बादल राग: डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृति विद् एवं लोक साहित्यकार

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बादल राग: डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृति विद् एवं लोक साहित्यकार

 

देखते ही देखते नीला आसमान काले-कजरारे मेघों से ठसा-ठस भर गया। जीवन अपनी सामान्य रफ़्तार से चल रहा है। गाड़ियाँ दौड़ रही हैं, लोग भाग रहे हैं, किसी को भी एक क्षण की भी फ़ुर्सत नहीं, कि वह बादलों का मेला, बिजली का खेला और आसमान की रौनक देख ले। मुझे लगा, जन-मन के इस निर्मोही व्यवहार से बादलों को कैसा लग रहा होगा। मेरे मन में ऐसा प्रश्न खड़ा हुआ, ‘‘बादल क्या सोच रहे होंगे?’’बादल सोच रहे होंगे, ‘‘हमें क्या? हम इतने दिनों बाद आए हैं, बहुत दूर से जल भर कर लाए हैं, फिर भी हमें कोई नहीं देख रहा है, तो हम क्येां बरसें, किसके लिए बरसें? पर, हाँ, बरसना हमारा धर्म है, हमारा कर्म है; किन्तु हमें देखकर प्रसन्न होना भी तो जीव का धर्म है। खेत में एक मात्र टिटहरीटि..टि..टि.. टिटिया रही है। वह भी अपनी टाँगें आसमान की ओर थमा कर लेट गई। कहीं हम टपकेंगे, आसमान गिरेगा, तो वह उन्हें उसके पैरों पर थाम लेगी।’’

कोई देखे या न देखे, पर बरसना तो मेरी नियति ही है। बरसूँ क्यों नहीं?, बरसूँगा तो ज़रूर, क्योंकि बरसना मेरी प्रकृति है, देना मेरा स्वभाव है, देना मेरा गुण है। मेरे न बरसने पर भी लोग चर्चा करते हैं। वे नीचे खड़े होकर ऊपर की ऊँची बातें करते हैं। ‘‘बादल उने तो हैं, पर बरसते नहीं, लगता है, एक तीर मार दें, तो बादल फट जायँ’’, ऐसा कहने वाले बादल, फटने का भाव भी जानते हैं? पानी नीचे गिर पड़े?  कोई कहते हैं,  बादल छाये तो बहुत थे, पर हवा उड़ा ले गई।’’ क्या मैं इतना कमज़ोर हूँ कि मुझे हवा उड़ा कर ले जायगी। मैं पानीदार आदमी हूँ। तेजस्वी सूरज को भी मैं ऐसा ढक देता हूँ कि दिन में रात लगने लगती है। चाँद मेरी बिरादरी का है, इसलिए चाँदनी को ऐसा ढकता हूँ, कि उसका रूप और भी निखर जाय। मेरे बरसने पर भी तो लोग मेरी चर्चा करते हैं। बन्द काँचों की दीवारों वाले दस मंज़िले घर से बूंदों को देखते हैं।

मुझे तो वह टिटहरी दिखाई देती है, जो पंख फैला कर अपने अण्डों पर बैठ जाती है, ताकि वे अण्डे भीग न जायँ। मुझे तो गलियों के वे नंग-धड़ंग बच्चे दिखाई देते हैं, जो आनंद में गाते हैं, पानी में भीगते हैं, नाचते हैं, कीचड़ में लोट लगाते हैं और फिर भीग कर अपने शरीर में लगी मिट्टी को छुड़ाते हैं। कहाँ गए वे बच्चे, जो ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला-चिल्ला कर बादलों को देखते हैं, ऊपर आँखें कर, हाथ फैलाकर मुझसे पानी माँगते हैं … गाते हैं –

पाणी बाबा आवरेऽ

काकड़ी भुट्टा लावऽरेऽ       

खूब गरजो गड़मऽधड़मऽ

नऽ खूब बरसो भड़मऽभड़मऽ....

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मैं कहाँ बरसूँ? वह आजी माँय भी मुझे नहीं दिखाई देती, जो घर के पिछवाड़े के आँगन में अपनी बहुओं के साथ खूब भीगती थी और सबसे कहती थी, ‘‘पहली फुवार, पयला पाणी मंऽ नहाओ तो शरीर का फोड़ा फुंसी दूर हुई जाय, अरु काया निरोगी हुई जायगी।’’ अब तो कोई ऐसा नहीं बोलता, अब सुनाई देता है, ‘‘पानी में भीगोगे तो बीमार हो जाओगे, इन्फेक्शन हो जायगा।’’ अब बरसती बूँदों में किशोर कबड्डी खेलते नहीं दीखते। आमने-सामने खड़े होकर एक दूसरे के हाथ पकड़कर किशोरियाँ पानी में भीगती हुई फुगड़ी खेलते हुए, गाती हुईं नहीं दिखाई देती हैं। वे गाती थीं –

पाणी का पड़ी गया छाटाऽ

स्वामी तुम गाड़ी आओ काटाऽ

मेरऽमंऽलगई आओ सराटाऽ

वाड़ी में वाई आओ वाड़ साटा

स्वामी तुम गाड़ी आओ काटाऽ

गन्ने की नई किस्म लगाएं, सूखे और बाढ़ में भी नहीं बर्बाद होगी फसल

भावार्थ: हे स्वामी, पानी के छींटे बरस रहे हैं। तुम खेत में बागड़ के लिए काँटे गाड़ आओ। मेड़ में सराटा अर्थात् लम्बी घास लगा आओ। बाड़ी में तुम गन्नों का बाड़ रोप आओ।

मुझे भी गीत बहुत पसन्द हैं। मैं भी स्वर में बरसता हूँ। मैं गीतों की राग रागिनियों को गाता हुआ बरसता हूँ। जो नहीं जानते, वे मेरे संगीतमय बरसने को कहते हैं, ‘बादल गड़ गड़ गरज रहे हैं’; किन्तु ज्ञानी मानी लोग मेरी गम्भीर गरजना को घननाद कहते हैं। मेरे पास भी ढोल-ढमाके हैं। मैं भी वाद्य के साथ बरसता हूँ। संगीत शास्त्रियों ने मेरे बरसने की स्वर शैली पर राग-रागिनियों के नाम करण कर दिए हैं, कोई मेघ राग, कोई बादल राग, तो कोई मल्हार राग आदि से जानते हैं। ये सब राग रागनियाँ मेरी गिरती बूँदों के सुरों से जन्मी हैं। फर-फर बरसता हूँ, फुर-फुर बरसता हूँ, सर-सर बरसता हूँ, झड़ाके से बरसता हूँ, धड़-धड़ बरसता हूँ, झम झम बरसता हूँ, रसधार बरसता हूँ, झड़ झड़ बरसता हूँ, मूसलाधार बरसता हूँ, दग्गड़ फोड़ बरसता हूँ, तो कई दिनों की झड़ी लगा देता हूँ।

मेरी बूँदें स्वयं स्वर संगीत को जन्म देती हैं। ज़मीन माटी पर गिरता हूँ, बरसता हूँ, तो थप-थप की शब्द रचना को जन्म देता हूँ, कवेलू के घर पर बरसता हूँ, तो टप टप की ध्वनि निकालता हूँ, टीन की छत पर गिरता हूँ, तो टन-टन की शब्दावली को जन्म देता हूँ, पेड़ के पत्तों पर गिरता हूँ, तो बद-बद की आवाज़ जन्म लेती है। खुले मैदानों में गिरता हूँ, तो हवा के साथ सनन-सनन-सनन सर-सर-सर, भनन-भनन-भनन की आवाज़ करता हूँ। रात के सूने में बरसता हूँ, तो कलेजा कंपा देने वाली साँय-साँय की भयावनी ध्वनि को जन्म देता हूँ । मेरे श्याम वर्ण पर कड़कती चमकती विद्युल्लता कभी तो सबके मन को आनंदित करती है और कभी अंधेरी रात में सबकोभयाक्रांत कर जाती है।

वे बच्चे मुझे बहुत भाते हैं, जो मेरी बरसती इस धार से नया ही संगीत उपजा लेते हैं। वे दोनों कानों पर एक-एक हथेली रखकर तेजी से दबाते हैं, उठाते हैं, फिर हलके से खोले लेते हैं, फिर दबाकर कान बन्द कर लेते हैं, फिर खोल लेते हैं, इस खेल में उन्हें मेरे बरसने की एक अलग ही संगीत रसानुभूति होती है। उनका यह आनन्द मुझे गुदगुदा जाता है।

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लोग मुझे बरसने की रीति सिखाते हैं। मैं ज्ञानी-मानी और परहेज़ी लोगों के लिए नहीं बरसता, जो कहते हैं, ‘रेनरेनगोअवे..।’’ मैं तो उनके लिए बरसता हूँ, जिनको मेरी चाहत है, मेरे बरसने पर हर्षित होते हैं, जो मेरे पानी को ओक में भर कर सिर से लगा लेते हैं। फिर मेरी बूँदों से ओक भर मुझे प्रणाम कर मेरे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। मुँह खोलकर, मुँह ऊपर कर, मेरी गिरती बूँदों को सीधे मुँह में लेते हैं और गले से उतारकर उसे हृदय से आत्मसात् कर लेते हैं। मैं तो उनके लिए बरसता हूँ, जो खेतों में भीगते-भीगते घुटने-घुटने जल में खड़े रहकर भी मुझसे अरज करते हैं –

खूब बरसो वादरया

भरी देवोनाळाखोदरया

अर्थात् बादलों खूब बरसो और नाले तथा खोह भर दो।

मैं उनके लिए बरसता हूँ, जिनके खुले आँगन का चूल्हा सिंध (खजूर) और पलाश के पत्तों से ढका है। घरमा के चूल्हे का धुआँ कवेलू से निकलता है। उसमें मुझे महुवासिकने की मीठी खुशबू आती है। जो गाते हैं, जो गुनगुनाते हैं – ‘बरसो राम धड़ाके से, दूर करो सब फाके से।’

मुझे मालूम है, मुझे कैसा बरसना है। आषाढ़ में मैं खूब बड़ी-बड़ी बूँदों के साथ तेज बरसता हूँ। सब कहते हैं, ‘‘दग्गड़ फोड़ बरसात है।’’ दग्गड़ फोड़ नाम मेरा सही है। गरमी में तपकर धरती पक्की और कठोर हो जाती है। खेतों की माटी भी तो दग्गड़ पत्थर जैसी कठोर हो जाती है। उस पत्थर जैसी माटी को फोड़ूँगा, तब ही तो खेत तर होंगे, बतरआयगी। तेज बूँदे ही तो उस माटी को भिगो कर मुलायम करती हैं। फिर खूब बरस लेता हूँ, मुझे बरसना आता है। जब धरती तर हो चुकती है, तब थोड़ी देर विश्राम ले लेता हूँ। इस अंतराल में किसान अपने-अपने खेतों में बीज बो लेते हैं और उसके अंकुर धरती से निकलकर अपने सिर उठाकर अपना सिर हिलाने लगते हैं। तब तक सावन आ जाता है। हमें सब कहते हैं – ‘सावन का सेरा’। मुझे मालूम है, किसान के खेत को कितना, कब और कैसा पानी चाहिए। मैं वैसा ही बरसता हूँ। फसल छोटी-छोटी हैं, तेज बूँदें फसल की जड़ें कैसे सहन कर सकती हैं, इसीलिए मैं थोड़ा-थोड़ा और धीरे-धीरे रुक-रुक कर बरसता हूँ, रिमझिम रिमझिमफवारों के नाम से बरसता हूँ। कभी धूप, कभी फुवार, यह है वर्षा ऋतु का सरस सलोना महिना सावन। घाम और बरसते पानी को एक साथ देखकर बच्चे गाते हैं-

मुझे भी सब कुछ बहुत आनन्दित करता है उन युवतियों का झूलना और बाज़ार हाट से अपने भाइयों के लिए रखेणा, राखी आदि लाने जाना। जब उनकी पचरंग चुनरियों पर पानी की फुवार बरसती है, तो वे एक दूसरे के साथ हँसी-ठिठौली करते अपने आँचल से जल फटक देती हैं, आँचल निचोड़ लेती हैं, तब उनका वह लावण्यमयी रूप, उनका यौवन मैं ही देख पाता हूँ।

मुझे बरसना आता है। अब तक भादव में तो तीस दिनी फसलें जड़ों से मजबूत हो जाती हैं। धरती को जकड़ कर पकड़ लेती हैं। मैं जानता हूँ, अब तो धरती को खूब पानी चाहिए। इतना पानी चाहिए कि धरती की ऊष्णता शांत हो जाय और जल भंडारण होने लगे। तभी कहावत कहते हैं-

मघा को वरसणू

नऽमाँयऽ को परसणूऽ/अर्थात् मघा नक्षत्र का बरसा पानी धरती को इतना तृप्त करता है, जितना कि माँ द्वारा ममता से परोसा गया भोजन।

अब कोई कितना ही कहता रहे, ‘मत बरसो’, पर मुझे तो बरसना ही है, मैं जानता हूँ अब नहीं बरसूँगा, तो कब बरसूँगा, भादव का बरसना ही तो धरती से जल सोतांे को जन्म देगा। जब धरती के पास होगा, तब ही तो वह देगी। नदी नाले उफनने लगे। मैंने झड़ी लगा दी, आठ-आठ दस-दस दिन की। मुझे लौटाना है जल समुद्र को, मैं खूब जानता हूँ, मुझे जिसने दिया है, मैं उसका ऋणी हूँ। मुझे समुद्र से उऋण होना है। नदी-नाले जल भर-भर कर दौड़ पड़ते हैं समुद्र की ओर। मुझे बरसना है उन दादुर-मोर-पपीहे के लिए, जो मुझे देखकर झूम-उठते हैं, ठुमक उठते हैं, कूक उठते हैं। मैं बरसूँ या न बरसूँ, आसमान में मेरी उपस्थिति भर से ही उनके स्वरों में मंगलगान होने लगता है, इसीलिए मैं जंगलों में बहुत बरसता हूँ। वे बड़े-बड़े विशाल वृक्ष, गगन-चुंबी इमारतों की तुलना में संत-से, साधक-से खड़े हो मेरे चरण पकड़ लेते हैं रुकने को, और मैं सुधारस धार से उन्हें भिगो देता हूँ, उनका अभिषेक कर देता हूँ।

मुझे बरसना है फसल की उम्र देखकर, किसान का रुख देखकर। क्वार आ गया, फसलों में दूध भर गया, अब उन्हें थोड़ा पानी और तेज घाम चाहिये। अब मैं उतना ही बरसता हूँ जितना फसल और बीज को जल चाहिए, फिर मैं चला जाऊँगा आसमान छोड़ कर। सूरज पका देगा फसल। छोड़ जाऊँगा आसमान पर एक सतरंगीइन्द धनुष। बच्चे जिसे देखकर कूदेंगे, खुश होंगे, नाचेंगे। बड़े कहेंगे इन्द्रधनुष को उँगली मत बताओ, नहीं तो वह नाराज़ हो जायगा और उँगली गल जायगी।

मुझे बरसने की रीति मालूम है। मैं खुश हूँ ’रीत’ कर भी। मेरे रीतने से धरती पर अन्न-जल के भण्डारण हो गए। मुझे परोक्ष रूप से दिया समुद्र ने जल, उसे मैंने लौटा दिया। मैं पुनः आऊँगा। मै संतान हूँ सविता और सिंधु के दिव्य मिलन की। मुझे तो बरसना है। कोई मुझे बादल कहता है, कोई मेघ कहता है, और कोई मुझे बदरा कहता है। ये तो सब साहित्य मनीषियों की बातें हैं। मैं तो निराकर हूँ, मैं शून्य हूँ, बरस कर, देकर फिर शून्य हो जाता हूँ। दृश्य होकर भी अदृश्य रहता हूँ। अदृश्य रहकर भी दृश्यवान होता रहता हूँ। लोक का दिया शब्द ’बदरा’ ही मुझे भाता है। मैं खुश होकर बरसता हूँ जब कोई गाता है – ‘बदरा बरसो रे, झिर-मिर-झिर-मिर बरसात…।

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डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृति विद् एवं लोक साहित्यकार