ये नाराजगी और विद्रोह आखिर भाजपा को कहां ले जाएगा!
वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक समीक्षक और मीडियावाला के संपादक हेमंत पाल की टिप्पणी
भाजपा के पूर्व विधायक भंवरसिंह शेखावत ने पार्टी के खिलाफ बयान दिया। पार्टी के वयोवृद्ध नेता सत्यनारायण सत्तन भी खुलकर बोले और पार्टी की उन सारी खामियों और भी इशारा किया, जो वे देख और समझ रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी ने तो खुला विद्रोह कर दिया और अब वे कांग्रेस ज्वाइन कर रहे हैं। ये तीन घटनाएं हाल ही में घटी और सबके सामने आई। बात यहीं खत्म नहीं होती, आगे भी पार्टी के कुछ नेता ऐसा कर सकते हैं इस बात के संकेत मिलने लगे हैं। यह विद्रोह या नाराजगी का भाव मालवा तक सीमित नहीं है। पूरे मध्यप्रदेश में अंदर ही अंदर इस तरह का विरोध अलग-अलग कारणों से पनप रहा है। लेकिन, जो कॉमन विरोध है वो है वरिष्ठों की अनदेखी और नौसिखियों को आगे बढ़ाने की कोशिश!
खास बात यह है ये कि तीनों घटनाएं मालवा क्षेत्र के इंदौर और आसपास की है। लेकिन, पार्टी के किसी वरिष्ठ भाजपा नेता ने इन तीनों नेताओं की नाराजगी दूर करने के लिए न तो उनसे मिलने की कोशिश की, न उनकी पीड़ा को सुना और न अपनी तरफ से कोई ऐसी कोशिश की जिससे लगे कि इन नेताओं को मनाकर, समझाकर शांत किया जा सकता है। तीनों नेताओं को मनाने का काम भी अंततः मुख्यमंत्री को ही करना पड़ा। सत्यनारायण सत्तन को फोन करके भोपाल बुलाया गया, दीपक जोशी से बात की और भंवरसिंह शेखावत को भी मनाने की कोशिशें की जा रही है। इससे लग रहा है कि पार्टी में जो कुछ करना है, वह सब मुख्यमंत्री की ही जिम्मेदारी है और उन्हें ही करना है। वे ही कोशिश करेंगे, वही मनाएंगे, वही आश्वासन भी देंगे। वे ही पार्टी की भविष्य की रणनीति तय करेंगे और बाकी सारे नेता सिर्फ हवाबाजी और फोटोबाजी के लिए हैं। जबकि, ये संगठन मुखिया की जिम्मेदारी है, कि वे पार्टी को एकजुट रखें और नाराजगी का भी इलाज करें।
दीपक जोशी की नाराजगी नई बात नहीं है। लंबे समय से इसका इशारा मिल रहा था कि दीपक जोशी हाटपीपलिया को लेकर हुए राजनीतिक उलटफेर से नाराज हैं। उन्होंने कुछ दिनों पहले भी अपनी पीड़ा बताई थी। लेकिन, तब कोई नेता उनके पास नहीं गया। उनकी बातों को भी अनसुना किया गया। उन्होंने जो मुद्दे उठाएं, उन्हें हाशिए पर रख दिया गया। इसी का नतीजा रहा कि उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया। अब लगता भी नहीं कि उनके बढ़े हुए क़दमों को वापस पलटाया जा सकता है। क्योंकि विपक्ष ने उनकी पीड़ा पर मरहम लगाने का काम जो कर दिया।
भंवरसिंह शेखावत की स्थिति भी यही है। जब तक पार्टी को उनकी जरूरत थी, उनका उपयोग किया गया। जब उनके लिए इंदौर में जगह नहीं बची, तो एक बार उन्हें धार जिले के बदनावर सीट से चुनाव लड़ाया गया और वे जीत भी गए। इसके बाद उनको भी हाशिए पर डाल दिया गया। इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि वरिष्ठ और हर तरह से सक्रिय नेता को किनारे क्यों किया गया! पिछले चंद सालों में जो नए नेता इंदौर की राजनीति में उतरे हैं, क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे इन नेताओं के अनुभव से सबक लें, उनसे मिले और यदि उनमें कोई नाराजगी नजर आती है, तो उसे दूर करने की कोशिश जरूर करें। लेकिन, ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया।
पार्टी की बैठकों में वही चार चेहरे नजर आते हैं, जो एक-दूसरे की हां में हां मिलाते और मीडिया में छपते रहते हैं। जहां तक सत्यनारायण सत्तन की बात है, तो वे एक प्रसिद्ध कवि होने के साथ बेहद मुखर नेता हैं। अपनी मुखरता से कई बार वे पार्टी की सीमा रेखा को लांघते रहे हैं। लेकिन, इसे गलत नहीं कहा जा सकता। जब पार्टी का संगठन उनकी बात नहीं सुनता, तो उनको भी अधिकार है कि वे पार्टी की खामियों को मंच से बोले। यदि व्यक्ति से बंद कमरे में बात नहीं की जाएगी, तो उसकी मजबूरी है, कि वह अपनी बात कहने की जगह ढूंढने और वही सब सत्तन जी ने भी किया। एक पत्रकार से फोन पर बात करते हुए उन्होंने पार्टी की पूरी बखिया उधेड़ दी। वे जिस तरह बोले, उससे स्पष्ट है कि उनके अंदर ये दर्द लम्बे समय से खदबदा रहा था।
सत्यनारायण सत्तन ने जो कहा उसे भले ही पार्टी की रीति-नीति के हिसाब से गलत समझा जाए, लेकिन कुछ और भी कारण होँगे, जिस वजह से उनके गुस्से का ज्वालामुखी फट पड़ा। अब भले उन्हें आश्वासन देने की कोशिश की जा रही है, वह अपनी जगह ठीक है। लेकिन, इस बहाने पार्टी का जो नुकसान होना था और विपक्ष को जो मुद्दे मिलना थे वह तो मिल ही गए। सत्तन जी इतने वरिष्ठ हैं कि उन्हें छोटे-मोटे आश्वासनों से समझाया नहीं जा सकता। वही स्थिति भंवरसिंह शेखावत की भी है। शेखावत ने तो यह भी कहा कि जहां से पार्टी को जीत का भरोसा नहीं हो, वहां मुझे भेज दो। लेकिन, क्या पार्टी उन्हें चुनाव मैदान में उतारेगी! जहां तक दीपक जोशी का मामला है, तो वो बिल्कुल ही अलग है। हाटपीपलिया से चुनाव को लेकर उन्हें कोई भरोसा नहीं दिलाया जा सकता। जबकि, दीपक जोशी तो विपक्ष के उम्मीदवार बनकर मुख्यमंत्री के सामने भी चुनाव लड़ने की बात कह चुके हैं। इससे साफ़ है कि वे अब दिल से भाजपा छोड़ चुके हैं, फिर चाहे पार्टी उनके पिता की मूर्ति ही क्यों न लगवा दे।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस बार के विधानसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति उतनी संतोषजनक नहीं है, जितनी दिखाने या संभालने की कोशिश हो रही है। पार्टी में बहुत सारा विरोध पक रहा है और यह बात पार्टी को भी पता है। जब उसे सुना नहीं गया तो वह बात सड़क पर आ गई। लेकिन, ऐसी स्थिति में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का इस तरह विरोध करना और अपनी नाराजगी व्यक्त करना पार्टी को और ज्यादा नुकसान देगा। यदि सिर्फ इंदौर की ही बात की जाए तो यहां भाजपा में यहां गुटबाजी साफ नजर आती है। कई बड़े नेताओं की बात को अनसुना कर दिया जाता है। युवा के नाम पर नौसिखियों को चांस दिया जाता है। जिन्हें न तो राजनीति का अनुभव है और न वे अनुभवियों से सबक लेना चाहते हैं।
बात सिर्फ इंदौर शहर की ही नहीं है। धार जिले की राजनीति में सबसे वरिष्ठ नेता रहे विक्रम वर्मा को भी आज पार्टी ने हाशिए पर डाल दिया। न तो उनसे सलाह दी जाती है, न उनसे कुछ सीखा जाता है। यहां तक कि जो नौसिखिए नेता पैदा हुए हैं, वे उन्हें अपना प्रतिद्वंदी मानकर उनके खिलाफ बयानबाजी करने से भी बाज नहीं आते! जबकि, आज भाजपा में सबसे वरिष्ठ नेताओं में अकेले विक्रम वर्मा ही हैं, जो आज भी सक्रिय हैं। उनके पास हर स्तर का अनुभव है। वे केंद्र से लगाकर राज्य में मंत्री रहे और पार्टी के अध्यक्ष भी रहे हैं। लेकिन, धार के नौसिखिए छोटे-मोटे नेताओं को उनके मुकाबले खड़ा करने की कोशिश की जाती है। यह जानते हुए भी कि विक्रम वर्मा का मुकाबला करने वाला आज की तारीख में धार जिले तो छोड़ इंदौर संभाग और प्रदेश में भी नहीं है। यदि खोजा जाए तो यह स्थिति हर जिले में मिल जाएगी, जहां पिछले तीन साल में पार्टी ने वरिष्ठों को हाशिए पर रखकर ऐसे नए लोगों को मौका दिया है, जिन्हें सिवा हवाबाजी करने के कुछ नहीं आता। यह स्थिति पार्टी के लिए कहीं से ठीक नहीं जा सकती।
आज सत्यनारायण सत्तन, भंवरसिंह शेखावत और दीपक जोशी ने विद्रोह किया है! कल को दूसरे नेता भी उनकी राह पर चल सकते हैं यह पार्टी के लिए संकेत है जिसे समझा जाना चाहिए। सत्यनरायण सत्तन की पीड़ा का मूल कारण भी यही है। अब भले उन्हें मनाने की कोशिश हो रही है। देखना है कि सत्यनारायण सत्तन और भंवरसिंह शेखावत को पार्टी किस तरह मनाती है। क्योंकि, दीपक जोशी को मनाने के रास्ते तो अब बंद हो चुके हैं। बल्कि यह कहा जाना बेहतर होगा कि उन्होंने खुद ही अपनी तरफ से दरवाजे बंद कर दिए।