रुद्राक्ष की कामना: आस्था या अंध विश्वास की पराकाष्ठा

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रुद्राक्ष की कामना: आस्था या अंध विश्वास की पराकाष्ठा

मध्यप्रदेश के सीहोर जिले के कुबेरेश्वर धाम में रुद्राक्ष वितरण में हुई घनघोर अव्यवस्था की सर्वव्यापी आलोचना हिंदू समाज की उदारता, सहिष्णुता का एक और उत्कृष्ट उदाहरण है। कैसे? बताता हूं।आयोजन में आये श्रद्धालुओं से लेकर तो आम-खास व संत समाज तक ने सीधे तौर पर कथा वाचक आयोजनकर्ता पं. प्रदीप मिश्रा व शासन-प्रशासन के धुर्रे बिखेरने में परहेज नहीं किया।फिर भी यह इतराने का मौका नहीं,अफसोस का समय है।

     अब इस आयोजन का एक अन्य पक्ष। देश के अलग-अलग हिस्से से करीब 10 लाख लोग वहां आखिर क्या पाने की आस में आये थे और क्यों? इस पहलू की अनदेखी-सी की जा रही है। अव्यवस्था का दोषी अंतत: कौन है और उसे किस तरह से दंडित किया जायेगा या किया जायेगा भी या नहीं, यह तो राम जानें, लेकिन इतने लोगों का वहां जुटने के मूल की तलाश-पड़ताल जरूरी है।सीधा-सा जवाब तो यह है कि वे पं. प्रदीप मिश्रा द्वारा दिये जाने वाले रुद्राक्ष की लालसा में उमड़े थे, जिसके बारे में उनका अनुमान या विश्वास यह था कि सनातन संस्कृति में खासा महत्व रखने वाला  रुद्राक्ष उनके जीवन की काया पलट कर देगा,कष्ट हर लेगा,आनंद की तरंगें बहने लगेंगी। यह उनकी आस्था थी और विश्वास भी। यह आता है किंवदंतियों,किस्सों-कहानियों और कल्पना संसार में विचरण करते हमारे विचारों से। वर्तमान के कथा वाचक,धार्मिक आख्यानकर्ता सधी विपणन नीति,शाब्दिक चातुर्य,धार्मिक मान्यताओं के सहारे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के दारिद्रय को दूर करने का भाव जगाकर और सक्षम के मन की असुरक्षा से मुक्ति का भाव पैदा कर एक ऐसा संसार रच देते हैं, जहां उस दायरे के भीतर धुसने वाला मकड़ जाल के शिकार की तरह लौट नहीं सकता।

रुद्राक्ष की कामना: आस्था या अंध विश्वास की पराकाष्ठा

    कुबेरेश्वर की घटना इसका जीवंत नमूना है। यह घटनाक्रम देश की एक ऐसी अवस्था की ओर संकेत करता है, जो इक्कीसवीं सदी के प्रत्येक पल में तकनीक और विज्ञान के क्षेत्र में क्रांतिकारी खोजों और शोधों के बह रहे सैलाब से बेखबर जैसे दसवीं सदी में प्रवेश कर रही हो। नवाचार,उद्यमशीलता और कठोर श्रम के दौर में हम भाग्य भरोसे,भगवान भरोसे,पूजा-पाठ भरोसे और पुरातनकालीन वनस्पति के सूक्ष्म से अंश रुद्राक्ष से ऐसे भरोसे की आस कर रहे हैं, जिसकी आशवस्ति तो न कभी देवताओं के आख्यानों से मिली, न ही संत-तपस्वियों ने दी। तब लोग इतने बावरे,भावुक और समर्पित क्यों हैं?

     इस संपूर्ण घटना का जो सबसे भयावह और नकारात्मक पहलू है, वह इस अनोखी सदी के भारत के भाल पर चिंता की लकीरें खीचने वाला है। जिस समाज में लोग धर्म और भाग्य को सर्वोच्च दर्जा देते हों, उन का वर्तमान तो पीड़ादायक रहेगा ही, भविष्य भी स्याह ही होना सुनिश्चित है। मुझे तो सोचकर ही सिहरन होती है कि कोई कैसे यकीन कर लेता है कि मात्र एक रुद्राक्ष धारण कर लेने से उसका तन-मन स्वस्थ रहेगा। उसका जीवन खुशियों से भर जायेगा। उसका घर धन-धान्य से भरपूर हो जायेगा। कृपया, इसे रुद्राक्ष के धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व को कम कर आंकने् का अभिप्राय न समझें।सनातन परंपरा में वह  यथेष्ट सम्मान का हकदार है ही। मेरी चिंता धर्मांध लोगों की वे फिजूल धारणायें हैं, जो समाज में नकारात्मकता और अंध विश्वास को बढ़ाती हैं। एक और स्पष्ट संदेश इस तरह की घटनाओं के पीछे होता है, जिसकी आम तौर पर अनदेखी की जाती है। पिछले दो दशक में कथा-पुराण,भागवत का प्रचलन बढ़ा है। इसमें हजारों नहीं लाखों लोग शामिल होते हैं। हफ्ते,दस दिन तमाम धार्मिक पुस्तकों में वर्णित,अवर्णित व्याख्यायें,आख्यान सुनते हैं और तदुनसार उनका मानस बनना चाहिये। फिर भी समाज में नैतिकता,ईमानदारी,मूल्यपरकता का तो घनघोर क्षय ही होता जा रहा है। आखिर क्यों?

      जहां तक मेरा अभिमत है,ऐसा लगता है कि राजनीति के ठेकेदारों ने अपनी सत्ता और वर्चस्व के लिये धर्म की आड़ में अंध विश्वास और कर्महीनता को पल्लवित-पुष्पित किया, ताकि लोग धार्मिक आयोजनों की अफीम-गांजे को विश्वास की चिलम में भरकर सुट्‌टे मारकर बेसुध पड़े रहे और उनका प्रभुत्व बरकरार रहे।एक समूचा तंत्र इसके पीछे सक्रिय है, जो राजनीति,धर्म,आस्था के चक्रव्यूह की रचना इस कुटिलता से करता है कि उसके अंदर तो घुसने के लिये लोग उमड़े पड़ें, किंतु उससे बाहर निकलना अभिमन्यु की तरह असंभव हो।

रुद्राक्ष की कामना: आस्था या अंध विश्वास की पराकाष्ठा

    इसे मैं एकदम सपाट ढंग से कहूं तो यह कि दस लाख लोग यदि देश के दूरदराज से सीहोर चले आये तो यकीनन एक तो वे बेरोजगार,बेकाम,उद्यमहीन,भाग्यवादी थे, जो अपने जीवन की बेहतरी किसी चमत्कार से करना चाहते थे न कि कर्म के जरिये। दूसरे कुछ अरसे से जिस तरह से देश के लगभग सभी राजनीतिक दल मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रहे हैं,लोगों ने भी यह मान लिया है कि वे कहीं कमाने-धमाने नहीं भी गये तो सरकार उन्हें एक रुपये किलो गेहूं, दो रुपये किलो चावल,दस रुपये किलो शकर-तेल तो देगी ही,मनरेगा में 15 दिन की मजदूरी भी दे ही देगी। इसके बाद जैसे ही चुनाव आयेंगे तो गैस सिलेंडर,साइकिल,स्कूटी,टीवी,बर्तन,स्कूल फीस की माफी,कॉलेज तक मुफ्त शिक्षा,हजार-पांच सौ रुपये का भत्ता,शराब-मुर्गा और साथ में कुछ नकद नारायण भी मिल ही जायेगा तो कमाने क्यों जाना ? इसीलिये जब उसे जो समय मिलता है,उसमें वह एक रुद्राक्ष से भाग्य आजमाने किसी प्रदीप मिश्रा के पास पहुंच जाता है।

     भगवान के लिये,भगवान के नाम पर,धर्म शास्त्रों की आड़ में मनमाने आख्यानों का यह सिलसिला बंद होना चाहिये। देश में कही भी इस तरह के भीड़ प्रधान आयोजन के लिये संस्था या आयोजनकर्ता को ही सीधे तौर पर जिम्मेदार तो ठहराना ही चाहिये, साथ ही किसी भी बदइंतजामी के लिये दोषी भी मानना चाहिये। आप तीन,पांच या सात दिन तक राजमार्ग बंद कर दें, लाखों लोगों को वाहनों में कैद रहकर घंटों रैंगने के लिये छोड़ दें,जाम में फंसकर वाहनों में फिजूल का ईंधन जले, किसी की जान चली जाये और आप उपदेश दें कि जान तो एक दिन जानी ही है,इससे अधिक अधार्मिकता और अहंकार कुछ हो ही नहीं सकता। लकीर जो पीटनी है, पीटते रहें, बड़बोलापन बरकरार है, क्योंकि राज्याश्रय जो प्राप्त है।