कहानी अंतिम किश्त ; इला न देणी आपणी

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First Episode..

और उसने तुम्हे ढूँढा नहीं?”
“क्या लगता है तुमको बाई, नहीं ढूंढा होगा. पर मैं तो कोसों दूर गोहाटी में जा छुपी थी, मिलती कैसे? तीन साल मैं वहीं रही, कैसे रही या कैसे रहती हूँ ये ना पूछना, फिर वहाँ से दार्जिलिंग चली गई, फिर काठगोदाम, फिर देहरादून. और इसी चक्कर में आज यहाँ, तुम्हारे देस नोहर में बैठी हूँ.”
“अपने माँ-बाप से भी नहीं मिली तुम? और तुम्हारी बिटिया राजराजेश्वरी, वो कहाँ है?”
“मेरे पास कोई राजराजेश्वरी नहीं रहती बाई. नर्मदा, मेरी बेटी, को मैंने दार्जिलिंग के एक क्रिस्तान (मिशनरी) स्कूल में डाल दिया था. आज वो कलकत्ता में कम्पुटर की पढाई कर रही है. वो खुद भी वहां टूशन पढ़ाती है और अपना खर्चा निकाल लेती है. जरूरत हो तो मुकुल भैया से कह के हम पैसा भिजवा देती हैं. उसको मोबाइल दिला रखा है, कभी-कभी मैं ही बात कर लेती हूँ, कभी मिल भी आती हूँ पर उसे कभी नही बुलाती. अम्मा-कक्का तो अब रहे नहीं पर बेटी की कोसिस से ही पांचेक बरस से भाई-भाभी की खबर है मुझे. वो राक्षस अब भी बेटी के लिए मारा-मारा फिरता है, रातों को रोता-चिल्लाता है, दारू के नशे में सिर फोड़ता है, वोही लोग तो बताते हैं मुझे. और सच्ची कहती हूँ बाई, मेरे कलेजे में हर बार एक नई ठंडक पहुंचती है. सुरसती के गाल चांदनी में भी दहक रहे हैं और खिली चांदनी सी शफ्फाक आँखों की चमक में एक आंच सी कौंध रही है. “उसे भी मालूम पड़ रहा है कि माँ-बाप से उसका बच्चा छीन लेना क्या होता है. उसने मेरे माँ-बाप के बच्चों को छीना मैंने उस की बच्ची. उसने मेरे प्रेम को दरबदर किया, मैंने उस के इस रूप को. मेरी ज़िन्दगी उजाड़ के वो भी राज़ी तो नहीं ही रहा.”
“तुम खतरनाक हो भाभी.” मैंने मजाक किया. “लेकिन तुम तो दूसरी शादी भी करने वाली हो न, इस बार अपनी पसंद की. कौन है वो?”
“मानसिंग, मेरा मंगेतर.” सुरसती ने एक और स्केम ओपन किया.
“लेकिन वो तो उसी समय हट गया था न, या वो तुम्हारे साथ ही… ?” ओह, तो ये माज़रा है. मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगा है.
“हाँ, हट गया था, कभी नहीं मिला मुझसे. मेरी शादी के बाद ही घर छोड़ के कहीं निकल गया था, तब से किसी को खबर नहीं कि वो कहाँ हैं.” सुरसती ने एक बार फिर मुझे झूठा सिद्ध कर दिया. “पर उस से क्या, कभी तो मिलेगा, आज नहीं तो कल, इस दुनिया में नहीं तो भगवान के घर, मेरी आस में कोई कमी नहीं, जाने वो कब मिल जाए ये सोच के ही मैं कभी फीका कपड़ा नहीं पहनती कि मिलते ही उस से ब्याह कर लूँगी. जिसकी जमीन है उसे तो सौंपनी ही है ना बाई.” धरती, सच ये स्त्री धरती सी सर्वरूप, दृढकोमलांगी और आत्मसंपन्न है, जो देना न चाहे तो कोई माई का लाल इससे कुछ नहीं ले सकता चाहे मर ही क्यों न जाये. ”चलती हूँ बाई, जिन्दगी रही तो जरूर मिलूंगी, सुरसती हाथ जोड़ के उठ गई. “पर कल से से मैं अकाल मौत मर जाऊं तो मेरी कहानी जरूर लिखना. और हाँ, दुख भी नहीं मनाना. बेटी अब बड़ी हो गई है, उसे मैंने खूब पढ़ा-लिखा के मजबूत बना ही दिया है तो क्या दुख-चिंता करनी हुई बाई. चलती हूँ मुकुल भैया.” सुरसती ने बरामदे में खड़े मुकुल भैया को हाथ जोड़े, मेरी और स्नेहसिक्त मुस्कान डाली और निकल गई. चांदनी के धुंधले उजाले में जाती हुई सुरसतिया किसी शापित, निर्वासित देवदूत की आत्मा सी दीख रही है और पिता जी के कमरे के रेडियो से बजते गीत की पंक्तियाँ मानों उसे सलामी दे रही है…’इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय, पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई मांय…’**
**राजस्थानी कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की प्रसिद्ध काव्य-पंक्तियाँ जिसमें वीर प्रसूता माँ अपने पुत्र को पालने में झुलाती हुई सीख देती है कि अपनी जमीन किसी को नहीं लेने देनी चाहिए, इस के लिए लड़ते हुए अगर मृत्यु भी मिले तो वह प्रशंसनीय होगी.

 

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