
World Famous Cactus Collection : जयपुर के प्रसिद्ध ज्वेलर्स के के अग्रवाल ने ‘घर में कैक्टस अशुभ’ की अवधारणा को बदल दिया !
विश्व प्रसिद्ध कैक्टस संग्रहकर्ता: के. के. अग्रवाल , जयपुर
उपनिषद कहते है कि “जो सोया है वह कलियुग में है , जो जाग उठा वह द्वापर में , और जो चल पडा़ , वह सतयुग में है ।” अपने परिश्रम की पराकाष्ठा से कलयुग को भी सतयुग में बदलने वाले गुलाबी नगरी जयपुर के प्रसिद्ध ज्वेलर्स के के अग्रवाल ( कृष्ण कुमार अग्रवाल ) ने वास्तु शास्त्रियों की घर में कैक्टस अशुभ की अवधारणा को न केवल बदल दिया है , अपितु दुर्लभ कैक्टस संग्राहक के रूप में राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने में भी सफलता प्राप्त की है । 25 वर्ष की आयु से ही पौधों में रुचि उत्पन्न हो गई थी । अग्रवाल बताते है कि कोलम्बस द्वारा अमरीका की खोज के साथ ही कैक्टस का अस्तित्व सामने आया । उस समय यह नवीन अनोखा पौधा लोगों को इतना भाया कि इसकी एरियोकारपस नामक किस्म को सोने से तोलकर बेचा गया था । फिर अंग्रेजों के साथ ही इसका प्रवेश भारत में हुआ ।

फूलों का जिक्र छिड़ते ही कोमलता, सुगंध और आकर्षक बनावट दिमाग में कौंध जाती है । अकसर कोमलता को फूलों से और कठोरता को पत्थर से इंगित किया जाता है । यदि फूल ही पत्थर की तरह नज़र आए तो आपको कैसा लगेगा ? जी हाँ, यह सच है। दक्षिण अफ्रीका में पाए जाने वाले Mesembryanthemum और Lithops जैसे पौधे देखने में रंगीन पत्थरों जैसे लगते हैं। ये “Living Gems” कहलाते हैं। Lithops की दुर्लभ किस्मों के संग्रह हेतु अग्रवाल जी का नाम कई बार Limca Book of Records में दर्ज हो चुका है। इनके फूलों की बनावट ऐसी होती है मानो पत्थर को किसी शिल्पकार ने तराशा हो, और प्रकृति ने भी इनका बडे़ मनोयोग से श्रृंगार किया हो । पौधों पर हुई चित्रकारी से लगता है, मानो ये पौधे आभूषणों से अलंकृत हों । कई पौधे तो देखने में रंगीन पत्थरों की गोटियों जैसे दिखते हैं । ये केसरिया , लाल, पीला, सफेद, रानी आदि रंगों में मिलते हैं । लिथोप्स पौधे और टहनी दो पत्तों की होती है जो नीचे एक दूसरे से जुड़ी रहती है ।
ओफ्थोलमोफ़िलम नामक पौधा आँखों जैसा दिखाई देता है, क्योंकि इसका ऊपरी भाग अर्द्ध-पारदर्शक होता है । ये पौधे जीते-जागते , जवाहरात ( लिविंग जेम्स ) भी कहलाते है । इन्हीं लिथोप्स के पौधों की अधिकतम व दुर्लभ किस्मों के संग्रह हेतु अनेकों बार लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में कृष्ण कुमार का नाम दर्ज हो चुका है । अग्रवाल बताते है कि यह पौधे होली से दीपावली तक सुप्तावस्था में रहते हैं और दीपावली के बाद इन कैक्टस में यौवन चढ़ता है और फूल खिलना शुरू हो जाता है ।

स्वीडन की मनोलिथोप्स सोसाइटी ने दुनिया के 10 टॉप लिथोप्स संग्राहक़ों में इनका संग्रह
“कैक्टस का इतना बड़ा और ऐसा कलेक्शन भारत में और कहीं देखने को नहीं मिलता । इट्स वंडरफ़ुल & अमेजिंग।”ये कहना है यूएसए के कैलीफोर्निया से आए हॉर्टीकल्चर सोसायटी के सदस्यों का। स्वीडन की मनोलिथोप्स सोसाइटी ने दुनिया के 10 टॉप लिथोप्स संग्राहक़ों में इनका संग्रह रखा है । जयपुर में के के अग्रवाल का 2500 से अधिक विभिन्न किस्मों को कुछ वर्षों पूर्व देखने आए हुए 30 सदस्यीय इस दल ने वर्ल्ड के हर तरह के कैक्ट्स को अजूबे की तरह देखा और तारीफ की । ये मैम्बर स्वयं नेचर से इतना अधिक प्यार करते हैं कि उन्होंने अपने घरों में भी बेहतरीन गार्डन लगा रखा है । केके बताते हैं कि कैलीफोर्निया के हॉर्टीकल्चर डिपार्टमेंट में वही लोग मेम्बर बनते हैं जो बागवानी के विषय में विशेष जानकारी रखते हैं ।
अग्रवाल के घर की छत पर विभिन्न प्रकार की प्रजाति के लगभग 2500 तरह के कैक्टस जिनमें Mesembryanthemum, Chiastophyllum, Conophytum, Mammillaria, Melocactus, Euphorbia, Astrophytum, Echinocactus, Lobivia, Titanopsis, Aloe, Jatropha, Pachypodium, Ophthalmophyllum, agave, Espostoa, Echinocereus, Epiphyllum सहित कई प्रजाति के हैं । इस संग्रह में आधा इंच से लेकर तीस फीट लम्बाई तक के विभिन्न तरह के कैक्टस हैं । कैक्टस भारत के अलावा ब्राजील , मेक्सिको , अफ्रीका , नामीबिया , साऊथ अफ्रीका सहित विभिन्न प्रजातियों के लगभग 12 देशों के कैक्टस इनके घर की खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं । इनमें कैक्टस की कुछ ऐसी प्रजातियां भी है जो बहुत दुर्लभ हैं ।

इनके लगाए कैक्टस की खास बात यह हैं कि ये पौधे कहीं से खरीदकर लगाने के बजाय स्वयं ने बीज से तैयार किए हैं । बीज बोने के बाद उनकी देखभाल भी खुद ही करते हैं । अग्रवाल का कहना है कि इन पौधों को मैं अपने बच्चों की तरह रखता हूं । समय – समय पर पानी एवं खाद देता हूं । मेरे इस कार्य में मेरी पत्नी एवं बच्चों का पूरा सहयोग रहता है । इनकी पत्नी का कहना हैं कि इनका बचपन से ही पेड़ – पौधों के प्रति गहरा लगाव रहा है । प्रकृति के प्रति लगाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्होंने अपने दोनों बच्चों का नाम भी ‘ तरू ‘ एवं ‘ शाखा ‘ रखा है ।

विक्टोरिया प्रजाति के कमल के पत्ते बडे़ आकार के होते है , इनके यहां सन 2003 में 52.5 इंच व्यास के पत्तों के कारण भी लिम्का बुक में नाम दर्ज हुआ था । उसे भी अमेरिका के फ्लोरिडा से बीज खरीद कर लगाया था । विक्टोरिया के पत्ते फैलावदार, बडे़, मुलायम गद्दे जैसे होते है । जब पत्तियां खुलनी शुरू होती है तब वह पैराशूट का आभास कराती है । कहीं पर अधखुले पत्ते ऐसा महसूस कराते है जैसे वे शंख से अर्ध चढा़ रहे हों । हालांकि अब यह पौधा नहीं रहा ।
मुझे जब अग्रवाल जी पौधों से रूबरू करवा रहे थे तब सहसा उनकी नज़र 16 फीट लम्बे पौधे पर गई तो उस पर पतंग के धागे लटक रहे थे । यह देखकर बैचेन हो गये , तत्काल सहायक को बुलाया व निर्देश दिया कि धागों को खींचकर नहीं निकाले , अपितु कैंची से काट काट कर तुरंत निकाले , जिससे शाखाओं को नुकसान नहीं पहुंचे । लम्बी सीढी़ लेकर सहायक आया .. कैंची से धागे काटकर अलग किए तब ही वे सहज ह़ो पाएं ।

बगी़चा-दर्शन के दौरान बार-बार फिल्मी गाना – “तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती नज़ारे हम क्या देखें ?” सार्थक होता रहा । किसी पौधे को देखने में मैं इतना ध्यानस्थ हो जाता कि उसके आसपास के पौधों पर नज़र ही नहीं जाती .. तब अग्रवाल समीप के पौधे के बारे में बताते तो ही ध्यान भंग होता . . ऐसा अनेक बार हुआ । होगा भी क्यों नहीं … क्योंकि जब तने की छाल पेपर सा आभास दे .. किसी का तना दो कलर का हो तथा ऐसा लगें की स्कर्ट्स पहना हो .. किसी कैक्टस में लगे कि चित्रकारी की हो , कोई आकाश को छूने के लिए प्रतिबद्ध हो .. कांटों में से फूल खिलखिला रहा हो .. हमें लगें कि डिजाइनर पत्थर गमलों में रख दिऐ है , जबकि उन पत्थरनुमा पौधों में से फूल खिलते हुए दिखें , छत पर विशाल गमलों में 30 फीट ऊंचे पौधों को समीप से देखने में गर्दन दुखने लगे, मुझे लगे कि यह अडेनियम का पौधा है जबकि वह कैक्टस या सकुलेन्ड हो, किसी का आकार कांटेदार फुटबॉल या कटहल का तो किसी का और किसी सदृश्य लगें । पौधों में पानी व दवाई देने हेतु पानी के ड्रम , मोटर , फव्वारा के साथ गोबर खाद व पौधों की विशेष मिट्टी ड्रम में संग्रहित दिखें । पानी देने का शेड्यूल अलग अलग रहता है अतः चेक लिस्ट का चार्ट लगा हो ।
के के अग्रवाल की जुबानी संस्मरण
एक बार मेरे लड़के को देखने के लिए लड़की वाले आए हुए थे उन्होंने ड्रॉइंग रूम से देखा बाहर कैक्टस लग रहे हैं । उन्होंने उन्हें देखने की इच्छा ज़ाहिर की । मैं उन्हें दिखाने लगा तो वो इतनी तादाद में कैक्टस देख कर हैरान हो गए बोले इन्हें घर में लगाना अशुभ होता है ना । मेरे हाँ कहने पर उनका जवाब था क्या ये यहीं रहेंगे ( यानी शादी के बाद भी ) ? मुझे ग़ुस्सा तो बहुत आया पर मैं ग़ुस्सा पीते हुए बोला जी ये यहीं रहेंगे और आपकी लड़की आपके यहाँ रहेगी इस बात पर वो अपना मुँह लेकर चले गए।
मेरे यहाँ अक्सर ही लोग मेरे संग्रह को देखने आते रहते हैं ऐसे ही एक बार कोई सज्जन मेरे कैक्टस संग्रह देखने आए हुए थे उन्होंने अचानक ही पूछा आप किस भगवान की पूजा करते हैं मैंने हँस कर जवाब दिया शिवजी की । मैंने बताया ये मेमिलेरिया पौधा शिवजी के सदृश्य लगता है लोग शिवजी पर पानी चढ़ा कर फूल चढ़ाते हैं । मैं इसमें पानी देता हूँ और शिव भगवान खुश होकर प्रसाद के रूप में मुझे खिल कर फूल देते हैं ।
पौधों से रूबरू होने के पूर्व लिफ्ट में ऊपर जाने हेतु जब आसपास की दीवारों पर नज़र जाती है तो उन पर लगे वालपेपर से बगिया की बानगी एवं अग्रवाल जी के फोटोग्राफी की रूचि से अवगत होता हूं । ऊपर बैठक कक्ष में लगे वालपेपर देखकर अवाक हो जाता हूं । खुद के लिए फोटोग्राफ्स के वाल पेपर से आशियाने में लाइफ साइज तस्वीरें और दीवारों और सीलिंग्स पर जयपुर के सिटी पैलेस , नवलगढ़ , बूंदी और मेहरानगढ़ की झलक दिखाई देती है । घर के प्रत्येक कमरे , रसोईघर , सीढी़ , छत , ग्लास इत्यादि को सजा रखा है । टॉप फ्लोर पर बने इस घर की तकरीबन हर दीवार पर के के अग्रवाल की खींची तस्वीरें हैं । जिन्हें उन्होंने राजस्थान की अलग – अलग हेरिटेज प्रॉपटीज पर अपने हेजल ब्लैक व नाइकॉन कैमरे से कैप्चर किया है । सबसे पहले मेहमानों का स्वागत सिटी पैलेस में बने दरवाजों से होता है , जिन्हें मौसम के अनुरूप पेंट किया गया था । वहीं ड्राइंग रूम में नवलगढ़ की आनंदीलाल पोद्दार हवेली की फ्रेस्को पेंटिंग के कट आउट्स हैं । 19 वीं सदी में बनी इस हवेली में दुनिया के सबसे ज्यादा फ्रेस्को पेंटिंग का संग्रह है जिन्हें मारवाड़ी व्यापारियों ने बनवाया था । अग्रवाल जी के अनेक फोटों राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । फोटोग्राफी का जुनून भी इस कदर हावी है फोटों की प्रिंट घर पर ही बनी फोटो लैब व स्टूडियो में स्वयं निकाल लेते है। अग्रवाल जी के यहां लगे सिटी पैलेस के वाल पेपर को देखकर ही भारी भरकम प्रवेश शुल्क अदा कर सिटी पैलेस को देखने गया था।

कैक्टस, अडेनियम , सकुलेन्ट , व्हाटर लिली की दुर्लभ प्रजाति के संग्रह तथा फोटोग्राफी की रूचि के साथ घर में एक और विशेषता ने दस्तक दे रखी ही । अग्रवाल जी की पत्नी सुषमा जी पाक कला में पारंगत है । पाक कला से सम्बंधित तीन पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है .. जिसका ले आउट, डिजाइन एवं समस्त फोटो अग्रवाल के ही हैं । सुषमा जी के पाक कला पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आलेख व विभिन्न चैनलों पर वीडियो प्रसारित हो चुके है । सुषमा जी को हाल ही में दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित मास्टर शेफ प्रतियोगिता में राजस्थान की सर्वश्रेष्ठ मास्टर शेफ हेतु प्रथम पुरस्कार से नवाजा गया था। पति-पत्नी अपनी अपनी रूचियों के साथ जीते है साथ ही एक दूसरे की रूचि में सहभागिता निभाते है । बेटा तरू भी पूर्ण सहयोग देता है ।
अभी तक अनेकों बगी़चे मैंने देखे हैं , कई पर लिखा है , लेकिन पौधों का यह संग्रह , स्वयं के लिए फोटों के वालपेपर से घर का अद्भुत श्रृंगार आँखों के सामने से हटता ही नहीं है । मन कहता है .. कह ऊंठू … रुचि और जनून हो तो के के अग्रवाल जैसा ।
अडेनियम की आत्मकथा- मैं भारत का सबसे ऊंचा ( 16 फीट 6 ईंच ) अडेनियम हूं
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कहा जाता है कि मैं भारत का सबसे ऊंचा ( 16 फीट 6 ईंच ) अडेनियम हूं । यही कारण है कि सितंबर-2017 तक जमीन में लगे होने तक, गुलाबी नगरी जयपुर के राहगीर मुझे बहुत कौतुक से देखते थें। जिन प्रकृति-प्रेमियों की अडेनियम में रुचि रहती थी, वो दूसरे शहरों व देशों से भी मुझ से मिलने आते थे । मेरे बागवान .. नहीं ..नहीं .. मैं तो उन्हें पापा ( के के अग्रवाल ) ही कहूंगा .. हां तो मैं कह रहा कि पापा के ज्वैलरी शो रूम में आने वाले ग्राहक भी ज्वैलरी से अधिक मुझ को निहारते थे तो मुझ सहित पापा को भी बहुत खुशी होती थी ।

सन् 2017 में निर्णय हुआ कि मुझे इसी जगह पर बनी नवनिर्मित बिल्डिंग की 50 फीट ऊंची छत पर रहना होगा । नई जगह , खुले आसमान तले मेरा आशियाना होगा, जानकार खुशी हुई । अब छत पर से मुझे चाँद, तारे, सूरज व मेरे पापा का अधिक सानिध्य मिलेगा, मेरे जो साथी स्वर्ग सिधार गए, वो अब तारे के रुप में मुझे एवं मैं उन्हें अच्छे से देख पाऊंगा ।
शुरू हुई मुझे ऊपर ले जाने की कवायद । पहले मशक्कत कर जडों सहित मुझे जमीन से बाहर निकाला गया । सीढियों से ऊपर ले जाने लगे । मेरे बडे़ आकार के कारण शाखाओं को मोड़ते समय पापा सिहर गए । उन्होंने कहा कि सीढियों से नहीं अपितु अब क्रेन से ऊपर ले जाएंगे । चैन वाली क्रैन से मुझे छत पर लाया गया । मुंबई से विशेष रुप से लाया गया गमला मेरा सिंहासन बना ।
हाल-ही में इंदौर से आए प्रकृति-प्रेमी महेश बंसल मुझ से मिलने आए । मुझे अपनी बाहों में भर लिया । मैं भी चाहता था कि उनकी बाहों में समा जाऊं, लेकिन मेरे तने का आकार बडा़ होने से पूर्ण रुप से बाहों में समा नहीं सका ।
सच कहूं तो सन् 1975 में लगाएं बीज से मेरी अबतक 48 वर्षों की यह यात्रा अत्यंत सुखद व अद्भुत रही है, जिसमें देश सहित अनेक देशों के व्यक्तियों से रूबरू मिला हूं । यह यात्रा ऐसे ही सतत चलती रहें .. यही कामना भी है

महेश बंसल,इंदौर
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