साँच कहै ता! सोशल मीडिया: फितरत से नसीहत तक!
ये फितरत ही तो है जो आदमी को जानवर से अलग करती है। वह मारने के लिए बंदूक बनाता है और फिर खुद उसी बंदूक से मारा जाता। वह फितूर में अपने लिए ही आफत रचता जाता। खुद जाल बुनता है एक दिन उसी में वही फँस जाता है।
शंकर ने भस्मासुर को वरदान दिया, भस्मासुर उन्हीं पर आजमाने दौड़ पड़ा।इसके बाद भी भगवानों ने उलटे सीधे वरदान देना नहीं छोड़ा। यह उनकी फितरत थी।पहले दैत्यों को ताकतवर बनाते फिर उनको मारने की तरकीब में जुट जाते। मनुष्य तो उन्हीं का बच्चा है न अपनी फितरत के आगे मजबूर। मदारी बीन बजाकर साँपों को नचाता है फिर उन्हीं के ड़सने से मर जाता है। न वह नचाना छोड़ता और न साँप डसना।
आदमी की इसी फितरत ने नाना प्रकार के नवाचार किए। पहले मजा किया और अब उसी के निशाने आ गए। सोशल मीडिया को ही लें। आज की तारीख में नेताओं से कोई उनकी मुराद पूछे तो पहले नंबर में यही होगी कि सोशल मीडिया क्या पूरे इंटरनेट परिवार को देश निकाला दे दिया जाए। क्योंकि जो सोशल मीडिया की लहर पर सवार होकर सफलता के शिखर में पहुंचे उन्हीं को अब ये सींग दिखाने लगा। सोशल मीडिया जिस रफ्तार से झूठ फैलाता है उसकी दूनी रफ्तार से झूठ को पकड़ता भी है। झूठ पकड़ने की इसी फितरत के चलते वे लोग अब इससे तौबा करने पर विचार करने लगे हैं।
नेता लोग सत्ता में आने के लिए वायदों की बरसात करते थे, घोषणाओं के परचे जारी करते थे। ऐसा मान लिया जाता था कि वोटर की याददाश्त काफी कमजोर होती है। समय के साथ भूल जाएगा। घोषणाओं के परचे रद्दी में फेक देगा। ऐसा होता भी था। जिंदगी में वैसे भी इतनी झंझटें होती थीं कि नोन-तेल-मिर्च, नौकरी,बेटे के लिए घर,बेटी के लिए वर यही चौबीसों घंटे गूजते थे। फिर चुनाव आए, नए वायदे,घोषणाओं के नए परचे आदमी यंत्रवत उसी को वोट दे आता था जिसको पड़ोसी ने दिया। पड़ोसी से नहीं पटती तो ज्यादा से ज्यादा यह किया कि उसने मिठाईलाल को वोट दिया तो इसने चिंरौजीलाल को दे दिया। मुद्दे, घोषणाएं, वायदे सब चुनाव संपन्न होने के बाद अपनी-अपनी गति को प्राप्त होते थे।
अब ऐसा नहीं रहा। दिमाग के हिस्से का सोचने-विचारने का काम इंटरनेट परिवार ने ले लिया। किसने किस दिन क्या कहा था, सोशल मीडिया उगलता रहता है। फेसबुक का तो सबसे लोकप्रिय फीचर ही यही है कि वह याद दिला देता है कि आज के दिन आपने या किसी ने जो आपसे जुड़ा है ,कौन सी पोस्ट डाली थी। आदमी हर क्षण अतीत से अपडेट रहता है। अपना नेता हर तुलना इतिहास से तो करता है पर वह चाहता है कि वोटर उसके इतिहास में न जाए। सोशल मीडिया इतना फितरती है कि वह उस नेता के अतीत का भी हिसाब किताब रखता है।
सोशल मीडिया ने सोच के दायरे को हजार-लाख गुना ज्यादा फैला दिया है। उसकी सोच में साझेदारी भी बढ़ी है और तर्कशक्ति भी। सोशल मीडिया ने वोटर को ढोरडंगर की प्रजाति से निकाल बाहर खड़ा किया है। वह अब विवेकी बन गया है। हाँकने वालों का हिसाब-किताब भी उसकी अंगुलियों में है। सो एक जमाना था वोटों की ठीकेदारी का उस ठीकेदारी प्रथा के अब अवशेष बाकी हैं।सोमी ने वोटरों को नेकी बदी समझना शुरू कर दिया है।
ट्रेन्ड तेजी से बदल रहे हैं। लोग अब गप्पू के कहने पर पप्पू का न तो मजाक बना रहे हैं न ही उसे खारिज कर रहे हैं। कभी जिस गंभीरता से गप्पू लिए जाते थे आज उसी संजीदगी से पप्पू लिए जाते हैं। कागज में लिखी इबारत को मिटाने का या सुधारने का विकल्प नहीं होता। लेकिन एंड्राइड की स्लेट में वे सभी विकल्प हैं। यह डिलीट करके नई इबारत भी गढ़ सकता है। संशोधित भी कर सकता है पोस्ट के साथ विदड्राल का भी विकल्प है। वह समय के साथ अपनी स्मृतियों में भी संशोधन करने लगा है। झूठे और लफ्फाज राजनेताओं की जमात के लिए वोटर नहीं ये सोशलमीडिया सबसे बड़ा चैलेंज है।
समसामयिक मामलों में पहले कुछ चुनिन्दा टिप्पणीकार हुआ करते थे। जो, अखबार, पत्रिकाओं व टीवी में अपने विचार रखते थे। उन्हीं के सोचे के आधार पर आम जनमानस अपना विचार बनाता था। आज देश में सौ करोड़ विचारक हैं। जितने एन्ड्रॉयड उतने ही विचारक। उन्हें अब मुट्ठीभर विचारक अपने तईं हाँक नहीं सकते। उनमें भी मीनमेख निकालने की क्षमता आ गई है। उनका भी अपना समूह है। सोच अब सामूहिक हो गई है। छटपहाट के लिए कोई जगह नहीं। जरा सा भी लगा सामने उगलके रख दिया। अच्छा या बुरा। उस बुरे में भी अच्छा खोजने और अच्छे में भी बुरा खोजने की तार्किकता आ गई है। यह बड़ी भारी ताकत है जो मुद्दतों बाद जनता के हाथ लगी है। नीतिनियंताओं को अनुशासित करने का जो काम संविधान और कानून न कर सका वह सोशलमीडिया से उपजे लोकभय ने कर दिया। इसलिए सब खबरदार भी होने लगे हैं।
अभी दो राज्यों के चुनाव हुए (उपचुनावों समेत दो राज्यों के होने जा रहे)। उसके परिणाम आने के बाद मीडिया में संपादकों ने अपने अपने नजरिए से टिप्पणियां लिखीं। इसके समानांतर स्वतंत्र लोगों की टिप्पणियाँ भी सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आईं। इनमें से कई तो संपादकों और पेशेवर टिप्पणीकारों से अच्छी व वस्तुनिष्ठ थीं। तो अब समझ लीजिए मुख्यधारा का मीडिया भी गुमराह नहीं कर सकता। तीसरी नजर उनपर है। और इस नजर का भयमिश्रित लिहाज भी होने लगा है। सूचना युग की यह नई और शक्तिशाली क्रांति है। लाख किन्तु, परंतु के बाद भी। समय के साथ इसकी विकृतियां भी दूर होंगी।
अब नई आहट सोशल मीडिया के नाथने को लेकर है। इकोनामिस्ट में एक लेख पढ़ा जिसमें सोशल मीडिया को गैर जिम्मेदार बताते हुए झूठ की स्थापना करने वाली मशीन तक कहा गया है। ये बात यूरोप से उठ रही है। सोशल मीडिया की क्रांति भी वहीं से शुरू हुई। इकोनामिस्ट का संकेत बताता है कि सोशल मीडिया नीतिनियंताओं की नजर पर चढ़ रहा हैं। इसे नाथने और छांदने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। ऐसे ही स्वर अपने देश के कुछ सूबों से फूटे हैं। इसे नियंत्रित करने के कानून पर विमर्श चल रहा है।
मैं यह अनुमान लगा सकता हूँ कि सोमी का यह खुलापन और अनंत दायरा आगे चलकर सत्ता को कदापि नहीं सुहाएगा। इसलिए जरूरी है कि यह स्वमर्यादित हो। ऐसे तत्वों को इसमें पनाह नहीं मिलनी चाहिए जो आगे चलकर इसकी सेंसरिंग और पाबंदी की वजह बनें। अभिव्यक्ति का यह स्वअर्जित माध्यम है जिसने पक्षपात रहित समाज गढने का काम शुरू किया है,अनजाने ही सही। इसका लुफ्त तो उठाइए लेकिन विवेकसम्मत तरीके से।