Where is the mold? माँ पहाड़ावाली की भी कुछ सुनिए!

1020

Where is the mold?

चौतरफा भक्ति भाव का वातावरण है। इन नौ दिनों सभी झंझटों को ताक पर रखकर भक्तगण प्रमुदित, आनंदित रहते हैं। त्योहारों के रूप में आनंद का बंदोबस्त हमारे पुरखे कर गए । हर त्योहार मनुष्य की जिजीविषा बढा देता है। ये न होते तो सचमुच जिंदगी कितनी नीरस होती। अब इन त्योहारों के पीछे छुपे अर्थ भी कोई बताने वाला हो।
Where is the mold
हर भक्त के मन में यह सवाल उठना चाहिए कि वह नौदुर्गा क्यों मनाए, व्रत उपवास क्यों करे.? इनका तार्किक उत्तर वैसे ही खोजना चाहिए जैसे विवेकानंद रामकृष्ण से सवाल जवाब करके खोजते थे। विवेकानंद यही सीखाकर गए कि किसी चीज पर आँख मूँदकर विश्वास नहीं करना चाहिए,भले ही उसे कोई कितना अभीष्ट बताए।
आँख मूदकर विश्वास करना ही अंधविश्वास है। जितने भी साधु, संत, महंत अब व्यभिचार और नानाप्रकार के कुकर्मों में पकड़े जा रहे हैं वे सबके सब अंधविश्वास के खाते की कमाई से ही पल रहे हैं।। कोई जीते जी स्वर्ग का रास्ता बता रहा था, कोई धंधा और धन दूना करने का झांसा दे रहा था।
यहां तक कि पुत्रप्राप्ति की इच्छा के लिए भी लोग क्लीनिक न जाकर इनके पास जाते हैं,धन-धरम दोनों लुटा बैठते हैं।  एक दो नहीं करोडों की संख्या में लोग इन ढ़ोगियों के चक्कर में अभी भी फँसे हुए हैं।
एक महान ठग हुआ नटवरलाल पचहतर वर्ष की उमर तक ठगी की। एक बार उसने जिला जज के नाम से एक घड़ी के दूकानदार को ठग लिया। जज इतना पावरफुल पद कि दूकानदार झांसे में आ गया। कुछ दिन बाद उसे पुलिस ने पकड़ा। तस्दीक के लिए मेरे शहर ले आए जहाँ मैं अखबार में काम करता था। मेरी जिग्यासा नटवरलाल लाल से मिलाने ले गई। वह सभ्य सुसंस्कृत लग रहा था।
ठगों की यही सबसे बड़ी खूबी होती है कि सूरत शक्ल, हाव-भाव से कोई जान नहीं कर सकता कि ये ठग भी हो सकता है। यही हुनर ही ठगने में काम आता है। ये कतिपय साधु भी पक्के नटवरलाल होते हैं। जब तक इनका अंत नहीं उघरता कहीं से ढ़ोगी नहीं लगते। नटवरलाल के पास जिला जज के नाम का आसरा था। इनके पास तो भगवान के नाम का सुपरपावर रहता है।
अब जब हनुमान जी जैसे परम ग्यानी कालिनेमि के झांसे में आ गए तो साधारण आदमी की बिसात क्या.? हनुमान जी भगवान् के नामपर कालिनेमि के झांसे में फँस तो गए पर उनके विवेक ने जल्दी ही उबार लिया। उन्हे एक मगरी ने टोक दिया -क्या बिना जानेबूझे उस साधु के चक्कर में फँसे हो।
अरे आपका तो सीधा प्रभु से कनेक्शन है, ये आपसे बड़ा साधु थोड़ी न है। हनुमानजी ने उस मगरी की बात को सुना और विश्वास किया कि वाकई हमसे बड़ा भक्त कौन हो सकता है और फिर कालिनेमि का पर्दाफाश कर दिया। कभी कभी छोटा जीव भी बड़ी सीख दे जाता है, इसलिए वह भी आदर का पात्र है।
हम किसी के झाँसे में तभी फँसते हैं जब हमारा आत्मविश्वास लड़खड़ा जाता है। खंडित आत्मविश्वास के लोग ढ़ोगियों के चक्कर में वैसे ही फँसते हैं जैसे फ्लाईकैचर में मख्खी। मेरे एक मित्र कहा करते हैंं कि जब तक दुनिया में एक भी मूर्ख जिंदा है कोई ठग भूखे नहीं मर सकता और जब तक एक भी अंधविश्वासी है तब तक कोई ढोंगी।
हर मनुष्य सामने वाले जैसा है। उसी के बराबर। ईश्वर समदर्शी है। वह सबको बराबर नेमते देता है। यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह उसका प्रयोग कैसे करता है। मानवीय गुणवृत्तियों के प्रयोग के ऊँचनीच में ही कोई लूटता है कोई लुटता है। इसलिए जरूरी है कि हम स्वयं मनुष्य होने की कीमत और ताकत को पहचाने।
इसलिए जरूरी है कि आपके मन में प्रश्न रहे, शंका रहे, जिग्यासा रहे। इन्हीं मूलभूत गुणों की वजह से नरेन्द्र विवेकानंद बने और डाकू रत्नाकर वाल्मीकि।
 हम भक्तिभाव से माँ की आराधना कर रहे हैं। यह जानें कि माता भगवती के मूल में क्या है। हम तीनों देवियों की बात करते हैं। माँ पार्वती जो कि दुर्गा के रूप में शक्तिस्वरूपा हैं कौन हैं ? पर्वत की पुत्री। पर्वतराज हिमालय की लाड़ली, उन्हीं की गोद में पली बढ़ी। और लक्ष्मी मैय्या .? समुद्र की बेटी, मंथन में निकलीं। सरस्वती कमलासनी। कमल से पैदा हुईं उसी को आसन बनाया। इसी तरह जगद्जननी सीता धरती की पुत्री। सभी की सभी अयोनिजा।
इनके जन्म में भी संकेत व सूत्र छुपे हैं। सबकी सब प्रकृति की बेटियां। वैग्यानिक नजरिए से देखें तो सभी पंचमहाभूत की कारक। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो ब्रह्म और प्रकृति का द्वैत, जिससे सृष्टि रची गई।
Where is the mold
इसलिए आप देखते हैं देश में जितने भी शक्तिपीठ, उपशक्तिपीठ हैं सबके सब पहाडों में। इसीलिए माँ पहाड़ावली है। पहाड़ प्रकृति के शौर्यध्वज हैं। शेर वन्यजीवों की शक्ति का प्रतीक। उसपर तो सवा शेर ही सवारी करेगा इसलिए वह माँ का वाहन। सो दुर्गा मैय्या प्रकृति के शौर्य और सौंदर्य की प्रतीक हैंं।
अब जब पहाड़ ही न बचें, जंगल कट जाएं, वन्यजीवों का नाश हो जाए तो फिर क्यों दुर्गा मैय्या की पूजा। सब व्यर्थ। दुर्गा मैय्या प्रकृति की देवी हैं। पर्यावरण की अधिष्ठात्री हैं। पंडालों में कितने तेज स्वर से डीजे बजते हैं। कमजोर दिल का आदमी आधाघंटे बैठे तो टें बोल जाए। ध्वनि प्रदूषण सीमा से कई गुना ज्यादा डेसीबल चला जाता है। इस प्रदूषण से भी पचास तरह की बीमारियां होती हैं।
 आपको यह क्यों नहीं लगता कि माँ भगवती ऊँचे पहाडों को अपना ठिकाना इसीलिए बनाया की वे भीड़भाड़ और कोलाहल से दूर रहें। एकांतवासा, झगड़ा न झांसा। इस संदेश को आत्मसात करने की बजाए उन्हें भीड़भरी बस्ती में विराज देते हैं। चलो यह भी सही..शहर भर में एक या दो हों..लेकिन एक मोहल्ले में चार चार। फुल साउंड में बाजा बजाने की होड़। शांतप्रिय लोगों के प्राण निकल जाएं।
Where is the mold
मुझे याद है मेरे शहर में दुर्गा प्रतिमाओं के विराजने का चलन सन् 85 के बाद आया है। और देखते देखते गांव भी इसी में रम गए। पहले मंदिर या मढिया में पूजा हो जाती थी। जहाँ यह नहीं वहां नीम के पेड़ के नीचे देवी दाई की पूज ली। तीस चालीस साल पहले क्या भक्ति भाव नहीं था कि भक्त नहीं थे? ये सोचना चाहिए।
अब कल से भंडारे शुरू हो जाएंगे। सड़क पर पन्नियां, प्लास्टिक के पत्तल और कूड़े का अंबार। यही नदियों में बहकर जाएगा। नदियां भी तो देवी माँ है। एक देवी को प्रसन्न किया दूसरे को नाराज तो हिसाब बराबर। भक्ति का फल शून्य। फिर सब देवीतुल्या नदियों से बहकर मलबा पहुंचेगा समुद्र में। समुद्र माँ लक्ष्मी का वास। वो नाराज होने पाईं तो सब भक्तिभाव जपतप गुड़गोबर।
सो इसलिए देवियों की पूजा असल में प्रकृति के स्वरूप की पूजा है। प्रकृति के स्वरूप के प्रतिकूल कुछ किया तो उसे माँ स्वीकार नहीं करने वाली। आराधन,पूजन के मर्म और अर्थ को हम क्यों न इस दृष्टि से देखें और अपने अपने विवेक सम्मत तर्क का भी उपयोग करें जिसकी सीख स्वामी विवेकानंद हमें दे गए हैं।