हां…भाजपा की धरा पं. दीनदयाल उपाध्याय नामक सूरज से रोशन है…
भारतीय जनता पार्टी आज दुनिया के सबसे बड़े राजनैतिक दल होने का दावा करती है। यह दावा अगर संभव हुआ है तो जनसंघ की विचारधारा को इसका पूरा श्रेय जाता है। और इस विचारधारा के सृजन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से पल्लवित पोषित पंडित दीनदयाल उपाध्याय की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यदि कहा जाए कि आज भाजपा की धरा पंडित दीनदयाल उपाध्याय नामक सूरज की रोशनी से प्रकाशित है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दीनदयाल के आचरण को भाजपा नेता कितना आत्मसात कर पाए, यह अलग विषय है। पर सत्ता के संघर्ष में दीनदयाल के विचार जनसंघ और भाजपा के संग पूरे समय चले हैं। आज अगर वह होते तो 108 साल के हो गए होते। आज भाजपा पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती जोर-शोर से मना रही है। भाजपा, सदस्यता अभियान में आज नए कीर्तिमान रचकर यह उपलब्धि पंडित दीनदयाल उपाध्याय को समर्पित करेगी। पर पंडित दीनदयाल ने राजनीति में जो आदर्श स्थापित किया था, आज उसकी कमी उन्हें भी जरूर खलेगी।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1937 में जब कानपुर से बीए कर रहे थे, तब अपने सहपाठी बालूजी महाशब्दे की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार का सान्निध्य भी उन्हें कानपुर में ही मिला। उपाध्याय जी ने पढ़ाई पूरी होने के बाद संघ का दो वर्षों का प्रशिक्षण पूर्ण किया और संघ के जीवनव्रती प्रचारक हो गये। आजीवन संघ के प्रचारक रहे। फिर संघ के माध्यम से ही उपाध्याय जी राजनीति में आये। 21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। गुरुजी (गोलवलकर जी) की प्रेरणा इसमें निहित थी। 1952 में इसका प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ। उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने। इस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से 7 उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किए थे। डॉ. मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा- “यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।” और वास्तव में “एक दीनदयाल” ने ही कार्यकर्ताओं की फौज तैयार कर भारतीय जनता पार्टी को सत्ता के शिखर पर लगातार रहने का पूरा अवसर दिया है।
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ( 25 सितम्बर 1916–11 फरवरी 1968) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को ‘एकात्म मानववाद’ नामक विचारधारा दी। वे एक समावेशित विचारधारा के समर्थक थे जो एक मजबूत और सशक्त भारत चाहते थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में कई लेख लिखे, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को धनकिया नामक स्थान ,जयपुर अजमेर रेलवे लाइन के पास (राजस्थान) हुआ था। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था, नागला चंद्रभान दीनदयाल जी का पैतृक गांव था, और नगला चंद्रभान (फरह, मथुरा) के निवासी थे। उनकी माता का नाम रामप्यारी था, जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। पिता रेलवे में जलेसर रोड स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर थे। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर ही बीतता था। कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। 19 वर्ष की अवस्था तक उपाध्याय जी ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था। उनके सभी परिजन बारी-बारी दयाल को अकेला छोड़कर इस लोक से विदा हो चुके थे।
दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा दी। उन्हें जनसंघ की आर्थिक नीति का रचनाकार माना जाता है। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है।संस्कृतिनिष्ठा उपाध्याय के द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवनदर्शन का पहला सूत्र है। उनके शब्दों में-
“ भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।”
“वसुधैव कुटुम्बकम्” भारतीय सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हैं। संस्कृति से किसी व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्र आदि की वे बातें, जो उसके मन, रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता की सूचक होती हैं, पर विचार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है। उपाध्याय जी पत्रकार होने के साथ-साथ चिन्तक और लेखक भी थे। उनकी असामयिक मृत्यु से यह बात स्पष्ट है कि जिस धारा में वे भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिन्दुत्व की थी। इसका संकेत उन्होंने अपनी कुछ कृतियों में भी दे दिया था। इसीलिए कालीकट अधिवेशन के बाद मीडिया का ध्यान उनकी ओर गया।
1967 तक पं.उपाध्याय भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। 1967 में कालीकट अधिवेशन में पं. उपाध्याय भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वह मात्र 43 दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे। 10/11 फरवरी 1968 की रात्रि में मुगलसराय स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई। 11 फरवरी को प्रातः पौने चार बजे सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा नं० 1276 के पास कंकड़ पर पड़ी हुई लाश की सूचना मिली। शव प्लेटफार्म पर रखा गया तो लोगों की भीड़ में से कोई चिल्लाया- “अरे, यह तो जनसंघ के अध्यक्ष दीन दयाल उपाध्याय हैं।” खबर फैलते ही पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गयी? पर दीनदयाल देह त्यागने के बाद भी मरे नहीं, वह अमर हो गए। उनके समृद्ध विचारों ने आज उनकी विचारधारा के दल को दलदल से कमल खिलाने में सफलता पाई है। और आज उनकी जयंती पर हर बूथ पर सौ नए सदस्य जोड़ने का भाजपा का संकल्प अगर पूरा हो रहा है तो इसके पीछे पंडित दीनदयाल उपाध्याय की वैचारिक जीवंतता है। पर अफसोस की बात है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय का आदर्श आचरण अब ओझल सा हो रहा है। फिर भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर यह सत्य हर भाजपा कार्यकर्ता को स्वीकार्य होगा कि “भाजपा की धरा पंडित दीनदयाल उपाध्याय नामक सूरज से रोशन है…।”