देश में दो टाइम जोन क्यों आवश्यक हैं

दो टाइम जोन कर के हम हर साल ₹ 33,000 करोड़ की बचत कर सकते हैं

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सुदेश गौड़ की विशेष रिपोर्ट

भारत के सिंगल टाइम ज़ोन की जगह दो टाइम जोन होने पर हर साल लगभग ₹ 33,000 करोड़ की राशि बच सकती है। यह मेरा आकलन नहीं है, बल्कि 2019 की एक शोध रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत दो समय क्षेत्रों यानी टाइम जोन को अपनाकर सालाना लगभग 4.2 बिलियन डॉलर बचा सकता है।

भारत एक विशाल देश है जिसका विस्तार पूर्व में अरुणाचल की सीमा से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक है, लेकिन 3000 किमी चौड़े भौगोलिक क्षेत्र के बावजूद हमारे यहाँ एक ही टाइम ज़ोन है। वर्षों से विभिन्न स्तरों पर इस बात पर बहस जारी है कि भारत में दो अलग-अलग टाइम ज़ोन होने चाहिये या नहीं। एक तरफ पूर्वोत्तर राज्यों द्वारा माँग की जाती है कि उनके समय को दो से ढाई घंटे बढ़ा दिया जाए। वहीं दूसरी तरफ, इसका विरोध किया जाता है और विरोध के संदर्भ में तर्क यह दिया जाता है कि अलग टाइम ज़ोन बनने से कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां सामने आ सकती हैं।

भारत में आधिकारिक मानक समय का निर्धारण करने वाले संस्थान राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला द्वारा दो टाइम ज़ोन का समर्थन किया गया है। 2006 में योजना आयोग ने भी ऐसी ही सिफारिश की थी। राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला ने भारत में दो टाइम ज़ोन की आवश्यकता के संदर्भ में एक शोध लेख प्रकाशित किया है, इस शोध में एक नए टाइम ज़ोन का प्रस्ताव है जो कि वर्तमान टाइम ज़ोन से एक घंटा आगे होगा।

इस शोध लेख ने एक बार फिर से अलग टाइम ज़ोन की मांग संबंधी बहस को हवा दे दी है। इस शोध में बताया गया है कि कैसे दो टाइम ज़ोन की समय-सीमा को अलग-अलग निर्धारित किया जा सकता है।

राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला का प्रस्ताव

राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला द्वारा जारी शोध पत्र दो टाइम ज़ोन आईएसटी-1 और आईएसटी-2 निर्धारित करने की माँग करता है। सीमांकन की प्रस्तावित रेखा 89०52’E असम और पश्चिम बंगाल के बीच संकीर्ण सीमा रेखा है।

इस रेखा के पश्चिम में स्थित राज्य भारतीय मानक समय अर्थात् आईएसटी-1 का पालन करना जारी रखेंगे। रेखा के पूर्व में स्थित राज्य – असम, मेघालय, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह आईएसटी-2 का पालन करेंगे। शोधकर्त्ताओं का अनुमान है कि लेख में बताए गए सूत्र के आधार पर सालाना 20 मिलियन किलोवाट ऊर्जा की बचत होगी। राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला के इस विचार को संभव बनाने के लिये नए टाइम ज़ोन में दूसरी प्रयोगशाला की आवश्यकता होगी।

प्रत्येक देश का एक मानक समय होता है जो अक्षांश और देशांतर में अंतर के आधार पर मापा जाता है। भारत में आधिकारिक भारतीय मानक समय का निर्धारण उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद को केंद्र में रखकर होता रहा है जिसका निर्धारण दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला द्वारा किया जाता है।

कश्मीर से कन्याकुमारी और अरुणाचल से गुजरात तक भारत में अभी एक ही टाइम ज़ोन है। यह व्यवस्था वर्ष 1906 में बनाई गई थी। हालाँकि 1948 तक कोलकाता का आधिकारिक समय अलग से निर्धारित होता था और इसका कारण यह था कि वर्ष 1884 में वॉशिंगटन में विश्व के सभी टाइम ज़ोन्स में एकरूपता लाने के उद्देश्य से हुई इंटरनेशनल मेरिडियन कॉन्फ्रेंस में तय हुआ कि भारत में दो टाइम ज़ोन होंगे। इसलिये कोलकाता का टाइम ज़ोन दूसरे मान्य टाइम ज़ोन के रूप में प्रचलित रहा। गौरतलब है कि मुंबई का समय भी 1955 तक अलग से मापा जाता था, हालाँकि उसे आधिकारिक तौर पर कभी लागू नहीं किया गया।

एक से अधिक टाइम ज़ोन क्यों आवश्यक

विस्तृत भूभाग वाले हमारे देश में एक से ज़्यादा टाइम जोन की ज़रूरत की स्पष्ट वज़ह यह है कि देश के कई हिस्सों में सूरज दूसरे हिस्सों के मुकाबले पहले उगता और पहले ही अस्त होता है। पूर्वोत्तर में सुबह और शाम देश के बाकी हिस्सों कि तुलना में जल्दी होते हैं, इस कारण एक निश्चित समय सारिणी के अनुसार खुलने वाले दफ्तरों में काम करने वाले लोगों को परेशानी का सामना तो करना ही पड़ता है साथ ही वायुयानों की उड़ानों आदि के संचालन में भी असुविधा होती है।
अधिक टाइम ज़ोन का व्यावहारिक पक्ष
31 जुलाई 2022 को ही देश के पूर्वी हिस्से अरुणाचल प्रदेश के ईटानगर में सूर्योदय सुबह लगभग 4.38 बजे (सूर्यास्त 18.05 बजे) हुआ है, जबकि नई दिल्ली में सूर्योदय 5.42 बजे (सूर्यास्त 19.13 बजे) हुआ है। इतना ही नहीं गुजरात के पश्चिमवर्ती कच्छ जिले में सूर्योदय 6.22 बजे (सूर्यास्त 19.34 बजे) हुआ है यानी सूर्योदय में लगभग दो घंटे का अंतर साफ दिखता है। गुजरात के कच्छ की तरह अरुणाचल के ईटानगर में भी दफ्तर जाने का समय सुबह 10 बजे है, अर्थात् कच्छ में कोई व्यक्ति तरोताज़ा होकर दफ्तर पहुँचता है जबकि उत्तर-पूर्वी राज्यों में व्यक्ति दिन का काफी समय गुज़रने के बाद दफ्तर पहुँचता है। इस प्रकार से वह काम से लौटते हुए ही नहीं, बल्कि जाते वक्त भी थका हुआ होता है।

पूर्वी-पश्चिमी छोर के स्थानीय समय में इतने अंतर के कारण मानव श्रम तथा वर्ष भर में अरबों यूनिट बिजली का नुकसान होता है। मानव श्रम की हानि से निश्चित तौर पर इन राज्यों का विकास बाधित होता है।

यह तो निश्चित है कि अलग मानक समय की व्यवस्था से मानव श्रम का उचित प्रबंधन और बड़ी मात्रा में बिजली की बचत की जा सकती है। एक अन्य उपाय के अनुसार अलग-अलग मानक समय बनाने की बजाय पूर्वोत्तर राज्यों में काम-काज़ का समय एक या दो घंटे पहले करना भी इस समस्या का व्यावहारिक और प्रभावी समाधान हो सकता है।

अलग टाइम ज़ोन का वैश्विक परिदृश्य

विभिन्न देशों में समय को किसी कठोर नियम के माध्यम से ही नहीं बल्कि लोगों की सुविधा के अनुसार भी निर्धारित किया जाता है। वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो विश्व में सर्वाधिक टाइम ज़ोन फ्राँस में हैं यहाँ 12 टाइम ज़ोन हैं तो अमेरिका में 9 टाइम ज़ोन हैं। रूस में 11 टाइम जोन हैं। इस तरह रूस में एक ही वक्त पर 10 घंटे का फर्क होता है। बर्फीले देश अंटार्कटिका की विशालता के कारण वहाँ 10 टाइम ज़ोन हैं। तकनीकी तौर पर तो वहां दुनिया का हर टाइम जोन मिल जाता है। ब्रिटेन आकार में छोटा है फिर भी वहां 9 टाइम जोन है। ऐसा दूर दूर फैले अलग अलग द्वीपों के कारण है। ऑस्ट्रेलिया में केवल 8 टाइम जोन हैं। वहाँ के एक हिस्से में जब सुबह के 5 बजते हैं तो उसी समय दूसरे हिस्से में सुबह के 11 बज रहे होते हैं। छोटा सा देश डेनमार्क भी 5 टाइम ज़ोन में विभाजित है।

टाइम ज़ोन के प्रति यह आम धारणा है कि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें परिवर्तन संभव नहीं हो सकता और इसके कारण होने वाले नुकसान को हमें हर हाल में भोगना ही होगा, जबकि ऐसा है नहीं। अब तो राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला ने भी अलग टाइम ज़ोन बनाने का प्रस्ताव सामने रख दिया है। यदि अलग मानक समय की व्यवस्था से मानव श्रम का उचित प्रबंधन और बड़ी मात्रा में बिजली की बचत की जा सकती है तो इस संबंध में विचार किये जाने की आवश्यकता है। वैसे भी नरेंद्र मोदी सरकार राष्ट्रहित में फैसले करने में कोताही नहीं करती है।