मैं हूँ शांता

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मैं हूँ शांता

नहीं पहचाना ना आपने मुझे ?
मैं श्रीराम की अग्रजा हूँ।
संपूर्ण रामायण श्री राम ,लक्ष्मण, भरत ,शत्रुघ्न और सीता और तीनों माताओं की विभिन्न कथाओं से भरा हुआ है। मेरा उल्लेख मुझे ज्यादा नहीं दिखता।
मेरी जगह सिर्फ कौशल्या माता की हृदय में थी । शायद तात भी मुझे स्मरण करते होंगे
मैं तो उनकी पहली संतान थी नां! कैसे उन्होंने मुझे अंग देश नरेश रोमपद और मौसी वर्षिणी को अनेक वर्षों तक संतान सुख न मिलने के कारण उनकी गोद में डाल दिया ? कैसे उनका मन मान गया ?
वे दोनों माता कौशल्या को मिलने आए थे ।

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मुझे तुम्हारी यह प्यारी, मेधावी सुपुत्री दे दोगी क्या?
मौसी वर्षिणी ने ऐसे कातर स्वर में कौशल्या माँ को पूछा कि उनका हृदय पिघल गया। उन्होंने और साथ में तात ने क्षण भर के अंदर मौसी को मुझे दत्तक दे दिया। मुझे पूछने का उनके मन कोई विचार भी नहीं आया। कई बार मेरे मन में आता है कि मेरे स्थान पर यदि पहला पुत्र होता तो क्या इतनी आसानी से वह उसे दत्तक दे देते?

अंग देश नरेश ने मुझे बहुत ही लाड़ प्यार से पाला पोसा। वेद विद्या, शिल्प कला में मुझे निपुण किया ,लेकिन वहाँ भी पुत्री होने के कारण मुझे राज्य संभालने का अधिकार नहीं था।

एक बार पिता रोम पद और मेरा संवाद चल रहा था, तब एक गरीब ब्राह्मण खेती की कोई समस्या लेकर आया । पिताश्री का उनकी तरफ ध्यान नहीं गया। उस दुखी ब्राह्मण ने देश छोड़ दिया। इंद्रदेव को यह बात सहन नहीं हुई और उनके क्रोध के फलस्वरूप बारिश न होने के कारण अंग देश में सूखा पड़ गया।

परेशान होकर तात और माता वर्षिणी ऋषि श्रृंग के पास गए।वे एक महान ऋषि थे , वे जिस स्थान पर अपने चरण रखते , वहाँ शांति और समृद्धि वास करती थी । ऋषि के बताए हुए उपाय से अंग देश की भूमि फिर से हरी भरी हो कर लहलहाने लगी। प्रसन्न पिता ने मेरा विवाह ऋषि से कर दिया।

कालांतर में राजा दशरथ यानी मेरे असली पिता के कुल गुरु वशिष्ट के मार्गदर्शन से अयोध्या में पुत्र कामेष्ठी यज्ञ करने का तय हुआ । मुख्य अतिथि के रूप में मेरे पति ऋषि श्रृंग को बुलाया गया। ऋषि का कहना था कि जो भी यह यज्ञ करवाएगा, उसके समस्त पुण्य समाप्त हो जाएंगे। उसकी तपस्या का प्रताप समाप्त हो जाएगा। उन्होंने शांता को कहा यदि मैंने यह यज्ञ करवाया तो तुम्हे जंगल में रहना पड़ेगा । इस बात पर मैंने उन्हें मनाया और कहा -” मेरे जन्मदाता पिता के लिए मैं सब त्याग दूंगी , आप यज्ञ करवाइए।

इस निमंत्रण के बाद ऋषि श्रृंग ने कहा – मैं अकेला नहीं आ सकता , मेरी पत्नी शांता भी मेरे साथ यज्ञ में कार्य करेंगीं ।
जब मैं मेरे पति अयोध्या पहुँचे , मैने तात दशरथ और माता कौशल्या के चरण स्पर्श किये । उन्होंने मुझे नहीं पहचाना , क्योंकि मेरा रूप किसी ऋषि के समान हो गया था तब मैंने स्वयं का परिचय दिया “मैं आपकी पुत्री शांता हूँ”।
यज्ञ पूर्ण होने के समय दिए गए पायस से तीनों रानियाँ गर्भवती हुईं । मुझे जंगल मे जाना पड़ा , कहा जाता है – मेरे त्याग से ही पुत्र कामेष्ठी यज्ञ सफल हुआ और दशरथ चार पुत्रों के पिता बने।

फिर क्या था ? फिर तो पूरा का पूरा रामायण सम्पन्न हुआ। रामायण , राम की कथा है । “प्राण जाए पर वचन न जाए” ऐसे रघुकुल की गाथा है। लेकिन इस संपूर्ण रामायण में मेरा अस्तित्व लुप्त हो गया। फिर भी मेरे रोम रोम में श्री राम हैं।

हिमाचल प्रदेश में कुल्लू नामक स्थान पर मेरा मंदिर है। इस मंदिर में, मैं मेरे पति ऋषि श्रृंग के साथ विराजमान हूँ। दक्षिण में मेरे पति के नाम से श्रृंगेरी मंदिर है।

वाल्मीकि रामायण के बालकांड के नववें भाग में मुझे ढूंढिएगा, मैं वहाँ आपको निश्चित रूप से मिलूँगी।

क्या मेरा इतना परिचय काफी है?

डॉ सुनीता फड़नीस

लोक के राम