इंदौर में भाजपा महापौर का चुनाव प्रचार बिखरा सा क्यों लग रहा!

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इंदौर में भाजपा महापौर का चुनाव प्रचार बिखरा सा क्यों लग रहा!

‘मीडियावाला’ के संपादक हेमंत पाल की जमीनी रिपोर्ट

इंदौर में नगर निगम चुनाव की हलचल अब चरम पर है। महापौर पद के लिए भले ही 19 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं, पर मुख्य मुकाबला तो कांग्रेस के संजय शुक्ला और भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव ही है। उधर, निगम के 85 वार्डों के लिए 341 उम्मीदवार अपना भाग्य आजमा रहे हैं। सबसे कम दो-दो उम्मीदवार 20 वार्डों में और सबसे अधिक 10 उम्मीदवार 1 वार्ड में है। शहर में प्रचार का माहौल फिलहाल गरम है। पर कांग्रेस के बनिस्बत भाजपा के महापौर उम्मीदवार पुष्यमित्र भार्गव के प्रचार में अजीब सा बिखराव नजर आ रहा है। जबकि, दोनों पार्टियों के पार्षदों ने अपने-अपने वार्डों में अच्छा माहौल बनाया हुआ है। कांग्रेस के संजय शुक्ला के प्रचार का रुख आक्रामक है। उन्होंने अपना प्रचार भी जल्दी शुरू किया था और वे आधा शहर कवर कर चुके हैं। उनके मुकाबले पुष्यमित्र भार्गव का नाम देर से फ़ाइनल हुआ और प्रचार भी देर से शुरू हुआ। कांग्रेस से विधायक संजय शुक्ला के मैदान में उतरने के बाद भाजपा को मशक्कत भी ज्यादा करना पड़ रही है। इसलिए कि भाजपा उम्मीदवार आम मतदाता के लिए बिल्कुल नया चेहरा है।

इंदौर में भाजपा महापौर का चुनाव प्रचार बिखरा सा क्यों लग रहा!

भाजपा महापौर के चुनाव प्रचार में बिखराव को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि पार्टी उम्मीदवार पुष्यमित्र भार्गव शहर के लिए सक्रिय राजनीति का चेहरा नहीं है। वे कभी राजनीति में थे, कार्यकर्ता ये भी नहीं मान रहे। यदि उनकी जगह रमेश मेंदोला, मधु वर्मा, गोविंद मालू, सुदर्शन गुप्ता, गौरव रणदिवे या गोलू शुक्ला भाजपा के उम्मीदवार होते तो माहौल कुछ अलग ही होता। इसलिए कि इन नेताओं की पार्टी के अलावा अपनी भी लोकप्रिय है। उनके पास अपने समर्थकों की भी फ़ौज है। जबकि, पुष्यमित्र भार्गव के पास ऐसे कार्यकर्ताओं और समर्थकों की कमी साफ़ नजर आ रही है।

शहर में जनसंपर्क का आगाज करने में भी कांग्रेस आगे रही अब जनता तक पहुंचने में भी आगे निकल रही है। कांग्रेस के महापौर उम्मीदवार ने करीब आधा शहर नाप लिया। वे जनता के बीच अपनी जनसेवक की छवि बनाने के लिए पूरा जोर लगाते दिखाई भी दे रहे हैं। वे विधायक हैं, इसलिए उन्हें इसमें परेशानी भी नहीं आ रही। वे कभी कचौरी तलते, कभी किसी बच्चे को गोद में उठाते और कभी किसी बुजुर्ग के पैर पड़ते नजर आते हैं। उनके समर्थक भी संजय शुक्ला के कोरोना काल में किए कामों को जनता के बीच पहुंचाते नजर आ रहे हैं। पर, पुष्यमित्र प्रचार के लिए जनता के बीच ये सब नहीं कर पा रहे। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने विधानसभा और वार्डवार जिम्मेदारी तय की है। जबकि, कांग्रेस के महापौर उम्मीदवार के चुनाव का संचालन संजय शुक्ला की ही टीम के पास है। उधर, भाजपा की चुनाव संचालन समिति में विधायक रमेश मेंदोला को चुनाव प्रभारी, मधु वर्मा को चुनाव संचालक और प्रदेश कार्यसमिति सदस्य प्रमोद टंडन को चुनाव सह संचालक बनाया है।

 

इंदौर में भाजपा महापौर का चुनाव प्रचार बिखरा सा क्यों लग रहा!

संजय शुक्ला के पास मतदाताओं के बीच बोलने को भी बहुत कुछ है। जबकि, भाजपा उम्मीदवार के पास ऐसे कोई मुद्दे नहीं, जिस पर वे हमलावर बन सके। वे पिछले चार भाजपा महापौरों की उपलब्धियों को ही गिना रहे हैं। कांग्रेस उम्मीदवार भाजपा के कार्यकाल की खामियों के साथ नगर निगम में दो साल के अफसर राज पर भी उंगली उठा रहे हैं। उन्होंने ऐसे वादों की भी झड़ी लगा दी, जो जनता को आकृष्ट करते हैं। नगर निगम के अस्थाई कर्मचारियों को स्थाई करने, व्यापारियों को निगम के ट्रेड लाइसेंस से मुक्त करने और कथित ‘पीली गैंग’ से मुक्त करने का वादा करने से भी नहीं चूक रहे। लेकिन, पुष्यमित्र भार्गव ने ऐसा कोई वादा किया हो, ये दिखाई या सुनाई नहीं दिया।

संजय शुक्ला पहले भी कई चुनाव लड़ चुके हैं और पार्षद भी रहे हैं। वे राजनीतिक परिवार से हैं, इसलिए चुनावी हथकंडे भी जानते हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के अलावा उनकी खुद की भी एक बड़ी टीम संजय शुक्ला के पीछे है। उनके मुकाबले भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव के पास राजनीतिक अनुभव का अभाव है। वे कोई चुनाव नहीं लड़े और न राजनीतिक रूप से कभी सक्रिय रहे। इसलिए वे उन चुनावी हथकंडों में भी पारंगत नहीं है, जो जरुरी होते हैं। जहां तक कार्यकर्ताओं का मसला है, तो प्रचार में उनका अनमनापन साफ नजर आ रहा है। शायद इसलिए कि पुष्यमित्र भार्गव का कार्यकर्ताओं से कभी आत्मीय जुड़ाव नहीं रहा। भाजपा कार्यकर्ता पार्टी के प्रति समर्पण के कारण ही उनके साथ दिखाई दे रहे हैं। भाजपा के महापौर उम्मीदवार के प्रचार में एक और कमी यह खल रही है कि कोई बड़ा नेता उनके साथ नजर नहीं आ रहा! वे जिस भाजपा विधायक के क्षेत्र में जाते हैं, वहां के विधायक साथ हो जाते हैं, पर प्रचार में वो गर्माहट का अभाव है जो भाजपा पहचान रही है। बताते हैं कि उम्मीदवार ने खुद ही सीनियर नेताओं से संपर्क नहीं किया।

प्रचार में गिनती के दिन बचे
6 जुलाई को होने वाले नगरीय निकाय चुनाव में अब 10 दिन बचे हैं। दो दिन पहले चुनाव प्रचार भी थम जाएगा, ऐसे में महापौर व पार्षद उम्मीदवारों के लिए जनसंपर्क और प्रचार-प्रसार के लिए सिर्फ 8 दिन बचे हैं। ऐसे में से दोनों पार्टियों के महापौर और पार्षद पद के उम्मीदवार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने की कोशिश में हैं। सुबह से देर रात तक सभी उम्मीदवारों का समय मतदाताओं को लुभाने और वादे करने में बीतता है। लेकिन, दोनों पार्टियों के सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा का प्रश्न महापौर उम्मीदवारों को जीत दिलाना है। कांग्रेस उम्मीदवार ने तो उनके नाम की अधिकृत घोषणा से काफी पहले अपना प्रचार शुरू कर दिया था। बल्कि, ये कहना ज्यादा सही होगा कि वे डेढ़ साल से ही इस तैयारी में लगे हैं। क्योंकि, कोरोनाकाल से पहले जब कमलनाथ की सरकार के समय निकाय चुनाव की तैयारी शुरू हुई थी, तभी कांग्रेस ने संजय शुक्ला के नाम की घोषणा कर दी थी।

भाजपा उम्मीदवार को समय भी कम मिला
भाजपा ने पुष्यमित्र भार्गव के नाम की घोषणा 17 जून को की। ऐसे में उनको गिनती के 17 दिन का समय प्रचार के लिए मिला। इस कारण वे कभी पैदल तो कभी खुली जीप से उतरकर जनसंपर्क कर रहे हैं। लेकिन, खुली जीप में हाथ हिलाकर समर्थन मांगने से मतदाता नाराज भी हैं। बीते सोमवार को एक घटना भी ऐसी हुई, जिसे मतदाताओं की नाराजगी समझा गया। पुष्यमित्र भार्गव जब वार्ड 70 के द्रविड़ नगर में आने वाले थे, तो वहां के लोग उनके स्वागत के लिए हार-फूल लेकर इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद वहां से भार्गव की जीप निकली जो इन लोगों को अनदेखा करती हुई निकल गई। जो हुआ उसे वहां खड़े लोग समझ नहीं पाए। जब यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तो कांग्रेस ने इसे जमकर आड़े हाथ लिया। जबकि, भाजपा की सोशल मीडिया टीम के हाथ अभी तक कोई ऐसा मसाला हाथ नहीं लगा, जिसे वे प्रचारित कर सकें।

फैसला नए मतदाताओं के पास
इस बार के नगर निगम चुनाव में 18 लाख 35 हजार 316 मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे। इनमें से 3 लाख 70 हजार ऐसे मतदाता हैं, जो 18-19 साल के बीच के है। कुल मतदाताओं में इनका प्रतिशत लगभग 21 है। 30 से 39 साल के लगभग 5 लाख 27 हजार मतदाता हैं। इनकी भी चुनाव में अहम भूमिका रहेगी। यही कारण है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों युवा नेताओं को आगे लाने के साथ उन्हीं को लुभाने की ज्यादा कोशिश भी कर रहे हैं। लेकिन, कांग्रेस ने युवाओं को लुभाने में सीनियर नेताओं को हाशिए पर नहीं रखा, पर भाजपा ने इस बार पुराने नेताओं को किनारे जरूर कर दिया। नतीजा क्या होगा, ये तो समय बताएगा, पर अभी जो हालात हैं, वो बराबरी की टक्कर के नहीं लग रहे!