भागवत ने राजनेताओं को अहंकार छोड़ने की सलाह क्यों दी!
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने राजनेताओं को अहंकार छोड़ने की सलाह दी थी। लेकिन, उनके इस बयान के बाद बहस छिड़ना थी और वह छिड़ गई। भले ही भाजपा नेताओं ने अपने आप को इस बहस से दूर रखा लेकिन फिर भी राजनीतिक गलियारों में यही माना गया कि उनकी सलाह खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कुछ भाजपा के उन नेताओं को है जिनके चेहरे, बॉडी-लैंग्वेज और बोलने के अंदाज से अहंकार टपकता नजर आता है। उन्होंने सलाह केवल भाजपा नेताओं को नहीं दी थी बल्कि आमचुनाव के दौरान जिस प्रकार कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं में जो अहंकार उनके अनुसार था उनको सलाह दे रहे थे।
सारी बहस केवल भाजपा नेताओं तक सिमट कर रह गयी। विपक्षी दल के नेताओं ने तत्काल ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधना प्रारंभ कर दिया और एक रणनीति के तहत भाजपा ने इस पर एक प्रकार से चुप्पी साध ली, क्योंकि भाजपा में अधिकांश नेता और पदों पर बैठे लोग संघ की पाठशाला से दीक्षित होकर ही निकले हैं। संघ के महत्वपूर्ण अंग इंद्रेश कुमार ने जो कहा उससे साफ हो गया कि वह मोहन भागवत के इशारे को और अधिक परिभाषित कर रहे हैं ताकि जिनको संदेश देना है उन तक पहुंच सके। इंद्रेश ने यह कह कर कि भाजपा के अहंकार ने उसको 241 पर रोक दिया है।
इसका सीधा-सीधा अर्थ यही लगाया गया कि इंद्रेश कुमार का इशारा सीधे-सीधे मोदी की ओर है, क्योंकि मोदी की अगुवाई में और मोदी की गारंटी के सहारे एनडीए गठबंधन ने चुनाव लड़ा था। हालांकि गठबंधन ने तो 293 सीटें जीत कर बहुमत पा लिया लेकिन भाजपा की स्थिति कमजोर हुई और वह अपने अकेले दम पर बहुमत से दूर रह गयी।
लोकसभा चुनाव में भाजपा केवल नरेंद्र मोदी के चेहरे व गारंटियों के भरोसे थी और विपक्षी दलों के इंडिया महागठबंधन ने किसी चेहरे के भरोसे चुनाव नहीं लड़ा था लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पूरे देश में चुनाव प्रचार किया और कांग्रेस के साथ ही पूरे गठबंधन के लिए वोट मांगे तथा ऐसा करते समय उन्होंने अपने क्षेत्रीय सहयोगियों को भी आगे रखा, इसका ही यह नतीजा रहा कि इस गठबंधन को भी उल्लेखनीय सफलता मिली तथा वह भाजपा से कुछ कदम ही पीछे रहा। इस रणनीति का कांग्रेस को भी फायदा मिला और वह अपनी सीटों की संख्या बढ़ाकर 99 तक ले गयी जबकि प्रधानमंत्री मोदी यह कहते रहे कि इस बार कांग्रेस की संख्या 40 से भी नीचे आ जायेगी।
इस बार संसद का जो पहला सत्र होगा उसमें ही सदन का नजारा बदला-बदला नजर आयेगा क्योंकि इस बार काफी मजबूत प्रतिपक्ष भी सदन मौजूद होगा। इससे पूर्व अपने दो कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी मर्जी से सरकार चलाने में कोई दिक्कत नहीं आई, लेकिन इस बार सहयोगियों को भी संभाल कर रखना होगा क्योंकि एक मजबूत विपक्षी भी सामने बैठा नजर आयेगा। जहां तक भाजपा के बहुमत से नीचे आने और उसके बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान, संघ की पत्रिका आर्गेनाइजर में छपा लेख एवं इंद्रेश कुमार के आरोपों से कुछ समय तक सियासी घमासान तेज होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।
भाजपा का प्रयास होगा कि जितना जल्दी हो यह विवाद थमे और संघ भी नहीं चाहेगा कि ऐसी स्थिति लम्बे समय तक चले ताकि भाजपा और एनडीए के लिए असहज स्थितियां उत्पन्न हों। लेकिन प्रतिपक्षी दल और संघ तथा भाजपा से वैचारिक मतभेद रखने वाले अन्य सामाजिक संगठन तथा विचारक जितना हो सकेगा इसे लम्बा खींचने की कोशिश करेंगे।
इस विवाद की शुरुआत वास्तव में उसी समय हुई जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और अब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बने जेपी नड्डा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अब भाजपा को संघ की जरुरत नहीं है, पहले उसे संघ की जरुरत पड़ती थी जब वह कमजोर थी लेकिन अब भाजपा काफी शक्तिशाली हो गयी है। उस समय भी यह समाचार सामने आये थे कि संघ ने इस बयान पर एतराज जताया है और वह इससे प्रसन्न नहीं है। लेकिन, वह इस बात को जानने कोशिश अवश्य करता रहा कि आखिर नड्डा ने यह बयान किसके कहने पर दिया। क्योंकि, यह एक ऐसा बयान था जो संघ और भाजपा के आपसी रिश्तों में खटास पैदा कर सकता था और हुआ भी वैसा ही। चूंकि संघ की प्लानिंग कुछ और थी और इस बीच भाजपा का बहुमत से दूर रह जाना भाजपा के अंदर ही कुछ सवाल छोड़ रहा था जो अनेकों के दिमाग में थे लेकिन पूछने का साहस कोई नहीं कर पा रहा था।
इन परिणामों से प्रतिपक्षी दल इसलिए उत्साहित हैं कि उन्हें अब इस बात का भरोसा हो गया है कि मोदी के चेहरे के रहते हुए भी भाजपा को चुनाव में हराया जा सकता है, और वह अधिक उत्साह तथा बढ़े हुए मनोबल के साथ महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में उतरेगा तथा दोनों राज्यों की सत्तासीन भाजपा को बेदखल करने की कोशिश करेंगे। भाजपा की भी चिन्ता यही है क्योंकि उसकी बैसाखी पर ही सरकार चला रहे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपरोक्ष रुप से टीका-टिप्पणी करने लगे हैं। शिन्दे का कहना यही है कि 400 पार के नारे के कारण ही महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाला महागठबंधन उनसे काफी आगे रहा।
उल्लेखनीय है कि भाजपा को महाराष्ट्र में केवल 9 सीटें मिलीं जबकि उसने 28 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे। वहीं कांग्रेस के खाते में सबसे अधिक 13 सीटें गईं और इसे मिलाकर विपक्षी गठबंधन ने 30 सीटें जीत लीं। शरद पवार और उद्धव ठाकरे तथा कांग्रेसी नेता अभी से विधानसभा चुनाव की जमीनी जमावट में भिड़ गए हैं। जब कोई पार्टी चुनाव जीतती है तब उस समय उसकी सारी कमजोरियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है और इक्का-दुक्का जो स्वर उठते हैं वे नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाते हैं, लेकिन जब पार्टी हारती है और उसकी सीटों में कमी होती है तो यही स्वर मुखरित होने लगते हैं। केरल के पलक्कड़ में भाजपा सहित 36 संगठनों के शीर्ष पदाधिकारियों की जो राष्ट्रीय समन्वय बैठक आगामी माह के अंतिम दिन से प्रारंभ होने वाली है उसमें इन चुनाव नतीजों की समीक्षा होगी ही, क्योंकि उसके बाद कुछ राज्यों में इस वर्ष एवं अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। केरल में तो इस बार भाजपा का खाता भी खुल गया है और वह उसका जो मत प्रतिशत भी बढ़ा है उसे और अधिक बढ़ाने के लिए भी रणनीति तैयार करेगी, क्योंकि उसका जो अब प्रवेश द्वार खुला है वहां अपने आपको मजबूत करने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देगी।
*और यह भी*
लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस की अपनी कुछ जमीन रही है ऐसे राज्य छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उसे लोकसभा चुनाव में करारी हार मिली लेकिन छत्तीसगढ़ में चरणदास महंत जो कि इस समय नेता प्रतिपक्ष भी हैं अपना गढ़ को बचाने में सफल रहे, जबकि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ में ही चुनाव हार गये। चरणदास महंत ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी पत्नी ज्योत्सना महंत को लोकसभा चुनाव जिताने में सफलता हासिल की और यही बताता है कि आज भी उनका अपने इलाके में दबदबा बाकी है, जबकि अन्य दिग्गज नेता जो प्रदेश के कम जातियों के नेता अधिक थे, वह अपने गढ़ों को बचाने में विफल रहे। इसके विपरीत मध्यप्रदेश में सभी 29 सीटों पर कांग्रेस की पराजय हुई और कमलनाथ अपने उस गढ़ को भी नहीं बचा पाये जिसे 1977 में कांग्रेस ने जीतकर बचाया था। यहां तक कि कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ की जीती हुई सीट भी लगभग एक लाख मतों के अंदर से हार गये।