मी लार्ड , पार्टियों के  हिसाब पर अभिनन्दन , चार्जशीट नेताओं पर प्रतिबन्ध कब ?

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मी लार्ड , पार्टियों के  हिसाब पर अभिनन्दन , चार्जशीट नेताओं पर प्रतिबन्ध कब ?

आलोक मेहता

देश की सर्वोच्च अदालत ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया है। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने पिछले पांच सालों के चंदे का हिसाब-किताब भी मांग लिया है। अब निर्वाचन  आयोग को बताना होगा कि पिछले पांच साल में किस पार्टी को किसने कितना चंदा दिया है। सूचना के अधिकार और पारदर्शिता के प्रबल समर्थक पत्रकार होने के नाते इस ऐतिहासिक निर्णय पर मी लार्ड यानी सर्वोच्च न्यायाधीशों का अभिनन्दन ही कर सकते हैं।  इससे सत्तारूढ़ या प्रतिपक्ष के राजनैतिक दलों या चुनावी चंदे के नाम पर लाखों करोड़ों रूपये चंदा देने वालों को होने वाले दर्द या ख़ुशी पर लगातार चर्चा होती रहेगी।  लेकिन इसके साथ ही चुनावों में धन बल और बाहुबल पर कड़े अंकुश के लिए हो रही पुकार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक कड़े निर्णय का अनुरोध और प्रतीक्षा बनी हुई है।

 पहली बात यह कि सुप्रीम कोर्ट के ताजे निर्णय पर स्वागत के बावजूद संभव है कि इसकी पुनर्समीक्षा के लिए आने वाले दिनों में कोई अपील भी हो जाए।  हाँ समय सीमा तय होने से अच्छा है कि पार्टियों और दानदाता कंपनियों का हिसाब किताब सार्वजनिक हो जाए।  वह लोक सभा चुनाव में गंभीर मुद्दा भी बन सकता है।  लेकिन क्या सचमुच इससे अधिकांश मतदाताओं पर असर पड़ेगा ? नेता और पार्टियों के पुराने या नए वायदों और सामान्य लोगों को होने वाले लाभ हानि को देखते हुए लोग वोट देते हैं।  हाँ एक वर्ग विचारधारा और पूंजीवाद से नाराज रहने के कारण किसी दल विशेष या निर्दलीय को पसंद नापसंद कर सकता है।  लेकिन पिछले पचास वर्षों का मेरा अनुभव यह है कि उदारीकरण से पहले भी बड़े पूंजीपति या प्रादेशिक स्थानीय उद्योगपति अथवा व्यापारी पार्टियों या उम्मीदवारों को नगद या चेक से धन देते थे।  इलाके के लोगों को भी अंदाज रहता था कि कौन सहायता कर रहा है।  राजनैतिक दलों के कोषाध्यक्ष बहुत ईमानदारी से पार्टी का काम मुंशी की तरह करते थे। पिछले वर्षों के दौरान चुनावी  उम्मीदवार  अपनी संपत्ति का विवरण भी चुनाव आयोग को देने के साथ सार्वजनिक रूप से घोषित कर रहे हैं।  लेकिन इससे करोड़ों रूपये बहाने वाले नेताओं की संख्या विधान सभा  , लोक सभा ही नहीं नगर निगम पालिका तक कम होने के बजाय बढ़ती गई है।  इसी तरह बांड्स नहीं होने पर पुरानी व्यवस्था  की तरह नगद , चेक या समर्थकों के नाम से चुनाव या पार्टी का खर्च करते रह सकते हैं।

इसी तरह  लोक सभा में भी आपराधिक मामलों से जुड़े सांसदों की संख्या कम नहीं है |तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक  निर्णय में पार्टियों से कहा था कि  राजनैतिक दल  दागी उम्मीदवार खड़े करने के कारण स्पष्ट करें | वर्षों से चल रही बहस और अदालती निर्देशों के बावजूद लोक सभा में दागी यानी आपराधिक रिकॉर्ड वाले सांसदों की संख्या बढ़ती चली गई है | 2004 में दागी प्रतिनिधियों की संख्या 24 प्रतिशत थी , जो 2009 में 30 प्रतिशत , 2014 में 34 प्रतिशत और  2019 के लोक सभा चुनाव के बाद 43 प्रतिशत हो गई |सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने  ने सितम्बर 2018 को एक फैसले में निर्देश दिया था कि दागी उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रमुखता से सार्वजानिक करें , ताकि जनता को जानकारी रहे , लेकिन नेताओं ने अब तक इसे ठीक से नहीं अपनाया | इसलिए अब कोर्ट ने फिर से निर्देश दिए हैं | इसमें कोई शक नहीं कि  राजनीतिक कार्यकर्त्ता पर कुछ मामले आंदोलन अथवा पूर्वाग्रह के हो सकते हैं , लेकिन अनेकानेक गंभीर मामलों में सबूतों के साथ चार्जशीट होने पर तो नेता और पार्टियों को कोई शर्म महसूस होनी चाहिए |

राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों और धनपतियों का सहयोग लेते थे | धीरे धीरे दबंग और धनपतियों को स्वयं सत्ता में आने का मोह हो गया | अधिकांश पार्टियों को यह मज़बूरी महसूस होने लगी | पराकाष्टा यहाँ तक हो गई कि नरसिंह राव के सत्ता कल में एक बहुत विवादस्पद दबंग नेता को राज्य सभा में नामांकन तक कर दिया गया | ऐसे दादागिरी वाले नेता येन केन प्रकारेण किसी न किसी दल से चुनकर राज्य सभा  तक पहुंच जाते हैं |  दुनिया के किसी अन्य लोकतान्त्रिक देश में इतनी बुरी स्थिति नहीं मिलेगी | कुछ अफ़्रीकी देशों में अवश्य ऐसी शिकायतें मिल सकती हैं , लेकिन दुनिया तो भारत को आदर्श रूप में देखना चाहती है | इस सन्दर्भ में हर लोक सभा या विधान सभा चुनाव में इवीएम  मशीनों को लेकर न केवल कुछ पार्टियां और नेता संदेह पैदा करने की कोशिश करने लगे हैं | यदि वे विजयी हो रहे होते हैं , तो उन्हें मशीन ठीक लगती है और पराजय की हालत में मशीन में गड़बड़ी , हेराफेरी के आरोप लग जाते हैं | यहां तक की मीडिया में कुछ विशेषज्ञ या पत्रकार भी शंका करते हैं | यह बेहद दुखद स्थिति है, क्योकि इससे गरीब , कम शिक्षित मतदाता ही नहीं शहरी लोग भी मतदान को अनावश्यक और गलत समझने लगते हैं | जबकि तकनीकी पुष्टि देश के नामी आई टी  विशेषज्ञ कर रहे हैं | चुनाव सुधार अभियान के दौरान ऐसी अफवाहों पर अंकुश के लिए भी कोई नियम कानून बनना चाहिए | वैसे भी किसी चुनाव को अदालत में चुनौती का प्रावधान है | लोकतंत्र में आस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए व्यापक चुनाव सुधार और एक देश एक चुनाव के विचार पर जल्द ही सर्वदलीय सहमति से निर्णय होना चाहिए |

चुनाव आयोग ने तो बहुत पहले यही सिफारिश कांग्रेस राज के दौरान की थी कि चार्जशीट होने के बाद उम्मीदवार नहीं बन पाने का कानून बना दिया जाये , लेकिन ऐसी अनेक सिफारिशें सरकारों और संसदीय समितियों के समक्ष लटकी हुई हैं | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सांसदों – मंत्रियों आदि पर विचाराधीन मामलों के लिए अलग से अदालतों के प्रावधान और फैसले का आग्रह भी किया , लेकिन अदालतों के पास शायद   पर्याप्त जज ही नहीं हैं और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों के नेता भी इस तरह के अंकुश से बचने की कोशिश कर रहे हैं | असल में इसके लिए सरकार , संसद और सर्वोच्च अदालत ही पूरी गंभीरता से निर्णय लागू कर सकती हैं |

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।