15.In Memory of My Father: आज तक वह नाव मन की नदी में कहीं तैर रही है!

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In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

ये दौलत भी ले लोये शोहरत भी ले लोभले छीन लोमुझसे मेरी जवानीमगर मुझको लौटा दोबचपन का सावनवह कागज़ की कश्तीवो बारिश का पानी.

कड़ी धुप मेंअपने घर से निकलनावह चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना

कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जानाघरौंदे बनाना बनके मिटानावह मासूम चाहत की तस्वीर अपनीवह ख्वाबों खिलोनो की जागीर अपनीना दुनिया का गम था न रिश्तों के बंधनबड़ी खूबसूरत थी वो ज़िंदगानी–  सुदर्शन फ़ाकिर

15.In Memory of My Father: आज तक वह नाव मन की नदी में कहीं तैर रही है!

          मेरे आदर्श, मेरे बाबूजी ……..लगा जैसे किसी ने मुझसे मेरी छांव छीन ली. पिता बच्चों की छाँव ही तो होते हैं चटकती धूप में वे छाँव थे ,और मेरी स्मृतियों में उनकी बनायी वे नाव हैं जो अब भी कहीं मेरे मन की नदी में डूबती उतरती तैरती रहती हैं .बचपन की छाँव और बाबूजी की नाव को याद कर रहा हूँ .ऐसा बहुत  कुछ है जो लिखना हैं पर कहाँ से शुरू करूँ ?क्या कहूं?  मुझे बचपन की कुछ बातें याद हैं और सच कहूं तो मैं उन्हें कभी भूलना भी नहीं चाहता हूं, साइकिल ही पिता की सवारी होती थी, अक्सर जब भी कहीं ले जाते तो साइकिल के डंडे पर मुझे बैठा लिख करते थे। जब भी रोड पर कोई गड्ढा आता तो मैं दर्द से कराह उठता था, लेकिन पिता के साथ बाजार जाने की खुशी में सबकुछ भूल जाया करता था लेकिन एक दिन ऐसे ही जब साइकिल किसी बड़े से गड्ढे में कूद गई तब मैं जोर से चीख पड़ा, लेकिन कुछ बोला नहीं, हवा के सहारे मेरे आंसू की एक बूंद पिता के हाथ पर गिरी और वे वहीं ठहर गए। उन्होंने मुझे रोता हुआ देख साइकिल से उठाकर गोद में ले लिया और खूब प्यार किया। अगली बार से देखा था साइकिल के डंडे पर टॉवेल लपेटा गया और फिर मुझे उस पर बैठाकर बाजार ले जाने लगे। सोचता हूं पिता थे तब कितने आजाद थे, पढ़ाई के बाद खेल ही खेल, उनकी हल्की फुल्की डांट लेकिन कुछ ही देर में मुस्कुराकर गोद में उठा लेना कैसे भूल सकता हूं। समय बीतता गया, मैं कुछ बड़ा हो गया, पिता के नौकरी से घर लौटने के समय से पहले ही अक्सर घर की खिड़की पर बैठ जाया करता था, इसी खिड़की पर बैठने के दौरान बारिश भी देखी और बारिश की झड़ी भी महसूस की।

घर के सामने पानी अक्सर पानी भर जाया करता था, मैं देखता था कि उसमें बड़ी बूंदें ऑक्टोपस जैसा आकार बनाती थी, वह आकार बडे़ होने तक याद रहा और उस आकृति को मैं खोजते हुए दसवीं में पहुंचने के बाद समझ पाया कि बचपन में बारिश की बूंदों की वह आकृति कैसी थी ? पिताजी जब भी भीगकर आते तब  उन्हें  साइकिल पर घर लौटने का संघर्ष करते देखता और दौड़कर भीगते हुए उनके पास पहुंच जाता था। समय बीतता गया। मैं जानता हूं कि मेरा बचपन बहुत यादगार रहा है क्योंकि पिता जब दोपहर में मुझे सुलाते थे और पूछते थे कि शाम को बता क्या चाहिए तुझे ? मैं जिस भी चीज की डिमांड करता था वह मेरे उठने के पहले घर में होती थी। पहले मनोरंजन के नाम पर रेडियो हुआ करते थे, पिता पेट पर रेडियो रखकर गाने सुनते और गुनगुनाते थे, मैं भी उनके बाजू में उन्हीं की तरह स्टाइल में लेट जाया करता था, वे मुस्कुराते और मां की ओर इशारा करते।

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सोचता हूं अब जबकि मैं प्रकृति संरक्षण पर गहन होने का प्रयास कर रहा हूं तो यह भी पाता हूं कि उस समझ का बीजारोपण पिता ने किया था। जब भी बारिश आती तो वे खुद पांच से छह नाव बनाकर देते और कहते थे नाव तैराकर ही आना, डूबेगी तो दूसरी ले जाना, भीगने को कहते थे और नाव कैसे तैराई जाती है वे ही सिखाते थे। आज तक वह नाव मन की नदी में कहीं तैर रही है, लेकिन समय के साथ नदी है भी और सूख भी गई है लेकिन पिता नहीं हैं।
ऐसे ही एक दिन जब पिता के पास उनकी गोद में बैठा था, यही कोई तीसरी या चौथी में पढ़ाई की उम्र थी। बड़े भाई के विवाह की चर्चाएं घर में चल रही थीं, खुशी का माहौल था, पिता भी खुश थे और इसी खुशी-खुशी में मुझसे पूछ बैठे कि तू मुझे अपनी शादी में ले जाएगा या नहीं, मैं तपाक से बोला- तब तक आप जिंदा नहीं रहोगे। पिता की बात पर मेरे जवाब से मां ने मुझे डांटा और भाई ने भी जोरदार डपट लगाई, मैं समझ चुका था कि नादानी में ही सही कुछ गलत हो गया है। पिता ने दुलार करते हुए कहा कि कोई बात नहीं बच्चा है बोल दिया क्या हो गया, समझदार नहीं है। बात आई गई हो गई, समय बीतता गया, पिता एक के बाद एक सभी भाई बहनों सहित मेरी पढ़ाई और फिर विवाह में जुटे रहे, एक समय आया जब सभी का विवाह हो गया था, मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे विवाह का सपना वे सबसे अधिक संजोए हुए थे, जब भी मैं जॉब से अवकाश पर घर लौटता तो वे कहते थे कि तेरी शादी के लिए सामान जोड़ना आरंभ कर दिया है, देखना क्या धूमधाम से विवाह होगा तेरा। समय बीतता गया पिता बीमार रहने लगे थे, मैं कार्य और पारिवारिक जिम्मेदारियों में लगा रहा, कई बार पिता कहते कि बैठ जाया कर तुझसे बात करनी है, मैं कहता कि पहले काम निपटा लूं फिर बैठूंगा आपके पास। बाद में पता चला कि वह कहते रह गए और मेरे पास समय होने के बावजूद मैं उनके पास नहीं बैठ पाया, पता नहीं कितना कुछ रहा होगा उनके मन में मुझसे बात करने को लेकिन…? मेरे विवाह की बात चलनी आरंभ हो गई, पिता भी खुश थे लेकिन तबीयत खराब रहने लगी थी, एक दिन इंदौर में नौकरी के दौरान घर से फोन आया कि जल्दी आ जाओ पिता की तबीयत खराब है। मेरे हाथ से फोन गिर गया, रोते हुए सुबह की सबसे पहली बस पकड़ी, जैसे तैसे घर पहुंचा और सीधे अस्पताल पहुंचा सभी पिता को घेरे खडे़ थे, मैं उनके पास पहुंचा और उनके कान के पास आवाज लगाई- बाबूजी। उन्होंने आवाज सुनते हुए आंखें खोली और मुझे देखते रहे, ऐसा दो बार हुआ, वे मेरी आवाज पर मुझे देखते और आंखें मूंद लेते, मुझे लगा जैसे मैं उन्हें बचा लूंगा, कुछ देर बाद अस्पताल के बाहर मेरे पास सूचना आई कि पिता नहीं रहे। मैं नीम के पेड़ के नीचे बैठ गया और लगा जैसे सिर से आकाश हट गया अचानक। कोई छांव किसी ने छीन ली।

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पिता के निधन के बाद मां की जिम्मेदारी थी, विवाह की बात आरंभ हुई, विवाह तय हो गया। जिस दिन बरात के लिए घर से निकल रहा था बचपन की वह बात याद आ गई कि मेरे विवाह पर आप जीवित नहीं रहोगे, लगा जैसे मेरे ही शब्द मेरे अपने जीवन पर सच हो गए, यह किसी बज्रपात जैसा था, मैं रो रहा था और लोग मुस्कुरा रहे थे कि विवाह के पहले बरात के पहले रोना कुछ अलग था, मेरे अंदर पिता थे मैं उनसे बतिया रहा था कैसे और किससे कहता लेकिन मां मेरे आंसू पौंछ रही थी और समझते हुए इतना ही बोली तू अपने मन पर बोझ मत रख तेरे कहने से कोई तेरे पिता को कुछ थोडे़ ही हुआ है, वे तो तुझे बहुत अधिक प्यार करते थे। अब क्या कहूं जब भी पिता को याद करता हूं तो वह सच याद आ जाता है और मैं बिलख उठता हूं, साथ ही सीख भी याद आती है कि हम अक्सर अच्छा ही बोलें लेकिन बचपन का क्या…वह यह सब कहां समझ पाता है। सोचता हूं पिता सभी भाई बहनों का विवाह कर गए और केवल मेरे विवाह के समय ही नहीं थे। आज भी सोचता हूं काश वह शब्द मैंने न कहे होते तो शायद पिता मेरे साथ होते…। आज भी उन शब्दों के लिए मन मुझे गहरे तक कचोटता है, मैं पिता की तस्वीर के सामने आज भी रो पड़ता हूं कहते हुए कि मुझे माफ कर दीजिए…।
पिता नहीं हैं लेकिन आज अफसोस बहुत है कि काश उस भागती जिंदगी में से कुछ देर ठहरकर बैठ जाता उनके पास, न जाने क्या कहना चाहते थे, कौन सी बातें थीं, भाव थे, नेह था, अपनत्व था, सीख थी जो मैं सुन न सका और वे अपने साथ ले गए। सोचता हूं भाग तो आज भी रहा हूं, काश सुन ही लेता उनकी…उस समय और उस दौर की। मैं कभी उस परमपिता से भी सवाल पूछता हूं कि आखिर ऐसा क्यों होता है कि जब वो इतना नेह करने वाले माता पिता देता है तो हमसे ऐसी भूल क्यों कर हो जाती है, यह प्रार्थना भी करता हूं कि हे ईश्वर ऐसी अछम्य भूल कोई न दोहराए, इसे मैं अपने मन में एक बोझ की तरह रखकर जी रहा हूं, पिता आज भी बहुत याद आते हैं…।

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भावांजलि
संदीप कुमार शर्मा

संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक, पत्रिका

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