चुनाव डायरी:महाराष्ट्र में अब जीत और हार पर मंथन 

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चुनाव डायरी:महाराष्ट्र में अब जीत और हार पर मंथन 

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– नवीन कुमार

 

महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान होने के बाद अब जीत और हार पर मंथन शुरू हो गया है। एनडीए-महायुति और इंडिया-महा विकास आघाडी दोनों गठबंधन अपनी अपनाई हुई चुनावी रणनीति के तहत अपने पक्ष के आंकड़ों को खंगालने में जुट गए हैं। बाजी मार लेने का भरोसा तो दोनों गठबंधन को है। लेकिन यह इतना आसान भी नहीं लग रहा है। क्योंकि, हर सीट पर टक्कर बराबरी का रहा है। वैसे भी, महाराष्ट्र ऐसा राज्य है जिस पर फोकस दोनों गठबंधनों ने कर रखा था। वजह साफ है कि सीटों के नंबर के हिसाब से यह राज्य उत्तर प्रदेश के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है जहां अगर एनडीए को झटका लगा तो केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए परेशानी बढ़ जाएगी। उत्तर प्रदेश में 80 सीटें हैं तो महाराष्ट्र में 48 सीटें हैं।

मोदी की लहर के साथ ही 2014 और 2019 में बीजेपी ने अविभाजित शिवसेना के साथ मिलकर 48 में से 41 सीटों पर कब्जा कर लिया था। अब परिस्थिति बदली हुई है। परिस्थिति बदलने में बीजेपी की ही भूमिका रही है। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए उसने शिवसेना और एनसीपी को तोड़ दिया है। मगर यह माना जा रहा है कि टूटी हुई शिवसेना और एनसीपी को जिस तरह से सहानुभूति की खाद मिली है उससे बीजेपी को बड़ी चुनौती भी मिली है। इस चुनौती का सामना करने के लिए बीजेपी ने अपने ऐसे चुनावी प्रबंधन का इस्तेमाल किया जो महाराष्ट्र की संस्कृति से मेल नहीं खाता है। इसलिए दोनों गठबंधनों के दांव-पेंच बड़े रोमांचक रहे हैं। इसमें किसी एक गठबंधन को सुपर नहीं माना जा सकता है।

राजनीतिक पंडित भी जीत के आंकड़ों पर बहुत ज्यादा मुखर नहीं हैं। यह तो सबको पता है कि शिवसेना और एनसीपी को तोड़ने के बाद बीजेपी ने किस तरह से उद्धव ठाकरे और शरद पवार के मनोबल को तोड़ने का काम किया। शिवसेना के अलग गुट के एकनाथ शिंदे ने उद्धव पर लगातार हमला किया और उन्हें सत्ता के लिए बाला साहेब ठाकरे के विचारों को छोड़ने का आरोप लगाया। उधर एनसीपी के अलग गुट के अजित पवार ने भी 83 साल के अपने चाचा शरद को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कहा तो यही जाता है कि अजित की वजह से पार्टी तो बंटी ही, पवार परिवार भी बंट गया है जो महाराष्ट्र के इतिहास में पहली घटना है।

अब सारी रणनीति सत्ता के लिए ही रची गई तो इसमें शिंदे और अजित खुद को बेदाग ही बताते रहे जबकि उनके साथ दागी नेता ज्यादा हैं। लेकिन इस रणनीति के जवाब में उद्धव और शरद ने खुद को कहीं भी कमजोर रहने नहीं दिया और अपने कुनबे को मजबूत करने में जुटे रहे। ये दोनों चुनावी मैदान में खुद को फिर से खड़े होने की मुद्रा में जिस तरह से दिखे उससे बीजेपी के लिए ये खतरनाक लगने लगे। तब बीजेपी ने इनके खिलाफ साम दंड भेद की रणनीति अपना ली। हमले तेज हुए तो अपनी जनता सेना के साथ उद्धव और शरद ने अपने रथ को विजयरथ में तब्दील करने के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी। परिस्थिति और स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि दोनों गठबंधनों ने तू डाल डाल मैं पात पात का दृश्य पैदा कर दिया।अब फिर से उन मुद्दों को जानना जरूरी है जो चुनाव प्रचार के दौरान उठते और गिरते रहे हैं। कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव गुट) और एनसीपी (शरद गुट) इंडिया-महा विकास आघाड़ी में एकजुट रहे। इस आघाडी ने लोकतंत्र और संविधान को बचाने का मुद्दा जोर शोर से उठाया। यह मुद्दा कामयाब रहा जिसे जनता ने स्वीकार भी किया।

इसके अलावा आघाडी बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दों से युवाओं, आदिवासियों और किसानों को भी अपनी ओर खींचने में सफल रहा। मोदी के कट्टर हिंदुत्व के जवाब में उद्धव अपने नरम हिंदुत्व से मुसलमानों के दिलों में बैठ गए। शरद ने इस चुनावी इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा कि जज्बा बुलंद हो तो मैदान में उम्र भी एक बड़ी ताकत बन जाती है। इस बूढ़े शेर की दहाड़ ने मोदी जैसे नेता को भी विचलित करने की कोशिश की। तभी तो मोदी ने शरद को भटकती आत्मा तक कह दिया। इसका जवाब भी शरद ने बड़े सुंदर तरीके से दिया, कहा हां, मैं हूं किसानों के लिए, खुद के स्वार्थ के लिए नहीं। मैं अपने किसानों का दर्द बताने के लिए भटकता हूं। महंगाई से आम आदमी परेशान है, ये बताने के लिए मैं भटकता हूं। शरद ने अपने इस जवाब से चुनावी राजनीति में अलग मुकाम भी हासिल किया। अब देखिए, अजित गुट के मंत्री दिलीप वलसे पाटिल और छगन भुजबल कहने लगे कि शरद पवार और उद्धव ठाकरे के साथ सहानुभूति की लहर है।

यह बात आम जनता तक भी पहुंची और निश्चित रूप से इसका फायदा शरद और उद्धव को मिला होगा। कहा जाता है कि मोदी के हर हमले से फायदा शरद और उद्धव को मिला है। शरद की एनसीपी को नकली और उद्धव की शिवसेना को नकली कहने से भी इनके प्रति सहानुभूति पैदा हुई है। बाला साहेब को मानने वाले शिवसैनिकों को यह भी बुरा लगा कि मोदी ने उद्धव को बाला साहेब का नकली पुत्र कहा। अब ऐसे शिवसैनिकों ने ईवीएम मशीन में ही अपना जवाब डाला होगा। मोदी ने एक और चाल चली यह कहकर कि कांग्रेस में मरने से अच्छा है कि उद्धव शिंदे के साथ और शरद अजित के साथ हो लें। हालांकि, राजनीतिक पंडितों को इसमें कमजोर मोदी दिखे और यह संकेत भी मिले कि महाराष्ट्र मोदी को 2014 और 2029 की तरह स्वीकार नहीं कर रहा है।

इस लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र बहुत कुछ कहने जा रहा है। अगर बदलती राजनीति के साथ महाराष्ट्र का मूड भी बदल रहा है तब तो मोदी के लिए यह राज्य अपना हो सकता है। लेकिन, अगर अपनी संस्कृति के साथ महाराष्ट्र जुड़ा रहता है तो इस राज्य से मोदी को बहुत बड़ा झटका भी मिल सकता है। यह आभास तो एनडीए को लगा ही होगा। तभी तो मोदी ने यहां लगभग 18 रैलियां की और एक रोड शो मुंबई में किया जो विवादित रहा है यानी जिस घाटकोपर इलाके में रोड शो किया गया वहां होर्डिंग दुर्घटना में एक दर्जन लोगों की जान गई थी और मोदी ने उनके प्रति संवेदना भी जाहिर नहीं की। अब उनके सबसे खास उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 115 सभाएं की। फडणवीस के ज्यादा से ज्यादा सभा करने से बीजेपी के दूसरे नेता नाराज हैं कि फडणवीस ने उन्हें कमजोर दिखाने की कोशिश की।

बीजेपी ने जातीय समीकरण को भी बिगाड़ा है। इससे मराठा और ओबीसी आमने-सामने थे। इसका खामियाजा खुद बीजेपी को ही भुगतना पड़ रहा है। एनडीए-महायुति के घटक दलों में भी विश्वास की कमी थी। इसलिए यह माना जा रहा है कि बीजेपी, शिंदे गुट की शिवसेना और अजित गुट की एनसीपी के नेता एक-दूसरे के उम्मीदवारों को कमजोर करने की कोशिश की। अब तो शिंदे गुट के नेता खुले तौर पर अजित गुट पर मदद नहीं करने का आरोप लगा रहे हैं। अजित गुट भी यह मंथन कर रहा है कि शिंदे गुट और बीजेपी के नेताओं ने उसे कहां-कहां नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है। इस तरह के छल-प्रपंच का खेल चलता रहा है। लेकिन इंडिया-महा विकास आघाडी इससे बचा रहा है।

आखिरी चरण के मतदान तक जिस तरह के राजनीतिक खेल खेले गए उसके बाद संभावित नतीजों के जो ग्राफ उभर कर आ रहे हैं उसमें बीजेपी की स्थिति पतली दिख रही है। ऐसा कहा जा रहा है कि बीजेपी के लिए 2019 को दोहराना मुश्किल है। शिंदे के बारे में कहा जा रहा है कि वह अपनी मौजूदगी दर्ज तो करा लेंगे लेकिन अजित अपना खाता नहीं खोल पाएंगे। उद्धव की शिवसेना मजबूत स्थिति में है तो शरद की एनसीपी और कांग्रेस को बढ़त मिलती दिख रही है। अगर सच में नतीजों की यही स्थिति रहती है तो इन सभी दलों को अगले विधानसभा चुनाव के लिए भी नए सिरे से मंथन करने की जरूरत पड़ेगी।