Book Reviews : जीवन की सार्थकPhilosophy से रूबरू कराता उपन्यास

371
पारुल सिंह के संस्मरणात्मक उपन्यास -ऐ वहशते-दिल क्या करूँ-

Book Reviews : जीवन की सार्थक Philosophy से रूबरू कराता उपन्यास 

जसविन्दर कौर बिन्द्रा

पारुल सिंह मूलतः एक कवियत्री है, यह बात उसके पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाती है। ‘ऐ वहशते-दिल क्या करूं’ उसका प्रथम संस्मरणात्मक उपन्यास है। इस उपन्यास का विषय दिल की सर्जरी के समय और बाद में हस्पताल में बिताए कुछ दिनों का लेखा-जोखा है। मज़े की बात यह है कि इस उपन्यास का पात्र कोई काल्पनिक, पौराणिक, इतिहासिक, उत्तर-आधुनिक या किसी वाद-विमर्श के दायरे में से नहीं है। सच तो यह है कि ये ‘बाय वन गैट वन फ्री’ वाली स्थिति जैसा है, जिसमें लेखिका स्वयं ही केंद्रीय पात्र के रूप में बिराजमान है, हांड-मांस की जीती-जागती महिला। पहले हैरानी हुई कि सर्जरी संबंधी संस्मरणों में क्या लिखा होगा, सर्जरी से पहले की पीड़ा, बाद के कष्ट, दुख-तकलीफें…..। हस्पतालों का बुरा हाल, डाक्टर-नर्सों की भागमभाग, वहां फैली अव्यवस्था, गंदगी, कर्मचारियों की परिवारजनों व संबंधियों संग नुक्ताचीनी और सबसे बढ़ कर वहां का रुदन भरा माहौल व चिल्लम-पौं! हां, यदि यह कोई सरकारी हस्पताल होता तो उपरोक्त वर्णित सब कुछ होता परन्तु यह दक्षिणी का दिल्ली का एक प्रतिष्ठित हस्पताल है, जिसकी गुणवत्ता कई दशकों से बरकरार है, इसलिए ऐसा कुछ नहीं था।

पारुल अपनी बीमारी की शुरूआत और उसकी मुख्य-मुख्य घटनाओं के द्वारा एक प्रकार से इस उपन्यास की भूमिका बांध देती है। नपे-तुले शब्दों में, मुख्य बात पर फोकस करती है। इससे अंदाजा हो जाता है कि लेखिका के पास रचनाशील कौशल है। उसे मालूम है, कहां उसे विस्तार देना है और कहां बात को संक्षेप में समेट देना है। वह ओपन हार्ट सर्जरी के बहाने, पाठकों के सामने अपने आप को खोल कर प्रस्तुत कर देती है। हार्ट की सर्जरी करते हुए, उसके डाक्टरों ने उसका हार्ट खोल कर, लीक हो रहे वाल्व को बदला और इधर लेखिका ने इस का फायदा उठाते हुए, सर्जरी के बाद आई.सी.यू और बाद में वार्ड के चंद दिनों के अनुभव साझा करते-करते, अपने जीवन, बचपन, स्कूल-कालेज व विवाहित जीवन की कुछ-कुछ टुकड़ियों को पाठकों सामने ‘लीक’ (उजागर) कर दिया। जिससे कुल मिलाकर जो तस्वीर बनी, उससे लेखिका के पारिवारिक चरित्रों के गृहिणी, पत्नी, मां, लेखिका, बेटी, मित्र के विभिन्न रूपांे के साथ उसका व्यक्तित्व, स्वभाव, संवेदनशीलता और जीवन को जानने-समझने का नज़रिया सामने आया।

लेखिका ने सर्जरी के लिए ओटी में जाने के साथ ही पाठकों को अपने साथ बांध लिया। एंथेसिया के प्रभाव में चेतनाशून्य होने से पहले उसने अवचेतन रूप से सारे हस्तपताल का चक्कर लगाया और लॉज में प्रतीक्षा में उदास बैठे मां-बाप और पति के साथ अनेक बातें कर, उन्हें दिलासा दिया। उसने अपने अंर्तमन से देख लिया कि उसके परिवारवाले किस स्थिति में वहां बैठे क्या सोच रहे होंगे। फिर उसने डाक्टरों के सामने सम्पर्ण कर दिया।

आई.सी.यू के उन दो-चार दिनों जिसे उसने मानसिक पर्यटन और ‘सोलो ट्रिप’ का नाम दिया। जहां उसके करने के लिए वैसे तो कोई काम नहीं था, वह पूरी तरह से डाक्टरों व नर्सें के साथ बहुत सारी टयूबों-नालियों व मशीनें के हवाले थी। उसका सदुपयोग उसने मानसिक पर्यटन करते हुए किया, जब उसके पास वक्त ही वक्त था। वह कुछ भी सोचने के लिए आज़ाद थी। उसकी सोच ने अपने पूरे जीवन को एक चक्र रूप में फिर से खंगाल लिया।  हस्पताल में सभी ने उसकी पूरी देखभाल भी की परन्तु दो दिन बाद उससे कह दिया गया कि भई, डाक्टरों ने तुम्हें बचा लिया है, अब अपने आप को खुद संभालो। सारी उम्र डाक्टर व नर्सें उसके साथ-साथ नहीं रहेंगे। उसे स्वयं को मजबूत करने के लिए लंबी-लंबी सांसे लेना, भाप लेना, फिजियो थैरेपी के लिए उठना-बैठना पड़ेगा। इसमें न पानी पीने की इजाज़त थी और न बार-बार सोने की। अत्यन्त प्यास के समय उस आधे गिलास पानी की अहमीयत और बेसुध सो जाना बहतु बड़े सुखों में शुमार होने के बारे में पता लगा।

रचना के केंद्र में लेखिका स्वयं अवश्य है परन्तु उसने आई.सी. यू. के अन्य सभी मरीजों की भी जानकारी, उनके दैनिक क्रिया-कलापों, उनकी बीमारी के बारे में भी बताया। छोटी-छोटी घटनाओं से, कुछ अस्पष्ट वाक्यों से उनके स्वभावों को भंाप लिया। डोरा सिंह या धोरा सिंह की हठधर्मिता, सुदेश जी का जीवन से एकदम किनारा कर लेना । एक युवक का सर्जरी से पहले घबरा जाना। इससे पता लगता है कि लेखिका कहीं भी, कभी भी स्व-केंद्रित स्वभाव की नहीं रही, तभी उसने न केवल आई.सी. यू के उस समय मौजूद मरीजों से पाठकों का परिचय करवाया बल्कि जब कभी भी अपने जीवन के किसी हिस्से को खोला तो उसमें मां-बाप के साथ, अध्यापक, प्रिंसीपल, सखियां, सीनियर सभी शामिल होते गए। लेखिका द्वारा खोली खिड़की से अनजाने में ही पाठकों को अस्सी के दशक के स्कूल-कालेजों की एक झलक मिल गई। कस्बेनुमा छोटे स्थान पर रहते हुए भी, डाक्टर पिता और दूरअंदेश मां के साये में, वह आत्म-विश्वास से लबरेज़ होती गई। हालांकि अपनी सोच से अधिक समझदारी दिखाते हुए उसने सखा मनोज के साथ सांसों को बचाने का एक नायाब तरीका भी खोज निकाला ताकि मृत्यु के समय अपनी आखिरी बात कहने पर उसे सांसों की कमी न हो, पर उसे मालूम नहीं था कि ये सांसे मृत्यु से बहुत पहले ही उसके साथ आंख-मिचौली खेलने लगेगी और इन्हें बचाए रखने के लिए उसे डाक्टरों के साथ स्वयं भी बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। सर्जरी की शरीरिक पीड़ा से बचने के लिए उसे मर जाना बेहतर लगा, जो अच्छे डाक्टरों, चिकित्सीय देखभाल से संभव नहीं हो पाया। तभी तो पाठकों को इस संदेश का व्यावहारिक स्वरूप देखने को मिला कि ‘आत्मबल से मौत को भी हराया जा सकता है।’

इसमें संदेह नहीं, लेखिका न केवल बहुत अच्छी ‘ऑब्ज़र्वर’ है बल्कि उसकी याददाशत भी अच्छी है। तभी स्वयं तकलीफ में होने के बावजूद उसने नर्सों, डाक्टरों, वार्ड ब्यॉज़, खाना पहुंचाने वाले कर्मचारियों और मरीज़ों का पल-पल का हिसाब रखा। वह अपने चेतन मन से जान पायी, नर्सों, डाक्टरों के पास अपने जीने के लिए वक्त नहीं। सारा समय एक टांग से दूसरी टांग पर वे सभी इधर-भागते रहते हैं। इसी भागमभाग के कारण डाक्टरों के लिए उनके मरीज़ ‘ऑब्जेक्ट’ बन कर रह जाते है। कुछ वाक्यों का इस्तेमाल केवल औपचारिकतावश किया जाता है। मरीज की ओर से उसके जवाब की प्रतीक्षा किए बिना आगे कदम पर बढ़ जाना, उनकी व्यवस्तता की निशानी है परन्तु किसी की भी गलती को न बख्शने वाली लेखिका ने अपने डाक्टर की अत्यन्त प्रशंसा करते हुए भी उसके स्वभाव के रुखेपन व डांट को नज़रअंदाज़ नहीं किया। शायद इसी कारण पुस्तक के फ्लैप में उनके प्रिय डाक्टर ने भी इस बात को स्वीकार किया कि उसे मरीजों के सामने और भी  बेहतर ढंग से पेश आना चाहिए। कई बार मरीज की बेहतरी के लिए ही कुछ सख्ती बरतनी पड़ती है पर जैसे डा. अमिता हर हाल में मुस्कराहट का पल्ला नहीं छोड़ती, वही संगमा जैसी नर्स अवसर अनुसार शतरंज की चाल देती। हठधर्मी धोरा सिंह को भी उनकी छोटी सी नर्स कैसे नियंत्रित कर लेती थी और वह उसका हर कहा चुपचाप मान लेते थे। कामकाजी स्त्रियां के लिए नौकरी और गृहस्थी को संभालना कितना मुश्किल होता है। विडंबना यह है कि भारत में घर के सभी काम उसे ही निपटाने हैं, भले वह डाक्टर ही क्यों न हो।

लेखिका और उसके  पति का आपसी रिश्ता बहुत प्यारा सा है, दोनों बिना कहे एक-दूसरे को समझ लेते हैं। उनके आपसी रिश्ते द्वारा गृहस्थ जीवन की वास्तविकता सामने आती ही हैं कि पति-पत्नी के रूप में बहस और लड़ाई करना उनके अधिकार-क्षेत्र में आता है परन्तु जब वे मां-बाप की भूमिका में आते हैं तो वे एक अलग पार्टी न हो कर एक इकाई होते हैं।

रचना की लेखन-शैली की बात करें तो वह अत्यन्त प्रभावित करती है। हर अध्याय एक शेयर से स्वागत करता दरवाजे पर खड़ा मिलता है। उसी से होकर पाठक उस अध्याय में प्रवेश करता है। बरगद की टहनियों व पत्तों से अपनी पसंद के एक-एक करके कई पुराने गीत उतार कर, वह अपने आप को उनमें डुबो लेने का हुनर जानती है। इन गीतों के चलते ही वह कालेज के होस्टल में भी सखियां बनाने में कामयाब हो गई थी। इसे उपन्यास कहा जाए….मैं सोच रही हूं क्योंकि कल्पनाशीलता तो कहीं भी नहीं है। यह संस्मरणात्मक रचना जरूर है। एकाध हफ्ते के अपने हस्पताली भ्रमण से लेखिका यह संदेश अवश्य देना चाहती है कि हमें किसलिए जीना है और क्यों ? क्या धोरा सिंह की तरह अपनी मर्ज़ी का जीवन जीने के लिए वह हस्पताल वालों से नाराज़ होना क्योंकि वह यहां से निकल कर, अपने मन की करना चाहता है। या लेखिका की तरह कि तकलीफें झेलने से अच्छा है, मर ही जाओ। पर नहीं, ये इतने डाक्टर, नर्सें, उनके परिवारजन, स्नेही उनका जीवन बचाने के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं या अपनी उन दो बेटियों के लिए, जिनमें से एक को होस्टल में रखा है और छोटी को बहन के पास।  अपने उन मां-बाप के बारे में सोचना, जो उसके दिल कर हर बात को दूर बैठे ही महसूस कर लेते हैं। इसलिए कहने के लिए किसी भी व्यक्ति का जीवन उसका अपना होता है, परन्तु वह नितांत अकेला नहीं होता, उसके जीवन पर उसके स्नेहियों और परिवारजनों का भी उतना ही हक होता है।

लेखिका अपने जीवन व बीमारी द्वारा पाठकों की जीवन की सार्थकता से पहचान करवाती है। आखिर ऐसे पल सभी के जीवन में कभी न कभी आते ही हैं, यह बात अलग है कि हर कोई इस मोहतरमा द्वारा इन्हें आनंद के पलों तरह इन्जॉए भले न कर पाएं मगर जीवन की अहमीयत को तो अवश्य स्वीकार करेगा ही।

लेखिका के चुलबुलेपन और मुस्कराहट के साथ, उसकी गंभीर सोच का स्वागत…!

लेखक – पारुल सिंह ,प्रकाशक – शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, सीहोर मप्र 466001

प्रकाशन वर्ष – 2024

मूल्य- 300 रुपये,

पृष्ठ संख्या – 234

जसविन्दर कौर बिन्द्रा

आर-142, पहली मंजिल, ग्रेटर कैलाश-1, नयी दिल्ली 110048

मोबाइल- 9868182835

ईमेल- [email protected]

Journeys of Mystery and Fear: रहस्य और रोमांच से भरी ननिहाल की यात्रा , मुझे ही क्यों दिखी वह