37.In Memory of My Father: पिता ने ही निभाया माता का भी कर्तव्य

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मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 37th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है इंदौर की लेखिका सुषमा व्यास ‘पारिजात’ को.सुषमा का लेखन सफर 1978 में मनोरमा पत्रिका से शुरू हुआ।उनकी रचनाएं नई दुनिया, दैनिक भास्कर, गृहशोभा,मेरी सहेली,कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।उनके पिता का जीवन संघर्ष आम व्यक्ति से थोडा ज्यादा कठिन था पत्नी जीवन की मझधार में चार बच्चों के साथ उनसे एक वादा लेकर.स्व.सदाशिव जोशी जी ने अकेले ही चार बच्चों का पालन पोषण किया. उनके संघर्ष को उनकी बेटी ने उनके जीवन को उनकी ही आत्मकथ्य की शैली में लिखा है.सुषमा की नजर से यही “बाबू साब की  तपस्या” थी. यही उनकी भावांजलि है …..

पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है

पिता उंगली पकड़े बच्चे का सहारा है
पिता कभी कुछ खट्टा, कभी खारा है

पिता पालन है, पोषण है, पारिवार का अनुशासन है
पिता धौंस से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है

पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है -ओम  व्यास 

37.In Memory of My Father: पिता ने ही निभाया माता का भी कर्तव्य

“अंतिम सांस लेते हुए तुमने जो वादा लिया था वह मैंने पूरे तन-मन-धन से निभाया है।”
तुम्हारे आखिरी शब्द मेरे लिए संबल का काम करते रहे हैं। तुम्हारा प्रश्न था, “मेरे चारों बच्चों का ख्याल रख सकोगे? तुम्हारी तो दूसरी शादी हो सकती है, फिर इनका क्या होगा?”

तब मैंने तुम्हें याद दिलाया था कि जब हमारी शादी हुई थी, मेरे घर में चाय तो दूर, चाय पत्ती लाना भी दुश्वार था। तुमने पहली बार पग फेरे के समय अपने पिताजी को यह बात बताई थी। तुम सर दर्द से बेहाल थीं। उन्होंने तुम्हारे साथ डिब्बा भर के चाय-पत्ती भिजवा दी। घर में हंगामा हो गया। दूसरे दिन मैंने तुमसे चाय बनवाकर पी और ऐलान कर दिया था कि चाय मुझे पीनी है, और घर में रोज चाय बनवाने लगा और तुम्हें भागीदार बनाया।

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जीवन में समस्या उतनी ताकतवर नहीं होती जितना हम उन्हें मान लेते हैं। तभी से तुमने मुझ पर विश्वास रखते हुए कड़वी-मीठी परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाए रखा। अपने कर्तव्य पथ पर धैर्यपूर्वक बढ़ते हुए पूरे कुटुंब का दिल जल्द ही जीत लिया।
मैं तुम्हारे बिना बिल्कुल अधूरा होकर भी दूसरी शादी का विचार मन में न आने दूँगा, चाहे परिवार का जितना भी दबाव क्यों न हो। बच्चों का पालन-पोषण स्वयं करूंगा। तुम्हारे जाने के पाँच-छ: माह बाद ही संबंध आना शुरू हो गए। बड़े भाई-भाभियों ने अपनी मजबूरी बतलाते हुए बच्चों की देखभाल में आने वाली तकलीफों का हवाला देते हुए दूसरे विवाह का तकाजा शुरू कर दिया।

छोटा भुरु व उसकी पत्नी इन्हें प्यार देने में कोई कोताही नहीं बरतते थे और खुशी का अनुभव करते थे। बच्चे भी उनके साथ प्रसन्न रहते थे, लेकिन मैंने जीवन का उसूल रखा कि किसी पर भी बोझ नहीं बनना है। कुछ दो-तीन साल तो बड़ी बहन-जीजा जी के यहाँ ऊपर वाले दो कमरों में रहकर काटे, लेकिन जब जीजा जी ने रोज की मानसिक व शारीरिक दिक्कतों को देखकर अंतिम निर्णय शादी का लेने को कहा, तो मैंने शहर छोड़ सबसे दूर जाना ही उचित समझा। तभी तबादला बैतूल हो गया। परिवार जनों का नाराज और दुखी होना लाजिमी था, लेकिन कोई और चारा भी नहीं था।

दूर जाकर भी कभी किसी से मानसिक अलगाव नहीं रहा। पारिवारिक कार्य-कलापों में बच्चों को लेकर इतनी दूर से आना बहुत सरल नहीं था, परंतु कठिन भी नहीं होने दिया कि असमर्थता जाहिर की जाए।

बैतूल में मकान मालिक और उनकी पत्नी, जिन्हें सब “चाची जी” कहते थे, बहुत दबंग थे। पूरा मोहल्ला उनसे डरता था। अपने बच्चों को जो प्यार देकर देखभाल वे करते थे, वह अवर्णनीय है। उनके दो लड़के थे, एक छोटी बिटिया बेबी की ही उम्र की थी। सब पूरी तरह से घुल-मिल गए। सामने एक मराठी परिवार था जिनकी सिर्फ दो बेटियाँ थीं, वे इन चारों की “ताई” ही बन गई थीं।

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तुम्हारे जाने के बाद काम के मामले में जो दिक्कतें स्वाभाविक रूप में आनी थीं, आईं। महिला कामगारों को रखने में मैं बड़ा असमंजस में रहा, अतः पुरुष नौकर-चाकर रखे। बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पहला ही खाना बनाने वाला ऐसा आया जो मेरे ऑफिस जाते ही स्वयं तो खाने में घी आदि का भरपूर उपयोग करता, बच्चों को रूखा-सूखा खिला देता। चूंकि बड़ा प्रकाश इतना तो देख-समझ सकता था, सो उसकी शिकायत को जैसा का तैसा पाया तो दूसरे की खोज शुरू की। इस तरह कई नौकरों के विभिन्न अनुभवों के बाद स्वयं ही रसोई संभालना एकमात्र समाधान था।

दुखी मत होओ, तुम्हारी और मेरी प्यारी बिटिया बेबी (मुझे पिताजी बेबी बुलाते थे) से हम कोई काम नहीं लेते थे। हमने बड़े नाजों से उसे पाला है, बिल्कुल तुम्हारी मंशा अनुसार। जो-जो सपने तुमने उसके लिए देखे थे, वे सब पूरे करने में मैंने और उसके तीनों बड़े भाइयों प्रकाश, नरेन्द्र और कमलेश ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

तुम्हारे तीनों सुपुत्र उसे पिता तुल्य ही रखते थे। प्रकाश व नरेन्द्र का तो सवाल ही नहीं, कमलेश से जरूर कभी-कभार लड़ाई-झगड़ा हो जाता था, बराबरी के जो थे। तब मुझे ही कठोर होना पड़ता था उसके लिए। फिर इल्जाम भी सहना पड़ता था, “बेटी है ना, उसे कुछ नहीं कहते, हमें ही डाँटते हैं आप। काम भी नहीं करवाते हैं उससे, इतनी छोटी भी नहीं है।”

तब मुझे लगा कि सही में उसे भी अब इनका सहयोगी बनना चाहिए। काम बतलाने पर कभी तो वह सुन लेती थी, कभी न करने की जिद पकड़ लेती। सो, एक दिन तीनों भाइयों के भरपूर विरोध के चलते मैंने उसे जोर से डाँट दिया। रात को देखा तो उसे बुखार आ गया था। चाची जी को बुलाया। सामने से आई भी आ गए। ठंडे पानी की पट्टी रखी, कुछ दवाई दी और मुझ पर सब ऐसे बरसे कि फिर कभी हिम्मत नहीं की कठोरता दिखाने की।

भगवान की कृपा से खुद ही सब अच्छा होता चला गया। तुम्हारे आशीर्वाद सबको भली राह पर चलाते रहे।
जिम्मेदारियों के रहते जितना संभव हो पाया, मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी उन्हें संस्कारित करने में। बच्चों के बड़े होने के बाद वापस इंदौर शिफ्ट होना ही ठीक लगा। परिवार से दूर रहना कष्टदायक तो था ही, बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए भी इंदौर आना ही उचित था। इंदौर से कई बार तबादला हो जाता था, लेकिन चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मामा-मामी की छत्रछाया में छोड़कर कुछ समय के लिए बाहर रहता और माह में एक-दो बार आकर पूरी व्यवस्था कर जाता था। चाहे स्वयं चने ही खाकर क्यों न दिन गुजरना पड़े।

बच्चों को भी आत्मनिर्भरता का पाठ कंठस्थ करवा दिया था। इन्हीं दिनों में बच्चों ने दुख-कष्ट और अभाव की अनुभूतियों की उपेक्षा करते हुए संतोष, उल्लास और आनंद का अनुभव करना सर्वोपरि माना।
बिटिया को भी ग्रेजुएट करवा कर ही अच्छे परिवार में ब्याहा है। बस अब जल्दी ही तुम्हारे पास आ रहा हूँ।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
का पालन करते हुए अठारह अप्रैल उन्नीस सौ इक्यानवे को वे परमब्रह्म परमेश्वर की शरण में चले गए। ऐसे थे मेरे पिताजी जिन्हें हम चारों “बाबू साब” कहते थे, जिन्होंने अपने तीन, छह, आठ, और बारह वर्ष के चार बच्चों का अकेले ही “माता-पिता” बनकर कर्तव्य निर्वहन सफलतापूर्वक किया। माँ की कमी कभी हमें महसूस नहीं होने दी। परिवार समाज में भी सदा अपनी उपस्थिति यथा योग्य सहयोग देकर अपना सम्मानित स्थान बनाया और हमें भी संस्कारित किया .

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सुषमा व्यास ‘पारिजात’
A-480,नरीमन सीटी
एम आर 5, सुपर कॉरिडोर
इंदौर, मध्यप्रदेश.
452005.

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