अब पता चलेगा आटा-दाल का भाव (Price of Flour and Pulses) …

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अब पता चलेगा आटा-दाल का भाव (Price of Flour and Pulses) …
केंद्र सरकार के फैसले के बाद घरेलू खाद्य सामग्री और अस्पतालों में पांच हजार से ज्यादा किराए के बैड पर पांच फीसदी जीएसटी लगने के बाद आम आदमी को ब्रांडेड आटा-दाल और सेहत का भाव अब पता चलने वाला है। समस्या यह है कि यह भार ज्यादातर घरेलू उपभोक्ताओं के कंधों को ही चोट पहुंचाने वाला है। निम्न-मध्य मध्यम आय वर्ग के उपभोक्ता इस फैसले का सीधा शिकार होने वाले हैं। हालांकि सरकार के पास कहने को बहुत कुछ है। गरीबों को राशन लगभग मुफ्त में मुहैया कराया जा रहा है, जो असली वोट बैंक है। पर दही-लस्सी, पनीर से तो इन्हें भी दूरी बनानी ही पड़ेगी, जो मुंह का स्वाद खट्टा करने के लिए काफी है। या तो केंद्र की भाजपा सरकार को तीन कृषि कानूनों की तरह इस फैसले पर भी पुनर्विचार करना पड़ेगा, अन्यथा आक्रोश का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। पर ऐसा फैसला करने के पीछे मोदी के थिंक टैंक की सोच क्या हो सकती है? इस सोच का छोर पकड़ना बड़ी चुनौती है। ठीक उसी तरह जैसे कोई यह पता नहीं लगा पाया कि महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कौन बैठने वाला है?
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आखिर सरकार जिन मामलों में कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने में कभी पीछे नहीं रही, सत्ता में आने पर उन्हीं मुद्दों को पकड़कर दौड़ लगाकर मैडल हासिल करने जैसा व्यवहार आखिर क्यों कर रही है? गैस के दामों में बढ़ोतरी पर आक्रोश जताया गया, तब भी चुनाव परिणामों पर कोई असर नहीं हुआ। पेट्रोल-डीजल के दामों ने नाक में दम किया, तब भी चुनाव परिणामों पर कोई असर नहीं हुआ। क्या इसी का परिणाम है कि अब बात आटा-दाल और दही-लस्सी तक जा पहुंची। यह परीक्षा आम आदमी की है या हिंदुत्व को कसौटी पर अंतिम छोर तक परखा जा रहा है। वैसे जेहन में अभी तक समाया है कि पांच साल पहले गुजरात में चुनाव थे, उससे पहले सरकार ने जीएसटी लगाकर कारोबारियों की अग्निपरीक्षा ली थी। मजे की बात है कि उसमें केंद्र की भाजपा सरकार सौ टका खरा साबित हुई थी। अब एक बार फिर गुजरात विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, तो सरकार आटा-दाल, दही-लस्सी के जरिए फिर एक बार मतदाताओं के मन-मस्तिष्क को परिणाम की कसौटी पर परखने को तैयार है। शायद सरकार ने मान लिया है कि गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले इस तरह के फैसले शुभंकर का कार्य करते हैं। पर दोनों में अंतर यह है कि पिछला फैसला कारोबारियों तक सीमित था, तो इस बार का फैसला आम आदमी की जद तक पैर पसारे हुए है। ऐसे में स्थितियां तब ज्यादा विषम हैं, जबकि आम आदमी पार्टी हर राज्य में या तो विकल्प बनने या फिर सत्ता हथियाने को तैयार खड़ी है। पर बात फिर वही कि देश के मोदी के मन में आखिर चल क्या रहा है?
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ऐसे फैसलों का बचाव इस तरह की दलीलों से करना कतई हजम नहीं होता कि राज्यों की कांग्रेसी सरकारों की खामियों को आड़े हाथों लेकर अपने फैसलों पर गर्व किया जाए। यह जनता है, जो सब जानती है। शहरों में गेहूं खरीदकर आटा पिसाने की फुरसत शायद निम्न-मध्य मध्यमवर्गीय परिवारों को नहीं है। इसीलिए अलग-अलग ब्रांड के पैक्ड आटा की बिक्री फल-फूल रही है। और सरकार के ऐसे फैसलों के बाद भी लाख कोशिश करने पर भी घर के खर्च के बोझों को ढोने के लिए कोल्हू के बैलों की तरह काम में लगे पति-पत्नी आखिरकार इस बोझ को ढोने के लिए भी मजबूर होंगे। पच्चीस किलो आटा खरीदने पर पच्चीस-पचास रुपए प्रति महीने ज्यादा देकर इसकी भरपाई दूसरी जगह कटौती कर करेंगे।पर सरकार के ऐसे फैसले उन्हें आहत तो जरूर करेंगे। समस्या यह है कि इस तरह के फैसलों के बाद भी वैचारिक तौर पर दल विशेष से संबद्ध मतदाता आखिर कब तक समझौता करता रहेगा? एक न एक दिन तो आक्रोश पनपेगा ही।

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मध्यप्रदेश में गांधीवादी विचारक पूर्व प्रिंसिपल चीफ कमिश्नर इनकम टैक्स आरके पालीवाल ने लिखा है कि अंग्रेजों ने नमक पर टैक्स लगाया था, तो गांधी ने दांडी मार्च कर हुकूमत को हिला दिया था। वहीं तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसानों का दिल्ली मार्च और केंद्र की मोदी सरकार को दो कदम पीछे हटने को मजबूर करने का वाकया तो सभी को याद है ही। अब कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाली भाजपा के लिए यह कठिन परीक्षा की घड़ी इसलिए भी है, क्योंकि आम आदमी पार्टी अब एक से दो राज्यों में पैर फैलाने के बाद जहां मौका मिले उस स्थान पर काबिज होने के लिए पूरी तरह लालायित है। ऐसे में कोरोना काल में समस्याओं से ग्रस्त होकर टूटने की कगार पर पहुंच चुके आम आदमी की आर्थिक सेहत, शारीरिक-मानसिक सेहत का ख्याल करने की अहम जिम्मेदारी सरकार की है। यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता कि यह फैसला जीएसटी काउंसिल का है। जब बिना इच्छा के पत्ता न हिल रहा हो, ऐसे में इस तरह के तर्क हास-परिहास की श्रेणी में आ जाते हैं। और हास-परिहास सीमा को पार करने लगे, तो आक्रोश और हाथापाई तक पहुंचने में देर नहीं लगती। ऐसे में आम जनता की थाली और सेहत पर आर्थिक बोझ डालने के फैसले फीलबैड कराने वाले साबित हो सकते हैं। यदि आम आदमी को आटा-दाल का भाव पता चलेगा, तो मतदाता के रूप में उसका भाव बदलते भी देर नहीं लगेगी। फिर भले ही उसे देशद्रोह का कलंक माथे पर चस्पा करने को मजबूर क्यों न होना पड़े, लेकिन सत्ताधारी दल को भी आटा-दाल की कीमत चुकानी पड़ सकती है।