विपत्ति में हमारी आस्था और विश्वास और भी प्रबल हो जाता है। कोरोना का यह भयकाल भी इसके आड़े नहीं आ सका। घर-घर गणेश जी बिराजे हैं। भक्तिभाव से उनका पूजन-अर्चन हो रहा है।
यह अच्छा ही है कि इस बार सबकुछ शांत वातावरण में चल रहा है। पंडाल, चोंगे, नाचगाना, शोरशराबा जैसा प्रपंच नहीं। वैसे मैं इन प्रपंचों का विरोधी नहीं क्योंकि हमारे पर्व-त्योहार, कुंभ-सिंहस्थ, संक्रांति के मेले देश की अर्थव्यवस्था को अतुलनीय योगदान देते हैं।
गणेशोत्सव की बात ही क्या कहना। सामान्य दिनों में अकेले महाराष्ट्र-गुजरात में ही एक हजार करोड़ रूपये का व्यवसाय होता था। मुंबई के लालबाग के राजा के यहां का चढ़ावा हर साल सुर्खियों में रहता है। पचास से सौ करोड़ रूपए तक का चढ़ावा।
हमारे हर त्योहारों में लोकमंगल की भावना छुपी होती है। चतुर्मास में सबसे ज्यादा त्योहार आते हैं। ये चार महीने किसानों के लिए फुर्सत के दिन होते थे। योगी तपस्वी चतुर्मास में कहीं धूनी रमा कर साधना करते हैं।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी चौमासा संक्रमण कारक हुआ करता है। बैक्टीरिया और वायरस के लिए अनुकूल मौसम। सो आयुर्वेद में इन चार महीनों की दिनचर्या, पथ्य बिल्कुल अलग हैं। सबसे ज्यादा व्रत व उपवास इन्हीं चार महीनों में।
हमारी परंपराओं के वैग्यानिक व सामाजिक अर्थ हैं। चतुर्मास में शिवपरिवार से जुड़े ज्यादा पर्व हैं। ये चार महीने शंकरजी के हवाले तो रहते ही हैं..इन्हीं में हलछठ-तीजा-गणेश चतुर्थी आती है। शुरूआत हरियाली की पूजा से होती है। हमारे यहां नाग और नेवले की पूजा के पर्व हैं- नाग पंचमी और नेवला नवमी(नेउरिया नमैं)। बहुला चौथ के दिन गाय और बाघ की कथा सुनकर उनके रिश्तों को याद करते हैं..यह भी बड़े महत्व का पर्व है।
शिवपरिवार समदर्शी और समत्व की पराकाष्ठा है। प्रकृति, विग्यान और समाज का समन्वय इतना स्तुत्य कि विश्वभर की किसी सभ्यता में ऐसा नहीं।
अब हम गणेश चतुर्थी से जुड़े लोकाचार को ही लें। क्या महाराष्ट्र, क्या गुजरात, समूचा देश गणपति मय हो जाता है। बडे़ गणेशजी, छोटे गणेशजी, मझले गणेशजी। गणेशजी जैसा सरल और कठिन देवता और कौन? लालबाग के राजा के गल्ले में एक अरब का चढावा आया। तो अपने रमचन्ना के गोबर के गनेश में एक टका। पर कृपा बराबर। रमचन्ना की औकात लालबाग के राजा वाले पंडाल के संयोजक से कम नहीं। गणपति बप्पा की कृपा समदर्शी है।
शंकर जी का परिवार ही अद्भुत है। भरापूरा अनेकता में एकता का जीता जागता समाजवाद लिए। गणेश जी प्रथमेश हैं। देवताओं के संविधान में है कि बिना इनकी पूजा किए एक इंच भी आगे नहीं। इसकी कथा सर्वविदित है। कार्तिकेय व गणेश जी के बीच झगड़ा चला कि श्रेष्ठ कौन..? कार्तिकेय तो देवों के सेनापति थे, महापराक्रमी, धरती में देवत्व, मनुष्यता की रक्षा हेतु गौरी-शंकर से ब्रह्मा, विष्णु की प्रार्थना के बाद जन्मे थे। और उधर गणेशजी माँ की आग्या का मान रखने के लिए पिता के गुस्से का शिकार बन सिर कटाकर गजानन बन चुके थे।
देवताओं ने तय किया कि जो सृष्टि की पहली पराक्रमा पूरा करेगा वही प्रथमेश। कार्तिकेय सृष्टि को पृथ्वी तक ही सीमित कर मयूर की सवारी गाँठ इसकी परिक्रमा पर निकल पड़े। गणेश जी के लिए सृष्टि तो उनके माता-पिता थे। सो क्षणभर में परिक्रमा पूरी कर ली, मूषकराज को कष्ट दिए बिना। देवताओं ने विक्ट्रीस्टैंड पर खड़ा करके उन्होंने सर्वश्रेष्ठ व प्रथमपूज्य घोषित कर दिया..कारण? कारण यह कि विवेक पराक्रम से श्रेष्ठ है और सृष्टि के प्रलय पर्यंत रहेगा। गणेशजी विवेक के देवता हैं और कार्तिकेय महाराज पराक्रम के..। विवेकहीन पराक्रम लोकोपकारी नहीं होता..। सो विजयश्री के लिए विवेक सम्मत पराक्रम चाहिए यानी कि पहले गणेश फिर कार्तिकेय, दोनों परस्पर पूरक।
मुझे याद है पढाई के पहले दिन अम्मा ने भरुही की कलम से काठ की पाटी में..हाथ पकड़कर ..सिरी गानेशाए नमह..लिखवाया था। वे पढीलिखी नहीं थी पर अपनी दस्तखत और गणेश जी का नाम लिख लेती थी। वे कहती थी कि कागज में कुछ लिखने के पहले श्री गणेश जी का नाम लिखा करो अकल आयेगी।
पिताजी ने गणेशजी का एक श्लोक सिखाया था..गजाननम्.. भूतगणादि …वे भी मानते थे कि घर से निकलने से लेकर हर काम शुरू करने से पहले श्लोक पढना चाहिए।
आस्था और विश्वास सबसे बड़ी ताकत है। यह मनुष्य को अनाथ नहीं होने देती। अनाथ तुलसी ने लिखा ..भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ। वे सनाथ हो गए, उन्हें राम रतन धन मिल गया। सृष्टि को, प्रकृति को, समाज को समझना है तो शिव परिवार को समझ लीजिए। ज्यादा धरमकरम की जरूरत नहीं।
यह विश्व का आदि समाजवादी परिवार है। सबकी तासीर अलग अलग फिर भी गजब का समन्वय। गणेश जी का वाहन मूस तो शंकरजी के गले में काला नाग। वाह साँप मूस को देखे चुप रहे। उधर से कार्तिकेय का मयूर ..खबरदार मेरे भाई की सवारी पर नजर डाली तो समझ लेना। माँ भगवती की सवारी शेर, तो भोलेबाबा नंदी पर चढे हैं। समाजवाद में जियो और जीने दो का चरम। प्रकृति में सब एक दूसरे के शिकार, पर मजाल क्या कोई चूँ से चाँ बोल दे। गजब का आत्मानुशासन।
आज तो जबरा निबला को सता रहा है, खा रहा। दुनिया में मत्स्यन्याय चल रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाना चाहती है। दुनिया को शिवत्व का आदर्श ही बचा सकता है। शिव वैश्विक देवता हैं। वही आदि हैं वही अंत भी। जलहली के ऊपर शिवलिंग सृष्टि के सृजन का प्रादर्श। मेरी धारणा पुराण कथाओं से पलट है। शिव संहारक नहीं सर्जक और पालक हैं। शंकर जी और हनुमानजी दो ऐसे देवता हैं जो आर्य-अनार्य की विभेदक रेखा मिटा देते हैं।
शिव कल्याण के प्रतिरूप हैं। उपेक्षित, वंचित, दमित, शोषितों के भगवान्। जिसको दुनिया ने मारा उसे शिव ने उबारा। साँप पैदा हुआ लोग डंडा लेकर मारने दौड़े शंकरजी ने माला बनाकर पहन लिया। गाय देवताओं की श्रेणी में रख दी गई बपुरा भोंदू बैल कहाँ जाए। भोले ने कहा आओ तुम हमारे पास आ जाओ। भूत, प्रेत, पिशाच, अघोरी, चंडाल जो कोई हो आओ हमारे साथ। देखते हैं भद्रलोक तुम्हारा क्या उखाड़ सकता है।
प्रकृति समन्वयकारी है। दिन है तो उसी मात्रा में रात है। सुख-दुख,ग्यान-अग्यान, उजाला-अँधेरा। अमृत निकला तो उसी मात्रा में विष भी। कौन पिए, शिव बोले लाओ हम पिए लेते हैं। तुम लोग मौज करो। शिव परवार से बड़ा कल्याणक कौन। वेद की ऋचाएं और पुराण की कथाएं कर्मकान्डी नहीं।
आध्यात्म के साथ उनका वैग्यानिक समाजशास्त्रीय पक्ष भी है। धरम-करम खूब करें। उत्सव ,त्योहार पर्व मनाएं पर जब तक इनके भीतर छुपे मर्म को नहीं जाना तो यह सिर्फ कर्मकाण्ड। अंत्योदय, शोषितोदय, गरीब, वंचित, पीडित, उपेक्षित इनको उबारना है तो खुद के शिवत्व को जगाना होगा। शोषणविहीन, समतामूलक समाज की प्राण प्रतिष्ठा करनी है तो शिव परिवार से बड़ा प्रेरक,उससे बड़ा प्रादर्श और कहीं नहीं। शिवत्व को ढोलढमाके के साथ पंडालों में पूजने से पहले अपनी अंतरात्मा में पूजिए।