2 Police Officers Suicide: “ईमानदार” अथवा “भ्रष्टाचारी” सिद्ध करने के लिए ‘‘आत्महत्या” —एक हथियार?

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2 Police Officers Suicide: “ईमानदार” अथवा “भ्रष्टाचारी” सिद्ध करने के लिए ‘‘आत्महत्या” —एक हथियार?

राजीव खंडेलवाल

हरियाणा पुलिस विभाग के दो अधिकारियों — आईपीएस अधिकारी एडीजीपी वाई. पूरण कुमार और एक सप्ताह बाद सहायक सब-इंस्पेक्टर संदीप कुमार लाठर — की आत्महत्याओं ने अनेक “अनुत्तरित” प्रश्नों को जन्म दिया है। देश के इतिहास में संभवतः पहला ऐसा मामला है, जहाँ एक वरिष्ठ और एक बहुत ही कनिष्ठ अधीनस्थ अधिकारी — दोनों ने परस्पर “विपरीत उद्देश्यों” के चलते आत्महत्या का मार्ग चुनकर एक दूसरे को आरोपित कर “बदनाम” करने का प्रयास किया।

यह सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि मानवीय, सामाजिक और संवेदनशील विषय है। इसलिए विश्लेषण से पहले दोनों मृतात्माओं के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करना उचित होगा। एक सप्ताह के अंतराल में हुई इन दो आत्महत्याओं ने आमजन की बुद्धि और विवेक को कुंठ कर जैसे “ताला जड़ दिया है।” जब तक गहन जांच से सच्चाई सामने नहीं आती, तब तक मामला रहस्य और संशय के घेरे में रहेगा।

 

*”क्या वास्तव में ये आत्महत्याएं हैं— या किसी षड्यंत्र की पटकथा?”*

यह कहना आसान नहीं कि दोनों ने अपनी मर्ज़ी से जान दी—या किसी सुनियोजित “सिस्टम” (तंत्र) का हिस्सा बने। दोनों प्रकरणों में जो सुसाइड नोट्स और एक वीडियो बयान सामने आए हैं, वे कई विरोधाभास और आशंकाएँ पैदा करते हैं। एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी— जिनकी पत्नी भी वरिष्ठ आईएएस हैं, और जिनके साले अमित रतन राफता, पंजाब में बठिंडा विधानसभा से सत्तारुढ़ “आप” पार्टी के विधायक हैं— वे केवल इसलिए आत्महत्या कर लें कि उनके अधीनस्थ अधिकारी ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए? कुछ हजम होने वाला कथानक नहीं लगता?

प्रधानमंत्री के नारे “न खाऊँगा, न खाने दूँगा” के बावजूद भ्रष्टाचार अब ‘‘शिष्टाचार” बन चुका है— यह वाक्य आज के प्रशासनिक परिदृश्य की कटु सच्चाई को उजागर करता है। अभी पंजाब में डीआईजी हरचरण सिंह भुल्लर से 7 करोड़ से अधिक नकदी की बरामदी क्या संकेत करती है?

*”भ्रष्टाचार, जातीय भेदभाव या आंतरिक साज़िश?”*

अब तक जो तथ्य मीडिया में आए हैं, वे संकेत देते हैं कि यह मामला जातिगत भेदभाव, भ्रष्टाचार, मानसिक उत्पीड़न, पुलिस-गैंगस्टर नेक्सस और आंतरिक साजिशों से गहराई से जुड़ा हुआ है।

पूरण कुमार के पीएसओ (पर्सनल सिक्योरिटी ऑफिसर) सुशील कुमार के खिलाफ चल रही जांच में सहायक सब-इंस्पेक्टर संदीप लाठर भी शामिल थे । आरोप है कि पीएसओ को बिना वारंट या प्राथमिकी के पाँच दिन तक अवैध हिरासत में रखा गया और उस पर दबाव डालकर आईजी पूरण कुमार के खिलाफ बयान दिलाया गया। संभावित कारवाई के डर से उक्त दुर्भाग्य पूर्ण आत्महत्या की घटना घटित हुई।

 

*राजनीति व जातीय राजनीति हावी*

घटना का घटित होना और उस पर राजनीति हावी हो जाना, देश का यह चरित्र बन चुका है। राहुल गांधी का एडीजीपी के घर शोक व्यक्त करने जाना और एएसआई के घर न जाना “शुद्ध राजनीति” नहीं तो क्या है? क्योंकि पूरण कुमार “दलित वर्ग” का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो लाठर “जाट वर्ग” का प्रतिनिधित्व करते हैं। बिहार में हो रहे आम चुनाव में दलित वर्ग का महत्व ज्यादा है, न की जाट वर्ग का।

 

*आत्महत्या के बाद आरोपों का सिलसिला क्यों?*

यह प्रश्न अब और भी गहरा हो गया है कि जो व्यक्ति जीवित नहीं है, उस पर मृत्यु के बाद भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर आत्महत्या कर लेना क्या किसी ‘‘नियोजित पटकथा” ‘‘सुनियोजित षड्यंत्र” का हिस्सा तो नहीं? जांच का विषय है? कानूनी रूप से यह सर्वविदित है कि मृत्यु के बाद कोई आपराधिक कार्रवाई संभव नहीं। बदला लेने का प्रचलित हथियार “हत्या” के बदले कहीं आत्महत्या तो नहीं होते जा रहा है? ताकि ‘‘घृणा” की बजाय ‘‘सहानुभूति” मिल सके व तथाकथित उद्देश्यों की पूर्ति भी हो जाए?

 

*”शव का उपयोग! एक हथियार के रूप में?”*

असंवेदनशीलता की इंतिहा यहां तक हो गई कि पूरण कुमार की मृत्यु के 8 दिन बाद तक पोस्टमार्टम नहीं होने दिया गया! मृतक पूरण कुमार की धर्मपत्नी ने ही एक “टूल” के रूप में उपयोग किया। क्या लड़ाई के अन्य कोई *”साधन”* उपलब्ध नहीं रह गए थे? जीवित रहते हुए परस्पर आरोप-प्रत्यारोप, लड़ाई सामान्य सी बात हैं, लेकिन मृत्यु के बाद ‘‘शव” का भी किसी दिशा-विशेष में उपयोग किया जाना — “व्यवस्था” पर गहरा प्रश्न चिन्ह है।

*विशेष जांच दल (एसआईटी) की जांच ‘‘बेमानी” तो नहीं?*

जब प्रार्थी/आरोपी पुलिस विभाग में उच्च पदों पर हो, तब एसआईटी जांच कितनी प्रभावशाली व निष्पक्ष हो सकती है? शायद इसीलिए उच्च न्यायालय में सीबीआई जांच की मांग के लिए PIL (PIL) दायर की गई है, जिसमें अभी सरकार को नोटिस जारी नहीं हुआ है।

मृत्यु पूर्व बयान की स्थापित “अवधारणा” पर चोट तो नहीं?

“मरता हुआ व्यक्ति झूठ नहीं बोलता है”, इसी अवधारणा के आधार पर भारतीय न्याय व्यवस्था में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के अंतर्गत मात्र डाईंग डिक्लेरेशन, (मृत्यु पूर्व बयान) के आधार पर भी सजा दी जा सकती है, यदि वह प्रामाणिक और विश्वसनीय है तो? जिंदगी अमूल्य है। जिंदगी की आहुति देकर जब कोई आरोप लगाता है, तो उसे प्रथम दृष्टिया “नकारा” नहीं जा सकता है। तथापि हरियाणा सरकार ने उक्त सिद्धांत को “सेलेक्टिव” रूप से लागू किया है ऐसा प्रतीत होता है । लाठर के 4 पेज के सोसाइड नोट तथा 8 मिनट के वीडियो मृत्यु पूर्व बयान पर पूरण कुमार की धर्मपत्नी के विरुद्ध प्रकरण तुरंत पंजीयत कर लिया। जबकि पूरण कुमार के मृत्यु पूर्व कथन तथा उनकी पत्नी अमनीत पी. कुमार द्वारा की गई शिकायत जिसमें डीजीपी शत्रुजीत कपूर एवं एसपी नरेंद्र बिजरनिया सहित 16 अफसरों के विरुद्ध आरोप लगाए गए थे, पर कार्रवाई करने में 8 दिन लग गए? परस्पर विरोधी मृत्यु पूर्व बयानो को देखते हुए ऐसा लगता है कि कोई एक बयान तो गलत है? यह भी जांच का विषय होना चाहिए?

 

*”अंततः प्रकरण से उत्पन्न “सुलगते यक्ष” प्रश्न?”*

1. क्या एक एडीजीपी रैंक के वरिष्ठ अधिकारी, जिनकी पत्नी आईएएस हैं और परिवार राजनैतिक रूप से प्रभावशाली है, जातीय उत्पीड़न का शिकार हो सकते हैं — जैसा कि आरोप लगाया?

2. क्या उन्हें भ्रष्टाचार के झूठे आरोपों में फँसाने की कोशिश की गई? जबकि सोशल मीडिया में उनके पास अकूट संपत्ति होने की बात कही जा रही है।

3. क्या उनके अधीनस्थ एसपी और सहायक सब-इंस्पेक्टर, (साइबर सेल) इतनी ऊँची रैंक (एडीजीपी) के अधिकारी के खिलाफ साजिश करने में सक्षम व प्रभावी थे?

4. पूरण कुमार की मृत्यु के बाद उन्हीं के अधीनस्थ “कानून के रखवाले, कहे जाने वाले द्वारा पूरण कुमार के खिलाफ भ्रष्टाचार व यौन शोषण के आरोप लगाना — क्या कानून और नैतिकता के विरुद्ध नहीं है? क्योंकि मृतक के विरुद्ध तो कोई कानूनी कार्रवाई हो ही नहीं सकती है l

5. पूरण कुमार ने अपनी सुसाइड नोट में जिन अधिकारियों को “आरोपित” किया गया था, एक निचली श्रेणी के अधीनस्थ द्वारा ‘‘ईमानदार’प्रमाणित करना — क्या यह कोई दबाव, भय या किसी और ‘‘निर्देशन’’ या पूर्व-नियोजित योजना का परिणाम है?— अथवा यह महज संयोग है?

 

*निष्कर्ष : न्याय व विवेक की परीक्षा?*

पूरा प्रकरण भारतीय न्यायिक व्यवस्था, पुलिस प्रशासन और मानवीय विवेक — तीनों पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है।

क्या अब किसी व्यक्ति की ईमानदारी, भ्रष्टाचार या अपराध सिद्ध करने के लिए ‘‘आत्महत्या” मापदंड होकर एक नया “साधन” “साध्य” के लिए हो गया है? यह आवश्यक है कि उक्त दोनों परस्पर गुथे हुए प्रकरणों की निष्पक्ष, न्यायोचित और स्वतंत्र एजेंसी से उच्च न्यायालय की निगरानी में जांच हो — ताकि “दूध का दूध, पानी का पानी” होकर स्पष्ट हो सके कि यह ‘‘मानसिक तनाव की परिणति” थी या ‘‘सुनियोजित षड्यंत्र। सच्चाई जो भी हो, उसे उजागर करना देश की न्याय-व्यवस्था, प्रशासनिक मर्यादा और जन-विश्वास— तीनों के लिए अनिवार्य है।