World Earth Day: हांफती हुई पृथ्वी को बचाना बहुत जरूरी!

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World Earth Day: हांफती हुई पृथ्वी को बचाना बहुत जरूरी!

आज पूरी दुनिया ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ मना रही है। हालात को देखते हुए आज पृथ्वी को सुरक्षित रखने की सबसे ज्यादा जरूरत है। ‘पृथ्वी दिवस’ मनाने की शुरुआत 22 अप्रैल 1970 में हुई थी। आज हम वैश्विक स्तर पर 52वीं वर्षगांठ मना रहें हैं। लेकिन, दुर्भाग्य है कि बीते 51 साल में हमने ही पृथ्वी के आंचल को सबसे ज्यादा प्रदूषित किया है। इस साल ‘पृथ्वी दिवस’ की थीम ‘इन्वेस्ट इन अवर प्लेनेट’ है, जो हमें हरित समृद्धि के लिए प्रेरित करती है। जिसका अर्थ है कि अब समय आ गया है जब हम हमारे परिवार, स्वास्थ्य, आजीविका व हमारी धरती को एक साथ संरक्षित करें।

कोरोना काल ने हमें यह अहसास दिलाया कि भौतिक विकास की दौड़ में हमने विनाश की एक ऐसी इबारत लिखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, जिसका रास्ता असुरक्षित भविष्य की तरफ ले जाता है। हम यह सोचकर ही सहम जाते हैं। पेड़ काटकर कंक्रीट के जंगल तो खड़े कर दिए। लेकिन, कोरोना जैसी महामारी में ऑक्सीजन जुटाने में हम अक्षम रहें। ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब हमें भविष्य में तलाशने होंगे। वहीं बढ़ते प्रदूषण का दुष्परिणाम भी आज पूरी दुनिया झेल रही है दुनिया भले ही आसमान की बुलंदियों को छू रही है। लेकिन प्र,कृति में ज़हर घोलकर मानव सभ्यता ने अपने ही विनाश के दरवाजे खोल दिए।

World Earth Day-हांफती हुई पृथ्वी को बचाना बहुत जरूरी!

बढ़ता जलवायु परिवर्तन आज के दौर में चिंता का बड़ा कारण बनता जा रहा है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन की रिपोर्ट में भी भारत को लेकर चिंता व्यक्त की गई। देश में आने वाले दो दशकों में जलवायु परिवर्तन से भयानक तबाही की आशंका जताई गई है। रिपोर्ट में साफ कहा गया कि 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती नहीं की गई तो जलवायु परिवर्तन के विनाश को रोक पाना असंभव होगा। ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज’ की हाल की रिपोर्ट में भी साफ कहा गया कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती किए बिना ग्लोबल वार्मिंग को 15 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना नामुमकिन है। यह तभी संभव हो सकेगा, जब हम जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करेंगे।

वर्तमान परिदृश्य को देखकर लगता नहीं कि सरकार इस दिशा में कोई ठोस कदम उठा रही है। आज जलवायु परिवर्तन के संकट से पूरी दुनिया जूझ रही है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जो जलवायु परिवर्तन का सामना न कर रहा हो। यह सभी जानते है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण भी जीवाश्म ईंधन ही है। शायद यही वजह है, कि दुनिया जीवाश्म ईंधन के विकल्प तलाश रही है। वर्तमान दौर में विभिन्न देश पर्यावरण के अनुकूल अक्षय ऊर्जा की और बढ़ रहे है। जिसके सुखद परिणाम भी सामने आने लगे है। लेकिन, यह प्रयास व्यापक पैमाने पर किया जाना चाहिए। जो अभी ऊंट के मुंह में जीरे की भांति समझ आता है।

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बीते दिनों की एक घटना का ज़िक्र जरूरी है! ब्राजील के रियो द जिनेरियो में तब लोगों के होश उड़ गए, जब उन्हें बस टर्मिनल पर घूमता हुआ एक घड़ियाल दिखा। सोचिए कि हमनें पर्यावरण और पारिस्थिकीय तंत्र की क्या हालत कर दी! इस बीच एक ख़बर यह भी है कि अब पाकिस्तान सरीखा देश कोयले से तेल और गैस के उत्पादन की तैयारी में है, जो पर्यावरण पर घातक असर डालेगा। ऐसे में साल में एक दिन ‘पृथ्वी दिवस’ मनाने का क्या औचित्य! यह हम सभी जानते है कि हमारे सौरमंडल में पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है, जहां पेड़-पौधे, जीव-जन्तु या यूं कहें कि जीवन संभव है। किंतु, मानव के बढ़ते लालच ने पृथ्वी को दूषित कर दिया है। आज मानव को शुद्ध हवा पानी तक नसीब नहीं हो पा रही है।

कितनी अजीब विडंबना है कि सब जानते-समझते हुए भी हम पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के सार्थक प्रयास तक करने में सक्षम नहीं है। यही वजह है कि हमें धरती की अहमियत समझाने के लिए ‘पृथ्वी दिवस’ मानना पड़ रहा है। बात भारतीय सभ्यता व संस्कृति की करें, तो भारत भूमि ही एकमात्र ऐसी धरा है जहां प्रकृति संरक्षण के संस्कार मौजूद है। पेड़ पौधे, जीव जंतु अग्नि वायु को भी पूजने की प्रथा है। यहां तक कि पेड़ को संतान व धरती को माता की संज्ञा तक दी गई है। बावजूद इसके पर्यावरण के अंधाधुंध दोहन से खुद को बचाने में हम अभी असमर्थ है। आधुनिकता की चकाचौंध ने हमारी संस्कृति पर भी असर डाला। यही वजह है कि महात्मा गांधी ने कहा था ‘प्रकृति में इतनी ताकत होती है कि वह हर मनुष्य की जरूरत को तो पूरा कर सकती है पर कभी भी मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती।’

मनुष्य के इसी लालच ने मानव को आर्थिक प्राणी बना दिया। मानव के अर्थशास्त्र की भूख इतनी बढ़ गई है कि अब पृथ्वी भी उसे छोटी लगने लगी। आज मनुष्य उपभोक्तावादी हो चला है। मानव के बढ़ते लालच ने जलवायु परिवर्तन का संकट खड़ा कर दिया है। लाखों लोग भुखमरी, जलसंकट व बाढ़ जैसी विपदाओं को झेल रहे हैं। अक्सर देखा गया है कि जलवायु संकट का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर होता है। जबकि, सच्चाई यह है कि वह जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम जिम्मेदार होते है। धरती का तापमान बढ़ने से बर्फ पिघलने की रफ़्तार बढ़ रही है। जिसके कारण महासागरों का जल स्तर 27 सेंटीमीटर तक ऊपर बढ गया।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नहीं रोका तो धरती का तापमान कई गुना बढ़ जाएगा। ऐसे कोरोना काल की बात करें, तो कोरोना काल मे जिस तरह से बायो मेडिकल वेस्ट बढ़ा, उससे हमारा वेस्ट मैनेजमेंट भी कई गुना बढ़ गया। नदियों का हाल भी किसी से छुपा नहीं है। कोरोना काल में प्रकृति ने स्वयं को संवारने का काम जरूर किया। पर, कोरोना का कहर थमा भी नहीं कि बढ़ता प्रदूषण गंभीर समस्या बन गया, जिसका निकट भविष्य में समाधान होते नहीं दिख रहा है। फिर भी भारत इस दिशा में वैश्विक मंच का नेतृत्व करने की दिशा में बढ़ रहा है। जो कहीं न कहीं एक सुखद संदेश है।