कहानी: इला न देणी आपणी

इला न देणी आपणी

प्रथम किश्त – इला न देणी आपणी

लक्ष्मी शर्मा

मैं एकटक उसे देखे जा रही हूँ, अपलक. राम के पूर्वज निमि अगर इस कलियुग में भी पलकों पर ही रहते हैं तो वो निश्चिन्त ही इस समय स्वयं की पलकें झपकाना भी भूल गए होंगे. सच कह रही हूँ कि मैंने इस के पहले ऐसा सम्पूर्ण सौन्दर्य शायद ही कहीं देखा हो, दर्पण में भी नहीं. झुक कर सब्जी का डोंगा उठाती उस प्रोढा स्त्री का सौन्दर्य विधाता के खुले हाथों लुटाये रंग-रूप में ही नहीं है उसके व्यक्तित्व में ही गुंथा हुआ है. उसकी पतली कलाइयों की लोच में, अकृत्रिम पद-लाघव में, उसकी कमर में खुंसी सस्ती सी सिंथेटिक साड़ी के तोतई हरे पल्लू में, उसकी सुघड़ नाक में पहने बड़े से बुलाक में, जो कदाचित उस का एकमात्र शेष बच रहा आभूषण है, और उसकी अंतर्मुखी सी शालीनता में जो मैं लगातार कल से नोट कर रही हूँ. वो अंतर्मुखता जो न सायास है न ओढ़ी हुई, न उसमे दैन्य है न उदासी. स्वयं के लिए आत्मदया और दुनिया के लिए उपेक्षा तो कतई नहीं, वो एक लय में डूबी है जो रोबोटिक भी नहीं और लौकिक भी नहीं. क्या है इस गरीब, अजनबी, अधेड़, कामगर स्त्री में, मैं समझ भी नही पा रही हूँ और मुक्त भी नहीं हो पा रही हूँ. माँ के जाने के दुःख और उनके गंगभोज की व्यस्तता के बीच भी वो मुझे लगातार अपील कर रही है, या कह लूँ कि हांट कर रही है. उसे मैंने एक बार भी मुस्कराते नहीं देखा पर वो कहीं से भी दुखी नहीं लग रही. हे भगवान, मैं तो इसका विश्लेषण करने बैठ गई, ‘हर जगह कहानीकार बने रह कर चरित्र खोजते रहना ठीक बात नहीं हाँ मालती,’ मैंने खुद को टोका और विदा में दिए जाने वाले भगोनों और मेहमानों का मीज़ान बिठाने लगी, अभी तो कुछ साड़ियाँ भी और मंगवानी होगी और चार-छः भगोने भी.
“भाभी” मैंने भाभी को आवाज़ दी.

“हओ बाई, बोलो.” पीछे भाभी की जगह कोई नई आवाज़ आ खड़ी हुई थी, मेरे लिए अपरिचित. मुड के देखा तो वही किताबी चेहरा जिससे पीछा छुड़ा के मैं यहाँ भंडार में घुसी थी. “नहीं, मैं भाभी को…”Authors
“आई बाई सा, वो नसियां वाली काकी सा को छोड़ने गई थी. तू जा सुरसती, बाई सा तुझे नहीं, मुझे बुला रही थी. दरअसल इसे यहाँ सब भाभी ही कहते हैं न तो… कितने भगोने और साड़ी कम पड़ रही है?” मेरी भाभी एक बात में बहुत कुछ निपटा रही है. सुरसती के जाने के बाद हमें बहुत कुछ करना था सो उस समय मैं सब कुछ भूल-भाल गई पर मैंने दिमाग की टू डू लिस्ट में डाल लिया कि जोधपुर लौटने के पहले एक बार सुरसती से बात जरूर करनी है, अगर ये राजी हो गई तो.
गंगभोज की व्यस्तता ओर मेहमानों की गहमागहमी के डेढ़ दिन जब गुजर गए और बच रहे आधा दिन के लिए हम लोग कुछ फ्री हुए तो वो फिर मुझे हांट करने लगी.
“सुनो भाभी” मैंने उसे पुकारा पर मेरी आवाज़ पे उसने जरा भी तवज्जो नही दी और अपनी आत्मलीनता में डूबी धुले बर्तन पोंछती रही, अब जब उसे मालूम है कि मैं उसे भाभी नहीं बुलाती तो बेकार देखने का भी क्या फायदा. “सुनो ना सुरसती भाभी, मैं तुम्हे ही बुला रही हूँ.” अब मैंने नाम लेके पुकारा और मैं अचंभित रह गई ये देख के कि सुरसती इस सहजता से पास आ खड़ी हुई जैसे वो सदियों से मेरे पुकारे जाने के इंतज़ार में ही खड़ी थी. उसके चेहरे पर सहज चुप्पी के अलावा कुछ नहीं है, न झिझक, न उत्सुकता, न प्रश्न, न उतावली. बस पृथ्वी सी सहजता. “बैठो भाभी” मैंने कहा तो उसके मुख पर एक अनिच्छा सी उग आई जो उसने छुपाई भी नहीं, “बोलो बाई, क्या चाहिए, पानी लाऊं या चाय बना दूँ.” उसने गीले हाथों को सिन्दूरी साड़ी के किनारे से पोंछ लिया. “नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस तुमसे बात करने को जी कर रहा है.” उसके सादा और स्ट्रेट फारवर्ड मिजाज़ पर न मेरी कोई चतुराई चलती न ही मैंने कोशिश की, बस सीधे से अपनी बात रख दी. “तो कर लो, पर क्या बात करोगी? मैं तो तुम्हें जानती भी नहीं, और ना तुम मुझे” सुरसती शार्प है. “अरे, तो मुझे कौन सा रिश्तेदारी निकालनी है भाभी. बस ऐसे ही तुम अच्छी लगी तो बात करने का मन हो गया, बैठो.”
मेरे नज़दीक चौकी पर बैठी सुरसती को मैंने जरा गौर से देखा, क्या रंग-रूप दिया है विधाता ने इसे… तिलोत्तमा… अपरूपा.. भुवनमोहिनी जैसे शब्द इसी रूप को मिले होंगे ना. “इसी रूप ने आज मुझे तुम्हारे आगे बिठा रखा है बाई.” सुरसती में बुद्धिमानी और स्त्रियोचित अंतर्दृष्टि दोनों है, नज़रों से भाँप लेना उसे शायद इस फुर्तीली देह के साथ ही मिला है तभी तो इस धर्मशाला की सबसे महंगी कर्मचारी है. ”मैं समझी नहीं भाभी, रूप के पुण्य से यहाँ हो या पाप से?”
“अब ये तो मालिक ही बताएगा आगे-आगे, मैं तो बस भोग रही हूँ.”
“कहाँ की हो भाभी..”

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डॉ लक्ष्मी शर्मा
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डॉ लक्ष्मी शर्मा
1. 'स्त्री होकर सवाल करती है' (फेसबुक पर स्त्री-सरोकारों की कविताओं का संपादन.)
2. आधुनिक कविता (विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में शामिल पाठ्य-पुस्तक)
*शीघ्र प्रकाश्य- "दुबई: मरुस्थल में बिखरी माया" (यात्रा-वृतांत)
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, एकांकी, बाल-कथा, आलोचना, पुस्तक-समीक्षा, शोधपत्र आदि प्रकाशित.
*दूरदर्शन-आकाशवाणी पर नियमित चर्चा-परिचर्चा, कथा-पाठ आदि.
*अंतरराष्ट्रीय साहित्य समारोह, समानांतर साहित्य समारोह, अन्तरष्ट्रीय सिनेमा समारोह सहित अनेक अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय समारोहों आदि में वक्ता
*कई वर्षों तक साहित्यिक पत्रिका 'समय-माजरा' एवं 'अक्सर’ के संपादन मंडल से सम्बद्ध.
सम्प्रति- स्वतन्त्र लेखन.
सम्पर्क- डॉ लक्ष्मी शर्मा
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जयपुर-302018.
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