व्यंग्य: स्मृति चिह्न का मिलना और उसके बाद
-श्री रामस्वरूप दीक्षित
कल मुझे एक कार्यक्रम में स्मृति चिह्न दिया गया। मैं गर्व से भर गया ( ऐसे अवसरों पर गर्व से लबालब भर उठने का हर लेखक का मौलिक अधिकार है।आजकल लेखक लिखकर नहीं सम्मानित होकर गर्व की अनुभूति करते हैं। इसे उनका समय के साथ चलना कहते हैं।) और मेरी बांछे , जो अगर श्रीलाल शुक्ल आज होते तो बताता कि ऐसे मौकों पर लेखक के रोम रोम में होती हैं , खिल उठीं।
इन्हीं खिली हुई बांछों के साथ मैं वापसी यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचा। टिकिट बाबू से टिकिट देने को कहा। उसने टिकिट दे दिया , मैंने पूछा ” मेरे साथ स्मृति चिह्न है, उसका अलग से टिकिट तो नहीं लेना पड़ेगा?”
बाबू ने मुझे कुछ इस तरह से घूरा कि मेरी खिली हुई बाँछें मुरझाने लगीं। मुझे बाबू की मूर्खता ( लेखक कितना भी मूर्ख क्यों न हो खुद को कभी मूर्ख समझने की गलती नहीं करता , मैंने भी नहीं की।)पर तरस आया। ये स्मृति चिह्न के वजन को नहीं समझ रहा है। समझता तो लगेज का टिकिट चुपचाप बना देता। बहरहाल अभी ट्रेन आने में भारतीय रेल परंपरा के अनुसार देर थी ( हमारी रेलें खानदानी घरों की लडकियों की तरह किसी के साथ भागने में कुल कलंकनी नहीं होना चाहतीं , समय के साथ भी नहीं।
समय के साथ चलने में वे एक विशेष तरह की लज्जा का अनुभव करती हैं।) तो मैं स्मृति चिह्न को सीने से लगाए प्लेट फार्म पर इधर से उधर टहलने लगा। जब कोई स्मृति चिह्न की तरफ गौर से देखता तो मैं जानबूझकर मोबाइल निकालकर कान में लगाकर खड़ा हो जाता इस उम्मीद से कि देखने वाला अच्छी तरह से उसे पढ़ ले और समझ ले कि यह
जो व्यक्ति मेरे सामने खड़ा है , कोई साधारण यात्री भर नहीं , बल्कि स्मृतिचिह्नधारी लेखक नाम का जीव है। ट्रेन के इंतजार में ऊबे हुए यात्रीनुमा प्राणी जब गौर से इसे पढ़ते नजर आते तो मुझे लगता कि साहित्य में स्वर्णकाल लौट आया है।
तभी एक उद्घोषणा हुई , जो मुझे इस तरह सुनाई दी ” यात्रीगण कृपया ध्यान दें। आज इस प्लेटफार्म पर जिस पर आप सब खड़े हुए हैं, उसी पर हिंदी के एक स्मृति चिह्नधारी लेखक अपने स्मृति चिह्न के साथ खड़े हुए हैं। भारतीय रेलवे उनका अभिनंदन करता है। मेरे कान इस उद्घोषणा से फूले नहीं समा रहे थे। मैंने पहली बार जाना कि कान भी फूलते हैं।
तभी स्टेशन पर एकाएक हलचल हुई और सारा प्लेटफार्म सरककर एक किनारे जा लगा।
तो यह ट्रेन के आने की उद्घोषणा थी , अब मेरी समझ में आया। अगले ही क्षण ट्रेन हमारे सामने खड़ी थी। डिब्बों के स्वर्ग में अपना स्थान ग्रहण करने को आतुर यात्री किसी पुण्यात्मा की तरह उसमें प्रवेश करने लगे।
मेरे पुण्यों का ऐसा उदय हुआ कि तीन लोगों की एक पूरी सीट मेरे स्वागत में खाली पड़ी थी। मुझे लगा कि रेल विभाग लेखकों का कितना आदर करता है।
मैंने स्मृतिचिह्न को दो यात्रियों द्वारा घेरे जाने जितनी जगह रखा और खुद एक किनारे बैठ गया। थोड़ी देर में यात्रियों की दुनिया का सबसे अवांछित व्यक्ति आया तो अचानक कुछ लोगों हाजत महसूस हुई और वे ऐसे मौकों पर आश्रय स्थली का काम करने वाले स्थानों की तरफ चल पड़े।
उस व्यक्ति ने पहले मुझे देखा फिर स्मृतिचिह्न को देखता हुआ कुछ देर खड़ा रहा और फिर चला गया।
मेरे अंदर कुछ ऐसा अनुभव हुआ जिसे ज्ञानी लोग गर्व कहते हैं। मैंने देखा कि मुझे अपनी शर्ट कुछ टाईट लगने लगी, बाद में समझ आया कि ऐसा सीना फूलने के कारण हो रहा था।
जब स्टेशन पर उतरा तो लगा कि सारे लोग मुझे रिसीव करने आए हुए हैं।
मेरे उतरने का आज अलग ही अंदाज था और चाल भी कुछ अलग तरह की हो गई थी।
प्लेटफार्म से बाहर निकला तो देखा कि सैकड़ों टैक्सी वाले मेरा इंतजार कर रहे थे, आखिर उनके शहर का लेखक स्मृति चिह्न लेकर लौट रहा था।मुझे पहली बार अपने आम आदमी का लेखक होने का गर्व महसूस हुआ।
आज पहली बार मैंने टैक्सी वाले से पैसों को लेकर कोई झिकझिक नहीं की और पहली बार अकड़कर बैठा। हवाई जहाज में भी लोग ऐसे अकडकर न बैठते होंगे।
मैं अपने भीतर स्मृति चिह्न की ताकत अनुभव कर रहा था। अब मैं कोई छोटा मोटा लेखक नहीं रह गया था। बड़ा और खास लेखक बन गया था।
मुख्य सड़क से घर तक एकदम धीरे धीरे चला ताकि मोहल्ले के लोग देख लें कि अपने जिस पड़ोसी लेखक को वे गया बीता कलम घसीटू लेखक समझ रहे थे वो आज एक चमचमाता हुआ स्मृतिचिह्न लेकर लौट रहा है , पर दुर्भाग्य कि एक भी आदमी घर के बाहर नहीं था। मुझे दिनोंदिन सिकुड़ते जा रहे सामाजिक सरोकारों की घनघोर चिंता होने लगी।
हिन्दी के लेखक की खासियत है कि वह अपने दायरे से बाहर सोचने की जहमत नहीं उठाता।
कहां सोचा था कि पत्नी और बच्चे दरवाजे पर मेरा इंतजार करते मिलेंगे , पर दरवाजा लेखक के जीवन में आने वाले अवसरों की तरह बंद था।
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मैं स्मृतिचिह्न को सीने से लगाए कुछ देर खड़ा रहा , फिर घंटी बजाई। पत्नी ने दरवाजा खोला और बिना मेरी ओर देखे ऐसे चली गई जैसे जरूरी मौकों पर बिजली चली जाती है।
रात को मैं स्मृति चिह्न को अपने बगल में रखकर सोया। रात भांति भांति के खूबसूरत सपनों में बीती।
सुबह उठते ही स्मृति चिह्न को साफ किया और बैठक की सेंटर टेबिल पर इस तरह रखा कि आने वाले की निगाह मुझसे पहले उस पर पड़े।
पड़ोसी शर्मा जी को पहली बार चाय पर बुलाया। टेबिल से अख़बार और पत्रिकाएं हटा दीं अब टेबिल पर केवल स्मृति चिह्न था , पर शर्मा जी न जाने किस जनम की दुश्मनी निकालने पर आमादा थे कि उसकी तरफ देखना तो दूर मुंह तक नहीं कर रहे थे। मुझे देश में साहित्य का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा , रही पत्नी चाय लेकर आई तो उसने स्मृतिचिह्न को देखते हुए कहा ” अरे ! ये मिला क्या कल ?” उसके इतना कहते ही शर्मा जी की निगाह भी स्मृति चिह्न पर पड़ी और वे उसे हाथ में लेकर देखने लगे।
मैं कभी खुद को और कभी शर्मा जी को देख रहा था।
साहित्य के अच्छे दिन आ गए थे।
{वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित }
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