ध्यान हेतु इन सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है। ये सभी अंग ध्यान को प्राप्त करने के लिए सीढ़ी का काम करते हैं।

ध्यान को समझने से पहले हमें धारणा को समझना पड़ेगा। धारणा को ध्यान का पूर्वाभ्यास कहते हैं। महर्षि पतंजलि के अनुसार; अपने चित्त को किसी स्थान विशेष पर केंद्रित कर देना धारणा कहलाती है। दूसरे शब्दों में चित्त की एकाग्र अवस्था को धारणा कहा गया है। इस प्रकार महर्षि पतंजलि द्वारा बताई गई ध्यान की परिभाषा में ध्यान की अलग से तो कोई विधि बताई नहीं गई है। अर्थात जहां पर धारणा की गई थी, उसी स्थान पर उस धारणा का लम्बे समय तक बिना किसी बाधा के बने रहना ही ध्यान होता है। वहीं सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल कहते हैं – ‘मन का सभी विषयों से रहित हो जाना ही ध्यान है।’निस्संदेह चित्त और मन नियमन से ध्यान लगाना संभव होता है।

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किसका ध्यान करें
ध्यान के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि ईश्वर को छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थ का ध्यान नहीं करना चाहिए। साधक को उस अन्तर्यामी परमात्मा के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना ध्यान है। इसी प्रकार ऋग्वेद कहता है कि ईश्वर में ध्यान करने वाले साधक अपनी इन्द्रियों को समेटकर परमात्मा के आनंद में निमग्न हो जाते हैं। सदा से साधक उस सर्वज्ञ और महान परमेश्वर में मन, बुद्धि और सम्पूर्ण ज्ञान को समर्पित करते आये हैं। परमात्मा की उपासना और ध्यान करने से परमात्मा अपने सामर्थ्य से साधकों की बुद्धि को अपने में युक्त कर लेता है। जिससे साधकों की आत्माओं में दिव्य प्रकाश प्रकट होता है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि योगी एकान्त में रहकर अपने चित्त व आत्मा का संयमन करे, इसके अलावा अन्य किसी प्रकार की कामना का मन में विचार भी न आने दे। इसके साथ-साथ अपने अन्दर से सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने वाले भाव को त्याग कर, अपने अन्तःकरण को ध्यान में लगाने का प्रयास करे।

ध्यान के आसन की तैयारी
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि योगाभ्यासी साधक को शुद्ध स्थान और समतल भूमि पर सबसे पहले दर्भ अर्थात् घास, मृग की छाल अथवा कम्बल आदि बिछाकर आसन लगाना चाहिए। इस प्रकार आसन के स्थान व आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था करने के बाद योगाभ्यासी साधक को अपने चित्त और इन्द्रियों को नियंत्रित करते हुए, मन को एकाग्र करके, स्थिर होकर, पीठ, गर्दन व मस्तक को एक सीध में रखते हुए, दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर टिकाकर, अन्तःकरण को शांत करके, भय रहित होकर, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, मन को संयमित करके, मुझमें अपना चित्त लगाकर, मेरा ध्यान करते हुए मुझमें ही योगयुक्त हो जाएं।

गीता में ध्यान के लिए अभ्यास एवं वैराग्य की बात कही गई है। योगी श्रीकृष्ण ध्यान से पूर्व चंचल मन को नियंत्रित करने की बात करते हुए कहते हैं कि संकल्प करके अपनी सभी कामनाओं व वासनाओं को त्याग कर, मन से सभी इन्द्रियों को वश में कर, धैर्य युक्त बुद्धि से धीरे-धीरे शान्त होता जाना और मन को आत्मा में स्थिर करके कुछ भी चिन्तन न करना। उपयुक्त विधि का पालन करते हुए मन जब भी कभी बाहर जाए तो उसे वहां से रोककर आत्मा के ऊपर लगाएं अर्थात आत्मा के अधीन करने का प्रयास करते रहें। श्रीकृष्ण कहते हैं कि अभ्यास एवं वैराग्य से इसे नियंत्रण में किया जा सकता है।

ध्यान से पूर्व जो जरूरी
जब तक योग साधक के व्यवहार में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन नहीं आ जाता, तब तक ध्यान सम्भव नहीं है। यमों की तरह ही साधक को ध्यानस्थ होने के लिए शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का पालन करना अनिवार्य है। साधक को किसी भी ध्यानात्मक आसन का अभ्यास करना चाहिए। प्राणायाम का भी अभ्यास जरूरी है। जब तक प्राण अनियंत्रित होकर चलता रहता है, तब तक हमारा चित्त भी चलता रहता है। लेकिन, जैसे ही हम प्राण को नियंत्रित कर लेते हैं, वैसे ही हमारा चित्त भी नियंत्रण में आ जाता है। प्राणायाम करने से मन की धारणा शक्ति का विकास होता है। इस धारणा शक्ति से ही ध्यान का मार्ग प्रशस्त होता है।

ध्यान की विधि
ऋग्वेद से लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा इस बात की पुष्टि की जा चुकी है कि परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय का ध्यान नहीं करना चाहिए। योगदर्शन के समाधिपाद में ईश्वर के स्वरूप और गुणों का वर्णन बहुत सुन्दर तरीके से किया गया है। हमें केवल उसी का अनुसरण करना है। ध्यान हेतु किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर आंखों को कोमलता से बंद करें और तीन बार ओऽम शब्द का उच्चारण करें। इसके बाद तीन बार बाह्य प्राणायाम का अभ्यास करना है। प्राणायाम करने के बाद पूरी सजगता के साथ अपने प्राण को दृष्टा भाव से देखना है। जैसे ही प्राण की गति सामान्य हो जाए, वैसे ही ईश्वर का चिन्तन प्रारम्भ कर देना चाहिए।

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ईश्वर का चिंतन ईश्वर प्रणिधान के सूत्र के साथ आरम्भ करते हुए परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखना है। इसके बाद हमें चिन्तन करना है कि वह ईश्वर सभी प्रकार के क्लेशों, कर्मों, उनके फलों और संस्कारों से रहित और सभी आत्माओं में विशेष है। वह ईश्वर सभी गुरुओं का गुरु है, क्योंकि वह काल की सीमा से परे है। उसका मुख्य और निज नाम ओऽम है और मैं उस ओऽम का उच्चारण उसके अर्थ की भावना के साथ करते हुए अपने सभी कर्मों को उस ईश्वर में समर्पित करता हूं। इसके बाद साधक को ओऽम शब्द का उच्चारण अथवा स्मरण उसके अर्थ की भावना के साथ करना चाहिए। इस प्रकार उस ईश्वर का चिंतन और ईश्वर प्रणिधान की भावना करने से ईश्वर और जीवात्मा का साक्षात्कार होता है और सभी विघ्नों का भी नाश होता है।
यजुर्वेद भी कहता है; हे कर्म करने वाले प्राणी! ओऽम नाम का स्मरण अर्थात जप कर। मुण्डक उपनिषद् भी कहता है- यह प्रणव अर्थात ओऽम शब्द धनुष है, आत्मा बाण है, ईश्वर उस आत्मा का लक्ष्य है। इसलिए प्रमाद को त्यागकर लक्ष्य का भेदन करो। जिस प्रकार तीर अपने लक्ष्य में प्रवेश करता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी उस ब्रह्म अर्थात् ईश्वर में प्रवेश करेगी। महर्षि दयानन्द भी ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय में लिखते हैं- सदा ओऽम नाम का जप और उसी के अर्थ का चिंतन करना चाहिए। ऐसा करने से साधक का मन एकाग्र, प्रसन्न और ज्ञान को यथावत् प्राप्त कर लेता है, जिससे उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश और ईश्वर भक्ति बढ़ती जाती है।

ध्यान की प्राप्ति
ध्यान स्वतः ही घटने वाली प्रक्रिया है। इसके लिए हमें स्वयं को इस योग्य बनाना पड़ता है कि यह स्वतः ही घटने वाली प्रक्रिया हमारे साथ भी घट जाए। इसके लिए हमें सबसे पहले ध्यान के वास्तविक स्वरूप को जानना आवश्यक है। ध्यान की सफलता के लिए ध्यान में श्रद्धा, उसका निरन्तर और दीर्घकालीन अभ्यास होना अनिवार्य है।