In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी दसवीं क़िस्त में मीडिया की सुप्रसिद्ध हस्ती श्री राजशेखर व्यास अपने पिता पद्मभूषण पं0 सूर्यनारायण व्यास जी जो संस्कृत, ज्योतिष, इतिहास, साहित्य, व पुरातत्त्व के अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान् रहे हैं उनके अद्वितीय व्यक्तित्व की दैदीप्यमान विराटता को याद करते हुए उन्हें सादर नमन कर रहे हैं –
सूर्य के जीवन से सीखी कई बात,
जीवन जियो हमेशा स्वाभिमान के साथ।
बनाओ अपनी एक अलग पहचान,
जैसे सूर्य का इस जग में स्थान। -स्वाति सौरभ
10. In Memory of My Father: Padmabhushan Pandit. Suryanarayan Vyas-ज्योतिष,साहित्य,पुरातत्त्व और खगोल जगत के असाधारण ‘सूर्य’
राजशेखर व्यास
बचपन में रविबाबू (रवीनद्रनाथ टैगोर) की एक कविता सुनी थी – ‘सकल वर्ग दूर करि दिवो, तोमार गरब छोड़िबे ना, सॅंवारे डाकिया कहिबे जे दिन, पावे तब पद रेणुकणा ….’ – ‘मैं अपना और सब गर्व छोड़ सकता हूॅं, सारे गर्व छोड़ सकता हूॅं, लेकिन जो गर्व तुम्हारे लिये हैं वह मैं कभी नहीं छोड़ पाऊॅंगा और जिस दिन मुझे तुम्हारे चरणरज की धूलि के सौंवे कण का भी हिस्सा मिल गया तो उसे अपने मसतक पर धारण कर सारी दुनिया को उसे अपने जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि बताऊॅंगा ।’
सूर्य को दीपक दिखाना या करछूल से सागर नापने का प्रयास हो भी तो वह एक सूक्ष्म उदाहरण ही होगा । पं0 सूर्यनारायण व्यासजी पर लिखने के लिए डॉ0 सुमन से बड़ा अधिकारी विद्वान इस समय भारत में कौन होगा ? उनके मानस पुत्रों में डॉ0 प्रभाकर श्रोत्रिय, कमलेश दत्त त्रिपाठी, रथ सा., बालकवि बैरागी जैसे विद्वान, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जी जिन्होंने पंडित जी को निकट से देखा है । पंडितजी के विषय में बात करने का मन हो तो कौन से पंडित जी, इतिहासकार पंडितजी ?, पुरातत्वेता पंडितजी ?, क्रांतिकारी पंडित सूर्यनारायण व्यास ?, विक्रम के सम्पादक पं0 सूर्यनारायण व्यास ?, ज्योतिष और खगोल के अपने युग के असाधारण सर्वोच्च न्यायालय और ‘सूर्य’ पं0 सूर्यनारायण व्यास ? किस बारे में बात करें ?
सिंहपुरी में एक तिमंजिला भवन जहॉं, 2 मार्च, 1902, प्रातः स्मरणीय महामहोपाध्याय पं0 नारायण जी व्यास के घर में पं0 सूर्यनारायण व्यास का जन्म हुआ । पं0 नारायण जी व्यास की एक परंपरा महर्षि सांदीपनि की, मैं नहीं जानता वह सत्य थी या नहीं । डॉ0 विष्णु धरजी ने लिखा है कि वह परम्परा ऐसी रही कि उसे विश्वविद्यालय बनाकर व्यास जी ने उसे स्थापित कर दिया । उसी सांदीपनि वंश के महर्षि नारायण जी व्यास जिनके बारे में किंवदन्तियाँ हैं, कथाएँ हैं, कुछ ऐतिहासिक सत्य हैं । वे दोनों हाथों से एक-समय में एक-साथ लिखते थे । एक हाथ से व्याकरण एक हाथ से ज्योतिष और दोनों एक समय में । संस्कृत और ज्योतिष के अपने समय के असाधारण व्यक्तित्व लोकमान्य तिलक एवं मदनमोहन मालवीय, पंडितजी के दर्षन करने यहॉं पधारे । यह मैंने ‘सम्मेलन पत्रिका’ के ‘मालवीय विषेशांक’ में पढ़ा था । मालवीयजी महाराज दो बार उनके दर्षन करने यहॉं नारायणजी के पास आये । उनका परम उद्देश्य था खगोलिय गणना सीखना । ऐसे असाधारण पुरुश के घर में 2 मार्च, 1902 में सिंहपुरी मोहल्ले की छोटी-सी गली में स्थित एक मकान में पं0 सूर्यनारायण व्यास का जन्म हैरत में डालता हे । बाद के दिनों में राजेन्द्र माथुर के ये शब्द – ‘विक्रम’ के सम्पादक पद पर मालवा का चिंतक, लेखक, अरब, इराक, मलेशिया, साइप्रस तो छोड़िये ‘बोल्शिक क्रांति’ पर लिखता हूॅं । सिंहपुरी में जन्मा एक नौजवान रास्पुतिन पर काम करता है । मैं कई बार सोचता हूॅं कि ऐसा क्यों हुआ ? शायद वह पूरा दौर, वो पूरी पीढ़ी क्रांतिकारियों की पीढ़ी थी । पं0 सूर्यनारायण व्यास 18 बरस के रहे होंगे, प्रभाकर श्रोत्रिय को यह जानकारी शायद अच्छी लगे, मुझे भी विस्मयजनक लगी थी । ‘माधव कॉलेज’ की पत्रिका में उनकी पहली रचना ‘शारदोत्सव’ मराठी में छपी थी 1916 में । लेकिन उससे पूर्व मुझे उर्दू के एक शायर पं0 सूर्यनारायण व्यास की ‘शम्स उज्जयिनी’ के नाम से लिखी हुई आरंभिक काल की रचना थी । यानी उनके लेखन का यह काल 1914 तक जायेगा । मैं नहीं जानता कि वे कब से लिख रहे होंगे । 1918 से तो प्रमाणिक रूप से उनके लेख तमाम पत्र-पत्रिकाओं में मिलते हैं ।
‘सिद्धनाथ माधव आगरकर’ का साहचर्य जिन्हें मिला हो, ‘तिलक’ की जीवनी का अनुवाद करने का सौभाग्य उन्हीं आगरकर जी के साथ मिला । सिद्धनाथ माधव आगरकर को बहुत लोग अब भूल गये होंगे । ‘स्वराज्य’ संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी के साथ ‘कर्मवीर’ संपादक, पंडित जी का उन्हें साहचर्य मिला । पंडितजी पर उनका असर था या उनका पंडितजी पर, असर, कहिए कि पंडितजी शायद पत्रकारिता की ओर मुड़े ।
तिलक की जीवनी का अनुवाद करते-करते शायद वे क्रांतिकारी बने । वीर सावरकर का साहित्य पढ़ा । सावरकर का साहित्य पढ़ते-पढ़ते पंडितजी को, मुझे लगता है कि ‘अंडमान की गूॅंज’ ने बहुत प्रभावित किया । प्रणवीर पुस्तक माला की पुस्तकें वे बॉंटा करते थे और 1920-21 के काल से तो मुझे उनकी क्रांतिकारी रचनाए प्राप्त हुई हैं, जिनसे जाहिर होता है कि पं0 सूर्यनारायण व्यास 1930 में ‘अजमेर सत्याग्रह’ में पिकेटिंग करने भी पहुॅंचे थे । उज्जैन के जत्थों का नायकत्व भी किया। अजमेर में ‘लार्ड मेयो’ का स्टेचू तोड़ा । सुभाश बाबू का आह्नान था कि विदेशी राजनेताओं के स्टेचू तोड़ दिये जाये । लार्ड मेयो का स्टेचू तोड़कर उसका एक हाथ बरसों तक ‘भारती भवन’ में रखा रहा । तो क्रांतिकारी सूर्यनारायण व्यास कैसे अपनी यात्राओं से यहॉं पहुॅंचा होगा । इसे संक्षेप में बताना शायद संभव न हो लेकिन मैं बहुत सूक्ष्म रूप से बात कहूं तो एक सशक्त क्रांति में हिस्सा लेने के लिए वे 1942 में गुप्त रेडियो स्टेशन भी चलाते थे ।
सन् 1930-35 में उनकी पहली विदेश यात्रा के विषय में बहुत कम लोग जानते हैं। ‘यात्रा-साहित्य’ के आरंभिक लेखकों में अब लोग राहुल सांकृत्यायन और भगवतशरण उपाध्याय का नाम लेते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि पं0 सूर्यनारायण व्यास की यात्रा-साहित्य पर पहली कृति ‘सागर-प्रवास’ 1937 में बिहार के लहरिया सराय से आचार्य शिवपूजन सहाय के माध्यम से हिन्दी, मराठी, संस्कृत भाषा में ‘सागर-प्रवास’ छपी थी । वे यूरोप की यात्रा पर भी गये । यूरोप जाने से पूर्व वे महाकाल-मंदिर और भारती-भवन में कालिदास जयंती 1928 से मना रहे थे। वे सारे संस्मरण मिलते हैं । यूरोप में जगह-जगह उनसे पूछा जाता रहा होगा कि क्या उज्जैन में कालिदास का कोई स्मारक है ? आप वहॉं रहते हैं । मन में शर्मिंदगी आती होगी और पंडितजी के स्वाभिमान को कोई पीड़ा या चोट लगी होगी लेकिन मैं प्रायः जब कालिदास समारोह के बारे में अखबारों में पढ़ता हूॅं, पत्रिकाओं में पढ़ता हूॅं, राजनेताओं के भाषण सुनता हूॅं, किताबें पढ़ते-पढ़ते पिछले 38 सालों से सुनता हुआ बड़ा हुआ हूॅं । मुझे एक बात पर बराबर हैरत होती है कि षायद किसी ने पं0 सूर्यनारायण व्यास के उस विज़न को पकड़ने, दृश्टा की उस दृश्टि को पकड़ने की अब तक कोषिष क्यों नहीं की ? जिसपर मैं बराबर कोशिश कर रहा हूॅं । मुझे लगता है महर्शि अरविंद, महर्शि रमण की तरह पं0 सूर्यनारायण व्यास अपने युग के बहुत बड़े दार्शनिक-दृश्टा थे । विचारक तो वे थे ही, चूॅंकि वे ज्योतिश के भी महान विद्वान थे । उन्हें मालूम था कि देष तो आज़ाद होगा ही आज़ादी के बाद भी मानसिक रूप से हम मुक्त नहीं होंगे क्योंकि हमारे सारे राजनेता पश्च्यात संस्कृति से प्रभावित और प्रेरित थे । सब-के-सब राजनेता विदेशो में पढ़कर आये थे ।
सन् 1930 में पं0 सूर्यनारायण व्यास ने ‘आज’ में घोशणा की कि 1947 में 15 अगस्त को देश आज़ाद होगा । यह छपा हुआ लेख आज उपलब्ध है । अर्द्धरात्रि का मुहूर्त भी उनका निकाला हुआ है । यह मेरा नहीं सर स्टेफोर्ड क्रिप्स का लिखा हुआ है – ‘हू डज़न्ट कन्सल दी स्टार्स ?’ लेख में उन्होंने लिखा है कि देष की आज़ादी का मुहूर्त एक व्यक्ति से निकलवाया गया । अर्द्धरात्रि का मुहूर्त सूर्यनारायण व्यास से निकाला । अब लेख ‘एंड हाउ इंडियन एस्ट्रोलॉजर सेव द नेशन’ से सिद्ध होता है । यह बहुत बड़ी महत्व की बात है । तब उन्हें लगा होगा कि सेक्सपीयर-सेक्सपीयर कहते-कहते राजनेता को बताना होगा कि भारत की अस्मिता में ‘कालिदास’ नाम का एक चरित्र मौजूद है । यह हमारे गौरव के लिए काफी है और उन्होंने कालिदास के माध्यम से सोये हुए राष्ट्र को देवउत्थान एकादशी के दिन जगाने का बड़ा कार्य किया। मुझे लगता है कि इस ‘विज़न’ को समझने की अब फिर जरुरत है । जब हम स्वदेशी के बीच विदेशीकरण की ओर जा रहे हैं ।
हमें बरसों से पढ़ाया जाता रहा है कि हम मुगलों, अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं । शोषित, पीड़ित, पराभूत । पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ाया जाता रहा है कि हम 1857 के गदर में हारे हुए, थके हुए, जुआरी हैं । पं0 सूर्यनारायण व्यास ने इतिहास से एक चरित्र निकाला विक्रम सहस्राब्दी के अवसर पर, 57 वर्ष ईसा पूर्व ‘विक्रम’ नामक चरित्र हमारे यहां मौजूद है जिसके पराक्रम ने ईरान, इराक, अरब और शकों और हूणों को पराजित किया । वह है चक्रवर्ती सम्राट ‘विक्रम’ जिसने अरब क्षेत्र तक अपने शासन और सŸा को फैलाया । सोये हुए राष्ट्र को जगाने के लिए, उस विक्रम के पराक्रम का आह्वान देने के लिए सूर्यनारायण व्यास ने 1942 में ‘विक्रम-पत्र’ की स्थापना की । पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ जैसी क्रांतिकारी हस्ती उनके साथ थी । उस युग के पत्रकार, जो घर में ही बैठकर एक-दूसरे के खिलाफ लिखने का, जैसे मार्डन रिव्यू में रामानंद चट्टोपाध्याय के घर में लिखने का, लोग साहस रखते थे । सूर्यनारायण व्यास के घर में रहकर ‘उग्र’ उनके खिलाफ लिखते रहे । सूर्यनारायणजी संचालक-संपादक हैं । क्या मित्रता रही होगी लेकिन बड़ों की मित्रता और बड़ों की शत्रुता भी बड़ा ही जानता है । ‘उग्र’ की मित्रता और ‘उग्र’ की शत्रुता को शायद हिन्दी में अब भी लोग नहीं जाने, पर विनोदशंकर व्यास का एक पत्र मुझे मिला है। उसमें उन्होंने लिखा है – ‘उग्र को हिन्दी साहित्य में बस दो ही व्यास समझते हैं एक मैं और एक आप । मैं कह देता हूॅं आप चुप रहते हैं ।’
उस ‘विक्रम-पत्र’ से व्यास जी ने जीवन में ‘विक्रम विश्वविद्यालय ’ की स्थापना का संकल्प लिया । ‘विक्रमकीर्ति मंदिर’, ‘कालिदास समारोह’ और ‘विक्रम स्मृति ग्रंथ’ जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी में । मेरा ख्याल है जैसे महाभारत के बारे में कहा जाता है कि जो कुछ महाभारत में है वह भारत में है और जो महाभारत में नहीं है वह भारत में नहीं है । मुझे लगता है कालिदास उज्जयिनी और विक्रम के बारे में, ऐसा अद्भुत ग्रंथ मेरे जीवन में अभी तक देखने में नहीं आया । हिंदी, मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी में इतना अद्भुत काम, क्या आप इसे अतिशयोक्ति मान सकते हैं ? लेकिन मैं बहुत विनम्रता के साथ कहना चाहता हूॅं, मैं पन्त, निराला, बच्चन, सुमन न केवल उनका बल्कि सारी पीढ़ी की चरण-रज को माथे पर लगाने वाला पौधा हॅॅूं, लेकिन मैं इतना कहना चाहता हूॅं कि लिख देना बहुत आसान है लेकिन उसे अपने जीवन में चरितार्थ करना, उसे अपने जीवन में साकार कर देना, सपने सॅंजो लेना बड़ी बात नहीं, सपनों को अपने जीवनकाल में चरितार्थ कर देना बड़ी बात है । उसे अपने जीवन में उतार लेना ये किसी विलक्षण साहित्यकार की तपस्या है ।
मैंने तो अपने जीवन में अभी तक नहीं देखा जिसने न केवल विक्रम, कालिदास पर लिखा हो, उसे जिया हो, अपने जीवनकाल में उसे स्थापित किया हो । विक्रमकीर्ति मंदिर, विक्रम विश्वविद्यालय खड़ा कर दिया हो, इतनी विनम्रता से, इतनी सादगी से कि कहीं नाम तक नहीं, कहीं नाम का उल्लेख नहीं ? असाधारण तपस्या, असाधारण साधना और असाधारण अंतः प्रेरणा से ही, मेरा ख्याल है पं0 सूर्यनारायण व्यास जन्मता होगा । जैसे-जैसे उस व्यक्ति के जीवन में चंचूपात करने की कोशिश करता हूॅं मैं अंदर से हिल जाता हूॅं । मुझे लगता है मेरा जीवन क्या, सत्तर जीवन आ जाए तो उस व्यास के एक जीवन को छोड़िये, उनके 12 भाव छोड़िये, उनकी कुण्डली का एक भाव जान लूॅं, नवग्रह छोड़िये एक ग्रह पकड़ लूॅं, तो मेरा जीवन सार्थक हो जाये और इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है । विक्रम पर एक फीचर फिल्म बनवा देना । पृथ्वीराज कपूर को वे ले आये उज्जयिनी में । पहली ऐतिहासिक फिल्म बनाने का प्रयास । ‘विक्रमादित्य’ जैसी फिल्म उज्जयिनी में बनी । फीचर फिल्म बनी नृत्यांगना रत्नमाला को लेकर, विजय भट्ट ने बनायी । जब फिल्म दिखाई गई तो लोग चौंके । ‘कवि कालिदास’ पर फिल्म बनवाई । भारत भूषण और निरूपा रॉय को लेकर, वह भी रंगीन फीचर फिल्म ‘कवि कालिदास’ । उस फिल्म के शुरुआत में विजय भट्ट लिख रहे हैं पं0 सूर्यनारायण व्यास के प्रमाणिक शोध पर आधारित । उम्र ही क्या रही होगी तब पंडितजी की 50 वर्ष । आज लोग बात करते हैं कि हिन्दी की लड़ाई की, हमारी दिल्ली में भी लोग लड़ते हैं । दुकानें खुल गई हैं । मुलायमसिंहजी से चंदा लेकर चल रही हैं, पौराणिक-वैदिक दुकानें हैं ।
पं0 सूर्यनारायण व्यास को ‘पद्मभूषण’ मिला 1958 में । उन्होंने उस लौटा दिया, अंग्रेजी को जारी रखने के विरोध में । हिन्दी का समर्थन करने वाले जितने लोग आज इसको याद करते हैं । लोहिया जी ने ‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन चलाया उससे पूर्व पंडितजी ने यह काम पहले ही कर दिखाया । कइयों को शायद जानकारी बिल्कुल नहीं है कि जयप्रकाश जी ने डाकुओं को आत्मसमर्पण करने का सुझाव दिया। उससे पहले मेरे पास एक पत्र है डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का, उससे मुझे ज्ञात हुआ कि पंडित जी ने डाकुओं को आत्मसमर्पण करने के लिए प्रेरित करने का सुझाव भारत सरकार को दिया था कि डाकू मानसिंह के पुत्र तहसीलदार सिंह को फांसी से मुक्ति दें और पुनर्वास का मौका दें । पत्रों पर ही चला जाऊॅं तो 20 हजार पत्र तो होंगे ही। डॉ0 राजेन्द्रप्रसाद, गॉंधीजी और पटेल, ये तो राजनेता हो गये । साहित्यकारों में प्रेमचंद, प्रसाद, पंत और सुमन से लेकर प्रभाकर क्षोत्रिय तक बालकवि बैरागी तक की पूरी पीढ़ी के पत्र मौजूद हैं । क्या असाधारण आदमी नियमित पत्र-व्यवहार ? कई बार अनेक और बातें दिमाग में आती हैं ।
मैं डॉ0 शंकर दयाल शर्मा जी के निकट संपर्क में रहा हूॅं । उन्होंने एक बार एक बात बताई कि – ‘पंडित व्यास मालवा को, उज्जैन की राजधानी बनाना चाहते थे । राजशेखर ! हमारी उनसे बड़ी लड़ाई हुई, बैर हुआ । हम जवाहरलाल के खेमें में थे और पंडितजी राजेन्द्र प्रसाद के मित्र थे । जब व्यासजी को राजधानी नहीं मिली तो वे विश्वविद्यालय ले आये । इंदौर और भोपाल में विश्वविद्यालय नहीं था। मुझे लगता है व्यासजी जानते थे कि इस नगर के नौजवान पढ़-लिख लेंगे तो अपने हक की लड़ाई तो वे खुद ही लड़ लेंगे ।’
एक बार मैं बार-बार कहना चाहता हूॅं, कोशिश करूँगा कि मैं आलोचना न करूॅं । कई मायने में, मैं आलोचक भी हूॅं पर मुझे लगता है कि एक व्यक्ति को निष्पक्ष होकर देखना चाहिए । उसके बोये हुए बीजों को, उसके सामर्थ्य को, उसकी पूजा को, उसकी प्रतिज्ञा को, उनके त्याग को, उसके समर्पण को पूरे अर्थों में देखा जाना चाहिए । अब जब उनकी समग्रता को बांधने की कोशिश कर रहा हूॅं तो वे एक व्यंग्यकार भी हैं । अभी उनका सम्पूर्ण ‘व्यंग्य-संग्रह’ आयेगा तो बहुत हैरत होगी । उनके 300 व्यंग्य लेख मेरे पास हैं । वे अनेक नामों से लिखते थे । जैसे – चक्रधर, शरण, व्यास आचार्य । उनकी ‘तू-तू, मैं-मैं’ तो वर्ष 1935 में पुस्तक भवन, काशी, बनारस में छपी । लेकिन हैरत की बात है कि उन्होंने अपनी मौत पर व्यंग्य लिखा – ‘ऑंखों देखी अपनी मौत’, यह 22 जून, 1965 में छपा । 22 जून को ही उनका देहावसान हुआ, 22 जून, 1976 को । उन्होंने ‘मूर्ति का मसला’ लिखा । उन्हें मालूम था मेरे मरने के बाद मेरी प्रतिमा को लेकर उज्जैन में निम्नस्तरीय बहस होगी । यहां जीवित लोग अपनी प्रतिमा लगवा लेंगे मगर उनकी प्रतिमा न लगने दी जाएगी, न लगायी जायेगी । मैंने अभी उसे पुनः प्रकाशित करवाया है । उनकी भविष्यदृष्टा उनकी व्यंग्य पर भी दिखाई देती है ।
कई व्यंग्यों में उन्होंने भावी भारत की कल्पना की है । जैसा उन्होंने लिखा, ‘मंगल ग्रह की सस्ती बस्ती’, ‘चीन की दीवार गिरेगी’, ‘भारत-पाक का विभाजन खत्म हो जायेगा’, ‘चीनी चूहों की घुसपैठ’ में वे लिखते हैं – ‘चीन आक्रमण करेगा’ यह 1942 में लिखा । अद्भुत दृष्टि और ज्योतिष की तो बात ही क्या ?
दो पंक्ति में कहूॅं – ज्योतिष-जगत के वे सूर्य थे । देश की आजादी का मुहूर्त उन्होंने निकाला । मेरे पास एक लेख आया है – 1924 ई0 में बनारस में ‘आज’ में एक लेख छपा । उसमें उन्होंने लिखा है – ‘गॉंधी मरेंगे नहीं मारे जायेंगे’ लेख के अंत में वे लिखते हैं – ‘गॉंधी वध एक ब्राह्मण द्वारा होगा ।’ यह लेख सुरक्षित है । 1930 में एक लेख टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा । उसमें उन्होंने लिखा – ‘नेहरू भारत का भावी लेनिन होगा ।’ 1930 के बाद नेहरू कैसे रहेंगे ? उनकी पत्नी का देहावसान कब होगा ? वे विश्व इतिहास पर कब लिखेंगे ? ‘मेरी कहानी’ कब लिखेंगे ? यह पूरा लेख ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपा । टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक श्री जी. एस. करंदीकर ने व्यास जी को ‘जीवित विविश्वकोश’ कहा था ।
पंडितजी ने कश्मीर पर एक लेख 1941 में लिखा । यह लेख मैंने राजा कर्णसिंह को पुनः भेजा । ‘कश्मीर के दुर्भाग्य की कथा’ जो उन्होंने पहले ही लिख दी थी । एक छोटी-सी घटना ज्योतिष पक्ष पर – लाल बहादुर शास्त्री’ ताशकंद जा रहे थे । व्यास जी ने हिंदुस्तान को एक लेख भेजा कि शास्त्रीजी का जाना रोका जाये । वे लौटकर नहीं आयेंगे । रतनलाल जोशी उस समय संपादक थे, वे मालवा के हैं । उन्हें हिन्दुस्तान का संपादक बनवाने में भी व्यासजी की भूमिका रही, वे अभी जीवित हैं । रतनलाल जोशी ने मुझे बताया – ‘मैं डरा, प्रधानमंत्री के बारे में ऐसी भविष्यवाणी कौन छाप सकता है । शास्त्री जी को सूचित किया, वे हँसकर टाल गये ।’ जब वे नहीं लौटे तो जोशी जी ने लेख संपादकीय टिप्पणी के साथ छापा । शीर्षक था – ‘शास्त्रीजी ताशकंद से नहीं लौट पाएंगे ।’ ये सब सुरक्षित है । वे 114 स्टेट के ज्योतिष रहे । वे ज्योतिष सलाहकार रहे – गांधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, पटेल जी, नेहरू जी जैसे तमाम व्यक्तियों के ।
अभी एक दिन लेखक प्रो0 ओम नागपाल जी ने मुझे खाने पर बुलाया । मुझसे कहने लगे – ‘मैं तुम्हें बचपन से जानता हूॅं । तुमने बहुत काम किया है । 53-54 किताबें लिख डाली हैं । 300-400 फिल्में बना डाली । 2000-2500 लेख लिख डाले । तुम बड़े आदमी हो । तुम पंडितजी-पंडितजी करते हो, लोग गालियॉं बकते हैं। कहते हैं इसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है । मैं नहीं चाहता तुम पंडितजी-पंडितजी करो ।’ मैंने कहा – ‘उनकी अगले वर्ष जनशताब्दी आ रही है तो किसी ने सलाह दी कि मैं अपनी बात कहू । मैं तो इसी तैयारी में लगा हूॅं ।’ तो उन्होंने कहा – ‘ये सब दो माह में हो जायेगा । बालकवि दादा सहित हम सभी मिलकर चलेंगे । अटलबिहारी बाजपेयी से मिल लेंगे । उनकी प्रतिमा, मार्ग, ग्रंथावली, डाक-टिकट सब हो जायेगा । हम बैठे हैं ।’ मैं शायद अहंकार पाल ही लेता कि मैं ही क्यों पंडितजी-पंडितजी करूँ । तभी भोजनोपरांत ओम नागपाल ने मुझे एक किताब भेंट की । उसमें विक्रम विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ0 सुमन, कालिदास समारोह के संस्थापक डॉ0 सुमन । मैंने कहा यदि विद्वत लोगों का यह हाल है तो डॉक्टर साहब, मुझे मेरे जीवन के दो वर्ष उनके लिए समर्पित कर लेने दीजिए । मैं 38 का हूॅॅं । शायद दो वर्श और नहीं जियूंॅ लेकिन दो वर्श पंडितजी को समर्पित कर भी दूॅं तो कौन-सा बड़ा नुकसान हो जायेगा ।
मैंने ‘उग्र’ पर काम किया, भगतसिंह पर, हृदय पर, भगवतशरण उपाध्याय पर, प्रभाष जोशी पर काम किया, तब हिन्दी वालों ने कुछ नहीं कहा । सूर्यनारायणजी मेरे मित्र नहीं, शत्रु भी नहीं, आलोचक भी नहीं । बड़े बाप का पुत्र होना ‘शाप’ भी है ‘वरदान’ भी । शाप जानना है तो पूछिए गॉंधीजी के बड़े बेटे हरिलाल गॉंधी से । वरदान जानना है तो पूछिये राजकपूर को, जिसने जवाहरलाल की तरह, मोतीलाल से हटकर अभिनेता, निर्माता, निर्देशक बनकर रूस की सरहदों को छुआ । इसके लिए बहुत बड़ा कलेजा और बहुत समय चाहिए ।
मैं तो केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि वह दौर दूसरा था जब लोग अपना घर खाली करके समाज को भरते थे । सूर्यनारायण व्यास ने अपना घर खाली करके समाज को भरा । आज लोग समाज को खाली करके अपना घर भर रहे हैं । मुझे याद आती है मेरी मॉं श्रीमती विजयलक्ष्मी व्यास की । वे न होती तो पं0 सूर्यनारायण व्यास शायद घर खाली न कर पाते । वे घर खाली करने में बराबर मदद करती रही । इसलिए श्रीमती विजयलक्ष्मी व्यास न होती तो पं0 सूर्यनारायण व्यास न होते । मैं तो उनके सान्निध्य में केवल चार बरस रहा । जब वह युग का ‘जीनियस’ अपनी याददाशत खो बैठा तो मैं उन्हें अखबार पढ़कर सुनाता था । मैं तो साइंस का विद्यार्थी था । मैं तो अब भी कहता हूॅं चुम्बक में कोई स्पर्शीय शक्ति होती है, जिसे लोहे पर घिसने से वह भी चुम्बक बन जाता है ।
तो कहना यही चाहता हूॅं –
‘चंदन की छाया में कुछ दिन रहने का सौभाग्य मिला था,
दुनिया समझ रही मुझको मैं भी मलयानिल हूॅं, चंदन हूॅं ।’
उर्दू के लहजे में कहूँ तो ’
‘ये तुम्हारा नूर है जो पड़ रहा है मेरे चेहरे पर
वरना कौन देखता मुझे इस अंधेरे में ?’
राजशेखर व्यास
पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक दूरदर्शन और आल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली
संपर्क -8130470059
6.In Memory of My Father : हिमालय तुम इतने बौने क्यों रह गए??
8.In Memory of My Father : कैसे भूलूं ‘वो धूप–छॉंव के दिन’