In Memory of My Father: मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी 17th क़िस्त में इंदौर की सपना उपाध्याय अपने पिताजी स्व. कमलाकर उपाध्याय जो मध्यप्रदेश में पुलिस अधीक्षक रहे हैं .उनकी सबसे छोटी दसवीं संतान सपना उपाध्याय उन्हें अपने दोस्त सा मान कर उन्हें सखा संबोधित करते हुए अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर रही हैं —
दुनिया का सबसे सुरक्षित कोना
था पिता का होना।
हम घुड़सवार बने
उनकी ही पीठ पर चढ़कर
उन्ही के कंधों ने हमेशा रखा हमें
दुनिया से ऊपर।
उनकी उँगलियों ने
हमें सिर्फ़ चलना ही नहीं सिखाया,
कैसे बनेगा इस दुनियावी रस्सी पर संतुलन
यह भी दिखाया।—-रामजी तिवारी
17.In Memory of My Father:SP रहे मेरे पिता क्रिश्चियन कॉलेज इंदौर में किशोर कुमार के रूम पार्टनर थे
कहते है कि पुत्र का माता से एवं पुत्री का पिता से अधिक स्नेह होता है ।यह कहावत पूर्ण रूप से सत्य है क्यों की जब एक बेटी जन्म लेती है उसी दिन से उसका पिता उसके उज्जवल भविष्य के सपने देखना एवं ख़ुद को भुलाकर उसी के लिए जीने लगता है जिस दिन उस गुड़िया को विदा करता है तो ऐसा प्रतीत होता है की वो सिर्फ़ एक देह मात्र है उसकी आत्मा उसमें से निकल गई है इस पल को झेल सके ऐसा समर्थ पिता मैंने आज तक नहीं देखा है ,आगे के जीवन में बेटी खुश तो पिता धन्य वरना पिता जीते जी मर जाता है ।महाकवि कालिदास द्वारा रचित “अभिज्ञान शाकुन्तलम् “में शकुंतला के पालक पिता कंनवऋषि वनवासी ,बैरागी होते हुए भी शकुंतला कि विदाई के समय भावुक हो कर अपने अश्रुओं को नहीं रोक पाये ।पिता पुत्री का का सम्बन्ध होता ही ऐसा है ।
चलिए पहले आपका परिचय अपने पिता से करवा देती हूँ ,मेरे पिता श्रीमान कमलाकर उपाध्याय, मध्यप्रदेश शासन में पुलिस अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए तत्पश्चात् इंदौर के एक प्रतिष्ठित अस्पताल में मुख्य सुरक्षा अधिकारी के पद पर दस वर्षों तक कार्यरत रहे । हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि के साथ साथ एलएलबी, साहित्य विशारद भी थे .उनकी उच्च शिक्षा ही हमारी भी प्रेरणा बनी .
जीवन में पिता का सानिध्य सागर के जैसा विशाल और गहरा है.यह रिश्तों की अस्मिता का प्रतीक है । दूसरी तरफ़ हर बिटिया के लिए उसका पिता सुपर हीरो होता है हर वो व्यक्ति जिसे वो चाहती है उसमें वह अपने पिता की छवि ढूँढती है.
मेरे पिता जिन्हें हम बाबूजी कह कर संबोधित करते थे दस संतानों के पिता थे.दुबले पतले ६.१ इंच लम्बे गौरवर्ण जिनके संपूर्ण चांदी जैसे श्वेत केश उनकी विशेष पहचान थी .तीखे नैन नक़्श वाले मेरे बाबूजी पुलिस की वर्दी में बहुत ही सुदर्शन और प्रभावी व्यक्तित्व के मालिक थे ।
मेरे बाबूजी से रिश्ता कैसा रहा होगा सोचे दस संतानों में से मेरा स्थान दसवां था ,अर्थात् जब मैं नौवीं कक्षा में पड़ती थी तब बाबूजी सेवानिवृत्त हो चुके थे । सेवानिवृत्ति के ठीक एक सप्ताह पश्चात ही पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण इंदौर के एक प्रतिष्ठित अस्पताल में मुख्य सुरक्षा अधिकारी का कार्यभार संभाल लिया था।
यूँ तो पुलिस की नौकरी में हमेशा ही चुनौतीपूर्ण कार्य करने होते हैं .कई बार जान का भी जोखिम में होती है . बाबूजी कहा करते थे बेटा यह नौकरी होती ही ऐसी है, हिम्मत और बहादुरी इसकी पहली शर्त है .एक घटना मुझे याद है जब किसी विवाद के चलते इंदौर के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक को भीड़ ने घेर लिया था और उनकी जान खतरे में थी तब बाबूजी ने ही भीड़ से उनकी जान बचाई थी । वे बहुत दबंग पुलिस अधिकारी थे। पुलिस सेवा अपने आप में सराहनीय सेवा है ,लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है की यहाँ सराहना जरा कम ही मिलती ,फिर भी मेरे बाबूजी को सराहना मिली उनके काम रेखांकित हुये.उन्होंने इस सेवा के कार्यकाल में विभिन्न स्थानों पर रहते हुए कई सराहनीय कार्य किए थे और अनेक सम्मान प्राप्त किये थे ।
और यह भी उल्लेखनीय है कि कई बार दंगों में पथराव के दौरान बीच बचाव करने में वे घायल भी हुए थे . मैंने हमेशा मेरी माँ और दादी को बाबूजी के लिए दिन रात ये प्रार्थना करते देखा था .माँ को हमेशा एक ही चिंता होती थी बाबूजी सकुशल घर आ जाएँ .
संगीत में गहरी रुचि रखने वाले मेरे बाबूजी किसी समय में इंदौर क्रिश्चन कॉलेज में किशोर कुमार जी के रूम पार्टनर हुआ करते थे ।और संभव है कि संगीत में रूचि ही इस दोस्ती की शुरुवात रही हो .मेरी संगीत में रूचि पिताजी के कारण ही जागी और मैंने एक दो वाद्य यंत्र सीखे .आज भी जब बाबूजी याद आते हैं तो मैं माउथ ऑर्गन पर उनकी पसंद की कोई धुन बजाती हूँ .
मैं घर में सबसे छोटी थी बाबूजी से मुझे बचपन से ही दोस्त जैसा व्यवहार या प्यार दोनों मिले या मैं उन्हें अपना दोस्त ही बुलाती थी इस नाते हम सखा हुए.सखाभाव भक्ति रस का शब्द है. पिता तो सदा पूज्य होते हैं लेकिन मेरे बड़े होने तक पिताजी का अनुशासन , पाबंदियां .कठोरता नरम होती चली गई थी और हमारे बीच माधुर्य रस में और असंकोच भाव आ गया था .मैं उनसे अपने मन की बात कर पाती थी . तथा दोनों में ही कही बातें पालन की भावना ज्यादा हो गई थी – इन सबके चलते हमारे बिच घनिष्ठता की वृद्धि हो गई थी और सहयोग भाव आ गया था और मैं हर जिद हर मांग मनवा लेती थी वे कहते थे मैं तो इसका पिताजी नहीं सखा हो गया हूँ .सब मीठी बेटी बनकर करावा लेती है ,मैं कहती आप तो मेरी सहेली हो और वे खूब हँसते खुश हो जाते . |मेरी स्मृति में मेरे मित्रवत् मेरे प्रिय सखा मेरे बाबूजी पुलिस अधिकारी होते हुए भी एक नरम दिल एवं संवेदनशील व्यक्ति थे ।
रामकृष्ण परमहंस के अनुयायी थे मेरे बाबूजी । मेरी माँ को अक्षर ज्ञान नहीं था उन्हें प्रतिदिन उत्कृष्ट साहित्य एवं आध्यात्मिक पुस्तकें पढकर सुनाते थे मेरे बालमन पर यह बात अमिट् छाप छोड़ गई ।सबसे छोटी संतान होने के कारण जब मैं युवावस्था में पहुँची तो मेरे बाबूजी शारीरिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर हो चुके थे ,किंतु उन्होंने मेरी परवरिश पर कोई आँच नहीं आने दी ।
बात १९८४-८५ की है जब बाबूजी से मैंने सितार सिखने की इच्छा जताई तो आर्थिक रूप से सक्षम ना होते हुए भी ५०० रुपये प्रतिमाह में घर पर ही संगीत सिखने की सुविधा प्रदान की ।जहां तक मेरा सोचना है , मैंने अपने बाबूजी को अपने जीवन में मेरे साथ हर पड़ाव में बदलते देखा,वे प्रगतिशील थे औरउन्हें मैंने रुढियों को तोड़ते पाया, जो बंदिशें मेरी बड़ी बहनों पर थी या जो अवसर उन्हें नहीं मिले मेरे बाबूजी ने अपने में बदलाव कर वो सारी सुख सुविधा मुझें दी ।
८२ वर्ष की आयु पार करते करते बाबूजी प्रोस्टेड कैंसर से ग्रसित हो गये । उस अवस्था में भी हिम्मत ना हारने वाले मेरे पिता हम भाई बहनों को अस्पताल में बाहर ही रुकने की ज़िद करके अकेले कीमोथेरेपी करवाने जाते थे ।ऐसे जीवटता का प्रतीक मेरे बाबूजी दुनिया से विदा होते होते भी हम सब को जीवन जीने का सफल संदेश दे गये ।
जब हम प्रौढ़ावस्था में होते है तो हमारे पिता वृद्धावस्था में होते है इस अवस्था में प्रायः वो बालस्वरूप व्यवहार करने लग जाते है तब हमारा कर्तव्य है कि जिस तरह उन्होंने हमें बचपन में पाला हम भी उनकी प्यार से देखभाल करे ।यही बाबूजी को मेरा सादर नमन है .
सपना उपाध्याय
सेवा निवृत अध्यापिका इंदौर
16.In Memory of My Father: मेरे पिता यकीनन तानाशाह थे !
15.In Memory of My Father: आज तक वह नाव मन की नदी में कहीं तैर रही है!
रामजी तिवारी की कविता [हिन्दवी से साभार ]