खाना बनाती स्त्रियां…कैसे एक औरत की पूरी उम्र सिर्फ़ खाना खिलाने में चली जाती है ?

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खाना बनाती स्त्रियां… कैसे एक औरत की पूरी उम्र  सिर्फ़ खाना खिलाने में चली जाती है? 

    लाखों लाखों घरों में औरतें किचेन में सिर्फ़ और सिर्फ़ खाना बना रही होती हैं!

   -सिद्धार्थ ताबिश

Siddharth Tabish - YouTube

अमेरिका जैसे देशों में जा कर बसने वाले भारतीय, जो बहुत अच्छा कमाते हैं वहां, वो भी जल्दी “कामवाली” वहां अफोर्ड नहीं कर पाते हैं.. जो थोड़ा अफोर्ड कर पाते हैं वो बस हफ्ते या दो हफ्ते में एक दिन कामवाली को खाना बनाने के लिए बुलाते हैं और एक हफ्ते से लेकर दस से पंद्रह दिन का खाना उस से बनवा के रख लेते हैं.. वो उस से सब्ज़ी, दाल, मांस और ऐसी चीज़ें बनवा के स्टोर कर लेते हैं फ्रिज में और फिर रोज़ स्वयं या तो चावल ताज़ा बना लेते हैं या फिर मॉल से लाई हुई, जमी हुई यानी फ़्रोज़न रोटी सेंक कर सब्ज़ी, दाल या मांस के साथ खा लेते हैं।

अमेरिका में किसी के पास समय नहीं होता है तीन समय खाना बनाने का.. एक व्यक्ति अगर एक छोटे से, यानि चार लोगों के परिवार के लिए भी अगर तीन समय खाना बनाता है, यानि सुबह नाश्ता, दोपहर का खाना और रात का डिनर तो उसे कम से कम दिन के पांच या छः घंटे देने होने हैं खाना पकाने के लिए.. अमेरिका में किसी के पास इतना समय नहीं होता है
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जो भारत में तीनों टाइम गरम रोटी और घर के बने खाने की वकालत करते हैं वो भी अमेरिका जा कर एक हफ़्ते का फ़्रीज़ किया हुआ खाना बड़े शौक से खाते हैं.. और अमेरिका ही नहीं, दुनिया के ज़्यादातर देशों में लोग ऐसा ही करते हैं.. ईरान से लेकर खाड़ी के देशों की औरतें यहां की औरतों की तरह तीन टाइम सबके लिए खाना नहीं बनाती हैं.. दुनिया में कहीं ऐसा नहीं होता है सिवाय भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और एक दो अन्य छोटे मोटे देशों के अलावा
भारत के धूर्त और चालाक मर्दों ने “खाने” को धर्म, संस्कृति और जाने किस किस चीज़ से जोड़कर, तीन टाइम गरम रोटी और तीन टाइम कुकिंग को बहुत “महिमामंडित” कर के सदियों से औरतों को “ग़ुलाम” बना के रखा हुआ है.. खासकर बेबी बूमर्स (1946 से 1964) और जेनरेशन साइलेंट (1928 से 1945) के बीच पैदा हुआ लोग, खाने के के लिए ही जीने वाले लोग होते हैं.. ये जिस भी घर में होते हैं, वहां की औरतों का जीवन ये नर्क बनाए रखते हैं.. इनके पास कोई काम नहीं होता है सिवाय ये सोचने के कि अब क्या खाया जाय और अब दोपहर और रात में खाने में क्या बनेगा.. एक मील इनके मुंह से सरक के पेट में जाता नहीं है और दूसरे मील की प्लानिंग शुरू हो जाती है और सारी उम्र यही चलता है.. एक औरत, जो इनके घर में गलती से ब्याह के आ जाती है उसे चालीस से पचास साल इन्हें तीन टाइम खाना पका के खिलाना होता है.. एक औरत की पूरी उम्र इनको सिर्फ़ खाना खिलाने में चली जाती है.
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उत्तर प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में आप चले जाइए, कहीं कहीं तो आपको सौ डेढ़ किलोमीटर तक कोई भी होटल नहीं मिलेंगे, सिवाय कुछ ढाबों के जहां ट्रक वाले और राहगीर खाते हैं.. और इन सौ डेढ़ सौ किलोमीटर तक आपको तमाम गांव, तमाम कस्बे और तमाम छोटे शहर मिल जायेंगे.. मगर वहां एक भी ऐसा कोई होटल नहीं मिलेगा जहां पूरी फैमिली जा कर कभी लंच या डिनर कर सके.. इसका सीधा सीधा मतलब ये होता है कि इतने बड़े एरिया में बसे लाखों लाखों घरों में औरतें किचेन में सिर्फ़ और सिर्फ़ खाना बना रही होती हैं और सारी उम्र वो यही करती हैं.. इन्हें सारी उम्र पता ही नहीं होता है कि खाना बाहर भी खाया जा सकता है और जिन्हें पता भी होता है उनके लिए ये बड़ी बुरी बात होती है कि बाहर जा कर खाया जाय.. वो सारी उम्र घर के खाने का महिमामंडन करते हैं और उनके घर की औरतों की सारी उम्र किचेन में बीत जाती है।
अमेरिका और अन्य देश की औरतें ये सोच कर ही कांप जाती हैं कि भारत की औरतों को सारी उम्र सिर्फ़ किचेन में ही बितानी पड़ती है.. मगर भारत में किसी “धूर्त बुड्ढे” से पूछ लीजिए “घर के खाने की अहमियत” फिर देखिए उसका महिमामंडन और उसके घर की कौन से औरत सबसे अच्छा खाना बनाती है वो ये भी आपको बताएगा.. इनके लिए घर के बने खाने का एक ही अर्थ होता है और वो ये कि “ये सारी उम्र बैठ के घर का खाना खाएं और इनके घर की कोई औरत तीन टाइम इनको पका के खिलाए और अपना सारा जीवन इनको खाना खिलाने में बर्बाद करके इस दुनिया से चली जाए।”
~सिद्धार्थ ताबिश