In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 27th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्री पंकज पटेरिया को। उनके पिता स्व. श्री गणेश प्रसाद पटेरिया अत्यंत शांत, विनम्र, धार्मिक और परोपकारी प्रकृति के थे .उन्होंने अपने बच्चों को प्रकृति से प्रेम सिखाया, सुबह उठ कर धरती मां को प्रणाम करो, चिड़िया-मुनिया, गाय-कुत्ते को खाना दो .जीवन भर संघर्ष करते अपने पिता को याद करते हुए अपनी भावांजलि दे रहे हैं पंकज पटेरिया …..
पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है
पिता अपदर्शित अनन्त प्यार है
पिता है तो बच्चों को इंतजार है
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है
पिता से ही माँ का बिंदी और सुहाग है
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है–ओम व्यास
27.In Memory of My Father : निरंतर संघर्षों का बड़ा इतिहास थे हमारे बाबूजी
चार दशक से ऊपर लिखने पढ़ने की दुनिया मे रहते हुए, लगता है लेखक होते हुए भी पिताजी पर लिखना बहुत कठिन है।उन्हें मन ही मन प्रणाम कर श्री गणेश करता हूं।हम उन्हें बाबू जी कहते थे । नाम भी श्री गणेश प्रसाद पटेरिया। वे अत्यंत शांत विनम्र धार्मिक और परोपकारी प्रकृति के थे। सरलता इतनी, किसी पर भी भरोसा कर लेते थे।इस कारण जीवन में अपने परायों ने बहुत धोखे दिए।
हमारे पूर्वज द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बुंदेलखंड के कंदेरी नाम के किसी स्थान से सागर होते इटारसी आए थे।परिवार कोई एक बुजुर्ग अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन छेड़े हुए थे।फिरंगी हुकूमत उनके पीछे पड़ी थी। फिर जानकारी नहीं उनका क्या हुआ।क्योंकि वे भूमिगत हो गए थे।इटारसी में पूर्वजो का बड़ा कारोबार जम गया था।रेलवे लाइन के ठेके थे, डाक वितरण का ठेका था। बहुत बड़ा परिवार था। लेकिन कुछ स्वार्थी तत्वों के कारण परिवार में विघटन शुरू हुआ। इसी कारण मेरे पिता ने रेलवे में नौकरी कर ली थी। ब्रिटिश दौर में रेलवे में वे गार्ड बन गए थे। उनके मित्रों में इटारसी के सोने चांदी के जाने-माने व्यवसाई श्री केसरी श्रॉफ , सेठ लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, और रंगून वाले होते थे। हम उन्हे काका जी कहते थे। पिताजी ने उस समय मिशन स्कूल में शिक्षा प्राप्त की थी। जो अब फ्रेंड्स स्कूल कहलाता है। बहरहाल पिताजी ने पुश्तैनी जायदाद से कुछ भी लेने का मन नहीं रखा। और जीवन में संघर्ष करते हुए अपने पुरुषार्थ और मेहनत से धन धान्य से संपन्न हुए।
पिताजी आदिदेव महादेव के परम भक्त थे। हमेशा कहते थे विशंभर नाथ सदा सहाय करते है। मैं बहुत छोटा था परिवार में भी मेरा नंबर सबसे छोटा है। लिहाजा मुझ पर उनका बहुत लाड दुलार था। पिताजी कहते थे बेटा भगवान पर भरोसा रखना चाहिए भगवान हमेशा भक्त के साथ रहते हैं। उनका कहना था मजदूर बनकर काम करो , और बादशाह बनकर खाओ। जैसा भोजन मिले उसे अनपूर्णा का प्रसाद मान स्वीकार करो ,तभे वह अंग लगेगा।
आज भी बाबूजी किसी परेशानी के समय में सपने में आकर बोलते हैं बेटा विशंभर नाथ सदा सहाय करेंगे ओम नमः शिवाय की माला किया करो। मेरे बड़े भाइयों को और भी कई दिव्य अनुभूतियां हैं। पर मेरे हिस्से में क्योंकि छोटा था, बहुत थोड़ी है। दुर्भाग्य से मुझे उनके साथ बहुत कम मिल पाया। नागपुर में वह मुझे अम्मा जी के साथ विद्यानंद महाराज जी के प्रवचन सुनने ले जाते थे । पिता कवित्त लिखते थे, और मधुर स्वर में गाते भी थे।
1958 रेलवे से रिटायर होने के बाद पिताजी हम लोगों को लेकर यही बाप दादा की नगरी इटारसी में आ गए थे। वृद्ध हो गए थे। रोज शाम बड़े मंदिर द्वारकाधीश जी के मंदिर मेरी उंगली पड़कर ले जाते थे। वहां एक महंत जी थे। जो राधेश्याम कहने से चिढ़ते। शाम मंदिर में भजन होते थे पिताजी उसमें भाग लेते थे और मुझे भजन पर महंत जी के कहने पर नाचने का कहते थे। मुझे शर्म लगती थी, लेकिन मैं बालउम्र में कहना मानकर थोड़ा बहुत ठुमकने लगता था। पिताजी ने सिखाया था सुबह उठकर भगवान का नाम लो धरती मां को प्रणाम करो, चिड़िया मुनिया, गाय-कुत्ते, को खाना दो। जितना बन जाए पूजा पाठ करो। किसी से बुरा ना बोलो। सच बोलो और कोई भी काम करने में शर्म मत करो। ईश्वर के प्रति सदा धन्यवादी रहो। वह कहते थे भजन करने से भगवान से बातचीत होती है।
मेरे पास अब उनकी यही यादें और बातें हैं इससे ज्यादा यादें उनकी नहीं है । मैं छोटा ही था तभी 1958 में 18 बंगले में सुबह-सुबह उनकी दुखद मृत्यु हो गई थी जब वह अंतिम सांस से ले रहे थे अम्मा जी ने कहा था बेटा बाबूजी के कान में राम-राम बोलो! मैंने राम-राम बोलना शुरू किया था धीरे से उनकी आंखें बंद हो गई और दो आंसू ढलक लग गए। घर भर में शोक छा गया। मेरा स्कूल में एडमिशन भी नहीं हुआ था। बहुत छोटा था पर क्या हुआ यह समझ आ गया था। जोर जोर से रोने लगा था। 60 साल से ऊपर बीत गए बाबूजी को विदा हुए,पर लगता बाबूजी मुझ मे समा गए। मैं उन्हें और अम्मा जी को पल-पल अनुभव करता हूं। अंत में प्रसंग वश बाबूजी पर लिखिए कविता के कुछ पंक्तियां याद आ गई। अम्मा का विश्वास हमारे बाबूजी थे घर की बुनियाद हमारे बाबूजी थे। दुख तकलीफ निरंतर संघर्षों का बहुत बड़ा इतिहास हमारे बाबूजी थे। खूब फैलाकर पंख उड़ा करते थे खूब बड़ा आकाश हमारे बाबूजी थे। बाबूजी के शांत होने के बाद अम्मा जी ने बड़े संघर्ष से परिवार को संभाला। आज इन दोनों के आशीर्वाद से हम सभी सुखी सानंद है।
* पंकज पटेरिया
वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार
भोपाल
23.In Memory of My Father : जब बेटी ने किया पिता का अंतिम संस्कार!
ओम व्यासकी कविता इंटरनेट से साभार