

पंडित दीनानाथ व्यास स्मृति प्रतिष्ठा समिति भोपाल का आयोजन
परिचर्चा: क्या वर्तमान सामाजिक,नैतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय युवा सही दिशा में अग्रसर हैं?
संयोजक -डॉ. रूचि बागड़देव
पंडित दिनानाथ व्यास स्मृति प्रतिष्ठा समिति भोपाल द्वारा पंडित दीनानाथ व्यास जी की स्मृति में उनके जन्मदिन के अवसर पर ” क्या वर्तमान सामाजिक,नैतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय युवा सही दिशा में अग्रसर हैं?.. विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की गई।परिचर्चा में बड़ी संख्या में रचनाकरों ने अपने विचार व्यक्त किये।
1 .संयुक्त परिवार बिखर रहें हैं और बड़ों का आदर -सम्मान घट रहा है-नीति अग्निहोत्री
इस परिचर्चा में इंदौर की वरिष्ठ लेखिका नीति अग्निहोत्री का कहना है कि” क्या वर्तमान सामाजिक,नैतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय युवा सही दिशा में अग्रसर हैं?..नहीं परिवर्तन तो प्रकृति और समाज का नियम है ,परन्तु वह सकारात्मक दिशा व उचित व सही तो ही सार्थक है। अंग्रेज आये और उन्होंने भारतीयों की शिक्षा प्रणाली बदल दी। भारत में पहले गुरूकुल शिक्षा हेतु होते थे और उसमें सर्वांगीण विकास पर बल दिया जाता था। अधिकतर बच्चे पैतृक व्यवसाय ही संभालते थे या कृषि का कार्य करते थे।
अंग्रेज आये उन्होंने रहन -सहन और शिक्षा को पूरा भौतिरकतावाद पर आधारित कर दिया ,जिसमें अध्यात्म का कोई पुट नहीं है। हमारी संस्कृति मिटाने का प्रयत्न किया गया ,जिसके फलस्वरूप रिश्तों में अपनत्व की ऊष्मा नदारद है ना ही गरिमा है । संयुक्त परिवार बिखर रहें हैं और बड़ों का आदर -सम्मान घट रहा है । रिश्ते औपचारिक हो गये है और बच्चे कोई बंधन याअनुशासन नहीं मान रहे । मनमर्जी के मालिक बन गये हैं बच्चे।
बड़ी -बड़ी कंपनियां आ रहीं हैं और बड़े -बड़े पैकेज हैं जिनके कारण बच्चे विदेश की ओर आकर्षित हो रहें हैं। कहना होगा उन्हें माता -पिता की भी उतनी चिंता नहीं है जितनी अपने स्वार्थ की है । यह स्थिति एक दिन बहुत अ निष्टकारी साबित होगी। बच्चों की दुनिया अलग हो गई है ,जिसमें किसी की घुसपैठ नहीं हो सकती।
नीति अग्निहोत्री
इंदौर (म.प्र)
2 संस्कार ऐसी दवा है जिसका डोज धीरे-धीरे अंतराल के साथ ही दिया जाना उचित है-राघवेन्द्र दुबे
बच्चों या युवाओं में संस्कार आना हमारे पारिवारिक वातावरण और परिवार के सदस्यों के आचार व्यवहार पर निर्भर करता है। प्रायः घर परिवार में वह जिस प्रकार का आचरण व्यवहार होते देखते हैं वैसा ही अनुकरण करने लगते हैं। कभी-कभी संस्कार के नाम पर कर्मकांड या परंपराओं के पालन पर जोर देना भी बच्चों में प्रतिकार की भावना या विद्रोह की प्रवृत्ति उत्पन्न कर देता है। इसलिए संस्कार ऐसी दवा है जिसका डोज धीरे-धीरे अंतराल के साथ ही दिया जाना उचित है। यह डोज दिए जाने के पूर्व हमारे अपने आचरण और व्यवहार का पुनरावलोकन भी करते रहना आवश्यक है। युवा या बच्चे कहीं भटके हुए दिखते हैं तो तुरंत तत्काल उन्हें रास्ते पर लाना संभव नहीं होता, इसलिए पर्याप्त धैर्य और समझदारी की आवश्यकता हमारे अपने में होना चाहिए।
राघवेन्द्र दुबे,इंदौर
3.हम अपनी ऊर्जा का उपयोग दूसरों को समझाने में करते हैं पर स्वयं को नहीं समझा पाते-मंजुला गोंटिया शुक्ला
हमारे जीवन में अशांति, अप्रसन्नता अथवा दु:खों का कारण कोई और नहीं अपितु हम स्वयं हैं। कई बार हमारे द्वारा अपनी अशांति, अपने दुःखों अथवा अपने द्वंदों का कारण दूसरों को मान लिया जाता है। हम जीवन में सुखी तो होना चाहते हैं पर दूसरों को बदल कर, स्वयं को बदल कर नहीं।
हम अपनी ऊर्जा का उपयोग दूसरों को समझाने में करते हैं पर स्वयं को नहीं समझा पाते। स्वयं में बदलाव के बिना हमारा जीवन कभी नहीं बदल सकता। लोग हमें समझें अथवा न समझें पर हमारी समझ में अपना स्वयं का स्वभाव अवश्य आना चाहिए।
दूसरे लोग हमें नहीं समझ रहे हैं, यह चिंता का विषय बिल्कुल भी नही है पर हम स्वयं भी अपने आप को नहीं समझ पा रहे हैं तो यह अवश्य विचारणीय विषय है। स्वयं को जानने का प्रयास करो। जो स्वयं को जान लेता है वो अपने जीवन में घटित हो रही बहुत सारी समस्याओं का समाधान भी स्वयं खोज लेता है।
मंजुला गोंटिया शुक्ला
4 .देश का आभूषण है संस्कृति”-आर्थिक संपन्नता की और आकर्षित न होकर बच्चों को नैतिक मूल्यों से संपन्न बनाएं -शीला मिश्रा
हम जिस देश में रहते हैं उसकी सबसे छोटी व सशक्त इकाई है परिवार। इस इकाई में रचे- बसे-पुष्पित-पल्लवित संस्कार ही समाज की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और जिस देश का सामाजिक ढांचा मजबूत होता है वह देश स्वयमेव मजबूत व सशक्त हो जाता है। मार्क ट्वेन ने कहा था कि “भारत केवल जमीन का एक टुकड़ा नहीं है अपितु यह वह देश है जहांँ सभ्यता व परंपरा सबसे पहले जन्मी और पनपीं ।यही वह देश है जिसने पूरी विश्व को सभ्यता व संस्कृति का पाठ पढ़ाया।” यह कैसी विडंबना है कि आज हम इस देश में इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि हमारे बच्चे संस्कारविहीन क्यों होते जा रहे हैं?
आज समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में जिस तरह से नैतिक और सामाजिक मूल्यों का विघटन हो रहा है वह निश्चित चिंता का विषय है। चूंकि बच्चे की प्रथम शिक्षक मांँ होती है तो यह उसका दायित्व है कि वह बच्चे को संस्कारित करे किंतु दुख इस बात का है कि बच्चा आया या नौकर के भरोसे पल रहा है और मोबाइल या टीवी में कार्टून देखते हुए भोजन ग्रहण कर रहा है। बचपन से ही बच्चे को मांँ अपना समय नहीं दे पा रही है तो वह नैतिक और सामाजिक मूल्यों को किस प्रकार सीखेगा? यह नैतिक मूल्य कोई रटंत विद्या नहीं है यह मूल्य तो अपने व्यवहार के द्वारा बच्चों के मन में रोपित किए जाते हैं। जब बच्चा यह देखता है कि मांँ सुबह उठकर अपने घर के बुजुर्गों के चरण स्पर्श करती है फिर स्नान करके स्वच्छता से भोजन तैयार करती है, ईश्वर की आराधना करती है और बड़े-बुजुर्गों को आग्रह पूर्वक खाना खिलाती है तो उसके मन में बड़ों के प्रति सम्मान की भावना जागृत होती है और इस तरह के संस्कार उसके मस्तिष्क पर अंकित हो जाते हैं। जब कोई मेहमान घर पर आता है तो वह देखता है कि किस प्रकार से उनका अभिवादन किया जाता है, स्वागत सत्कार किया जाता है सामर्थ्य के अनुसार जलपान कराया जाता है तो वह बड़ों का मान करना सीखता है, मिलबांटकर खाना सीखता है।
जब त्यौहार में बच्चा अपने दादा-दादी के घर जाता है तो वह देखता है कैसे पूरा परिवार एक साथ मिलकर त्यौहार की तैयारी करते हैं,घर-द्वार सजाते हैं, ईश्वर की आराधना करते हैं, मिष्ठान्न बनाते हैं और खिलाते हैं, निर्धनों को भोजन व वस्त्र देकर उनको भी खुश रखते हैं। इस प्रकार वह न केवल हमारी संस्कृति से परिचित होता है अपितु सामाजिक समरसता को सीखता है, कला व संगीत को सीखता है, धर्म को जानता है और आपसी स्नेह, सहयोग व प्रेम की संवेदना से पूरित होता है।
आंंगन में माँ के साथ बैठकर जब बच्चा कलरव कर रहे पक्षियों को देखता है ,थोड़े से पानी में पक्षियों के एक समूह को मिलकर चोंच डुबोकर पानी पीते हुए देखता है ,कबूतर को दाना चुगते और आकाश में उड़ते पक्षियों को देखता है,पेड़ पौधों को पानी देता है तब वह वास्तव में प्रकृति से प्रेम करना सीखता है ।
वर्तमान समय में बच्चा भौतिकतापूर्ण जीवन शैली के प्रति आकर्षित हो रहा है। वह टी वी के विज्ञापनों को देखकर महंगे सामानों की फरमाइश करता है, जिन्हें पाकर अपने कमरे में कैद हो जाता है। छुट्टियों में दादा-दादी के घर जाने के बजाय मनोरंजनक टूर पर जाना पसंद करता है। इसीलिये अपने दादा-दादी, नाना नानी, चचेरे भाई बहनों व माता-पिता से उसकी संवादहीनता बढ़ती चली जाती है और रिश्तों में एक तरह की शुष्कता आती जा रही है। जहांँ पहले हमारे आपसी संबंधों में प्रेम व स्नेह का सोता कल-कल कर बहता रहता था, आज वह सोता सूखता जा रहा है, अध्यात्म का भाव लुप्त होता जा रहा है ,बड़ों के प्रति सम्मान की भावना कम होती जा रही है और यह बातें इस बात की ओर संकेत करती हैं कि कैसे पश्चिमी सभ्यता हमारी नौनिहालों को अपनी तरफ आकर्षित कर रही है। समय से सचेत हो जाना ही इस समस्या का समाधान है। युवाओं का दायित्व है कि वे आर्थिक संपन्नता की और आकर्षित न होकर बच्चों को नैतिक मूल्यों से संपन्न बनाएं ,तभी हम नैतिक मूल्यों से समृद्ध परिवार,समाज व राष्ट्र की स्थापना कर पाएंगें।
शीला मिश्रा,भोपाल
5 .युवा अध्ययनशील बने :निरंतर अध्ययन से आप अपने जीवन मे ज्ञान की असीमित रेखा खींच सकते हैं-मनीष मिश्रा ,रायपुर
एक साधक को तीन दिन भिन्न विषयों पर सुनना। जी हां बात थोड़ी सामान्य सी लगे। पर है कुछ विशेष, जो आने वाली पीढ़ी के लिए जरूरी एक संदेश है।
बीते तीन दिन संघ के सह सर कार्यवाह श्री रामदत्त जी को छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान सुनने का अवसर मिला, मेरा उनसे सहज परिचय लगभग सन 1990 है, मेरे घर से नजदीक ही संघ कार्यालय, जागृति मंडल है, चूंकि संघ प्रचारकों का कार्य क्षेत्र व्यापक रहता है, तो प्रचारक, अपने दायित्वों के निर्वहन में अन्य-अन्य स्थानों में पदस्थ होते रहते हैं, तो स्वाभाविक तौर समाज के विभिन्न लोगों से उनका परिचय सहज होता रहता है, प्रचारकों का जीवन रमता जोगी, बहता पानी की तरह ही होता है, यह साधना से कम नहीं, जो नजदीक से इस कार्य शैली को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं, कि उनका कार्य राष्ट्रीय स्तर पर अन्य साधुमार्गी तप साधना से कम नहीं होता है, आदर्श और कठिन जीवन शैली उनके प्रवास का भी अंग होती हैं।
बहरहाल जिस विषय पर लिखने का मन है, वह रामदत्त भईया हैं, प्रचारक बनने से पूर्व वे गणित के मेघावी छात्र रहे, परंतु उन्होंने खुद को राष्ट्र उत्थान की इस साधना कार्य में समर्पित कर दिया।
इन उदबोधनों में, पहला कार्यक्रम अभियंता परिषद का था, जिसमें उन्होंने राष्ट्र की प्रगति और हिंदुत्व की विचारधारा पर उदबोधन रखा, दूसरे दिन माता अहिल्याबाई होलकर के देश-काल में अवदान पर उनका ओजस्वी भाषण, और आज स्वदेश के कार्यक्रम में, राम जी का भाव, परिवारों और राष्ट्र के लिए किस तरह प्रासंगिक है, दीनदयाल सभागृह, रायपुर में उनका धारा प्रवाह और चिंतनशील उदबोधन सुनने का अवसर मिला।
इस पोस्ट को लिखने का आशय यह है कि इतने वर्षों में, वे दुर्ग जिले की एक छोटी सी तहसील पाटन से होते हुए, राष्ट्रीय स्तर पर ओजस्वी वक्ता के तौर पर विषय रख पा रहे। आने वाली पीढ़ियों को इससे यह प्रेरणा तो लेना ही चाहिए, कि निरंतर अध्ययन से आप अपने जीवन मे ज्ञान की असीमित रेखा खींच सकते हैं, खुद को परिष्कृत करते रहना ही वैचारिक दृष्टिकोण से समाज मे आपको आदर का स्थान दिलाता है। राजनीति से इतर भी सकारात्मक चिंतन और अध्यात्म की एक दुनिया है, केवल रॉक स्टारों की नाईट में जाने से बेहतर, कभी अच्छे उदबोधनों को सुनने जाएं, कुछ नया सीखने की प्रेरणा मिलेगी, आने वाली पीढ़ी ही राष्ट्र निर्माता है।
मनीष मिश्रा ,रायपुर
6 .माता पिता का दायित्व हे युवा बच्चों से मित्रवत व्यवहार और घर की परिस्थिति को बताकर सुमार्ग दिखाएं-माधुरी सोनी मधुकुंज
देश की युवा पीढ़ी का भविष्य यदि कोई कर सकता हे तो प्रथम पायदान परिवार का आता हे जहां मां अपने बच्चे का लालन पालन
साम,दाम,दंड,भेद,प्रीति,नियमों पर करती हे जो कि बाल पन से ज़रूरी भी हे।वर्तमान दौर पहले जैसा नहीं रहा जहां परिवार संयुक्त होते थे ,पर्व परम्पराओं में ही बच्चों को संस्कार संस्कृति के गुण नैतिक जीवन के मिल जाते थे।आजकल शिक्षण शाला में नैतिक शिक्षा जैसा कालखंड ही नहीं ??
बढ़ते बच्चों से माता पिता की आशाएं जीवन में हरपल दौड़ में प्रथम आने की उम्मीद लिए होती है।
पैसे के पीछे भागमभाग और करियर की ऊंचाइयों को प्राप्त करना लक्ष्य जरूर हे जीवन में और आज के युग के बच्चे स्वयं आगे रहना चाहते भी हैं क्योंकि सपनों की उच्चाकांक्षाएं परिणाम ही चाहेंगी उत्तम।परंतु युवाओं के कोमल मन को दिग्भ्रमित यदि कोई करते हैं तो वह संगी साथी।
युवा पीढ़ी सही मार्गदर्शन के अभाव में थोड़ी माता पिता की सीख में भला बुरा स्वयं समझ सकती है पर कभी कभी संगी साथियों में व्यसन करने में भी पीछे नहीं हटते।
हर माता पिता का दायित्व हे युवा बच्चों से मित्रवत व्यवहार और घर की परिस्थिति को बताकर सुमार्ग दिखाएं।
नैतिकता समझाए। भौतिकता युग की चाहत भावी पीढ़ी भले रखे पर उन तरीकों की राह माता पिता जानकर उन्हें सही राह दिखाएं।
बच्चे जिद्दी जरूर होते हैं पर कभी कभी परिवार को उन्हें मित्र समझकर उचित अनुचित जानकारी भविष्य के प्रति सचेत जरूर करें।
माधुरी सोनी मधुकुंज
7 . युवा पीढ़ी वर्तमान नैतिक आर्थिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ढल रही है-कुसुम सोगानी
जिसने भी मनुष्य योनि पाई है वह जन्म से बाल्यावस्था युवावस्था और वृद्धावस्था पायेगा ही ।हम भी जब युवा रहे होंगे तो उस समय के शिक्षा दीक्षा वातावरण से ग्रसित ही रहे होंगे । विज्ञान व तकनीकी प्रणाली इतनी विकसित भी नहीं थी तो संचार का माध्यम नगण्य सा था तब केवल घर परिवार गुरुकुल की शिक्षा संस्कार ही काम आते थे अतएव युवाओं में ग़ैर अनुचित कार्य १-२ प्रतिशत ही होते थे किंतु अब मीडिया का प्रचार प्रसार युवावर्ग को उच्च आयाम दे रहा है तो दिग्भ्रमित भी कर रहा है ।भूतकाल से ही समय के साथ परिवर्तन निश्चित है।हर वस्तु बदलती है ,जीवन शैली भी एक अंग है ,तो मनुष्य वृत्ति भी बदलेगी।
समयानुसार आज का युवा वर्ग इतना बदल गया है कि स्वतंत्रता को अपनाते हुये पूर्णत: परतंत्र होता जा रहा है।
इसके दो प्रमुख कारण हैं।
एक बदलता घर का परिवेश जिसे शिक्षा संस्कार की पाठशाला कहते हैं वहतथा दूसरा नई शिक्षा नई आर्थिक व्यवस्था जिसका स्वरूप भारतीय नहीं रहा।जो जैसा बोएगा वैसा काटेगा।युवाओं को क्या दोष दे सकते हैं। नीति प्रणाली
समय कालानुसार चलती है।इलेक्ट्रानिक युग है।तब भी वैज्ञानिक युग में आज का युवा बेहतर खोज शोध प्रयोग करने में सक्षम हो रहा है।अल्पायु में आर्थिक स्रोतोंका निर्वाह कर रहा है। यद्यपि विदेशी परिवेश को अपना रही है युवा पीढ़ी तो
हमारी भारतीयता को स्थापित भी कर रही है ।अतएव युवा पीढ़ी वर्तमान नैतिक आर्थिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ढल रही है ।
कुसुम सोगानी,इंदौर
8 .आज का युवा इंटरनेट पर डिपेंड हो गया है-संध्या पांडेय हरदा
आज के विषय में –वर्तमान सामाजिक, नैतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय युवा सही दिशा में अग्रसर है।
यह बात बिल्कुल सिक्के के दो पहलू की तरह सच है कि हर बात के दो उत्तर होते है। नकारात्मक और सकारात्मक । पर मेरा अपना इस विषय पर निजी मत है।कुछ युवा यदि सही हैं भी तो वे या तो विदेश चले गए हैं या फिर बड़ी बड़ी जगहों पर हैं । वैसे भी इनका प्रतिशत कम है।
आज की युवा पीढ़ी शिक्षित और साधन संपन्न तो है।पर फ़िर भी नैतिक मूल्यों से भटकी हुयी है।नैतिकता का पतन उन्हें सामाजिक परिवेश में घुलने मिलने नहीं दे रहा है। आर्थिक संपन्नता का दुरूपयोग कर के आज का युवा नैतिक और सामाजिक मूल्यों से भटक रहा है। आवश्यकता है परिवारिक, सामाजिक , राष्ट्रीय चेतना की। ताकि युवाओं को सही दिशा मिल सके।आज का युवा जिस परिवेश में बड़ा हुआ है। वह सबकुछ समझता है। फिर भी ध्यान नहीं देता है।
आज के युवा के पास सूचनाएं जल्दी और ज्यादा मिलती हैं।सही गलत का फैसला भी जल्दबाजी में कर लेता है।
तकनीकी ज्ञान अधिक होने से पूरे वैश्विक परिवेश को समझता है।आज का युवा इमोशनल नहीं होकर तार्किक जबाब मांगता है।अपनी जिंदगी और कैरियर की प्लानिंग खुद करता है।अनुभव की कमी और धीरज नहीं होने के कारणआज कायुवा भ्रमित है।सही गलत की जानकारी नहीं रख पाता।आज का युवा इंटरनेट पर डिपेंड हो गया है। यथार्थ के धरातल को छोड़कर।सोशल मीडिया से प्रभावित है। खुद की कोई सोच नहीं है।रिश्तों की अहमियत खत्म सी होती दिख रही हैंआज कमाना और आज ही उड़ा देना उद्देश्य बना लिया हैऐशो आराम की जिन्दगी जीना है। पर मेहनत नहीं करना चाहता शॉर्ट कट ढूंढता है।कम उम्र में नशा करना फैशन हो गया है । फलस्वरूप बीमारियों से घिरने लगा है।
संध्या पांडेय हरदा
9 .सोशलमीडिया,भ्रम,बनावटीपन और प्रतिस्पर्धा में लीन हैं-श्रद्धा जलज घाटे
आधुनिक भारत के वर्तमान परिपेक्ष्य में भारतीय युवाओं के गिरते हुए नैतिक मूल्यों को बचाना और पुनः स्थापित करना एक प्रमुख आवश्यकता है क्योंकि ज्यादातर युवा सही दिशा में अग्रसर नहीं हैं।
नैतिक मूल्यों के बिना ज्ञान,और पैसा समाज के लिए विनाशकारी है।
संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। पहले युवा अपने से बड़ों का अनुकरण कर ही नैतिकता सीख जाते थे।संवेदनशीलता, दया, प्रकृति प्रेम,पर्व परम्पराओं से नैतिकता और संस्कार सीखते थे।
और पैतृक व्यवसाय संभालते थे।
अब उच्च शिक्षित होकर नगरों एवं महानगरों में हैं ।वहां की महंगी जीवन शैली और सुख सुविधाओं पूर्ण जीवन जीने की चाहत के कारण परिवार में स्त्री एवं पुरुष दोनों समान रूप से कार्य करने लगे हैं। दोनों के अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण उनके पास बच्चों की देखभाल के लिए समय का अभाव है ।इसका प्रभाव बच्चों के पालन पोषण और संस्कारों पर विशेष रूप से पड़ रहा है।बाइयों के भरोसे पलते ये बच्चे पढ़ाई की अंधाधुंध दौड़ में बस भागे जा रहे हैं।यही बच्चे आगे जाकर युवा बनेंगे।
ये युवा,संबंधों की गरिमा नहीं समझ रहे हैं। सोशलमीडिया,भ्रम,बनावटीपन और प्रतिस्पर्धा में लीन हैं। धैर्य और अनुभव की कमी के चलते ये मेहनत नहीं करना चाहते हैं।उनकी रचनात्मक शक्ति कम हो रही है।मशीनों की बढ़ती संख्या से बेरोजगारी बढ़ रही है।और युवा अनैतिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
नैतिक मूल्य,व्यक्ति के जीवन के साथ-साथ समाज को भी उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करते हैं। युवाओं को सही दिशा में अग्रसर करने में परिवार,समाज और शैक्षणिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका का अब समय आ गया है।
श्रद्धा जलज घाटे
10. वर्तमान में सामाजिक, नैतिक और आर्थिक परिपेक्ष्य में युवा: एक विस्तृत विश्लेषण-डॉ तेज प्रकाश व्यास
आज की युवा पीढ़ी एक अभूतपूर्व समय से गुजर रही है। तकनीकी प्रगति, वैश्वीकरण और सामाजिक परिवर्तनों ने उनके सामाजिक, नैतिक और आर्थिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया है। यह कहना कि वे ‘सही’ हैं या ‘गलत’ एक सरलीकरण होगा। इसके बजाय, यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे किन विशिष्ट चुनौतियों और अवसरों का सामना कर रहे हैं और इन परिपेक्ष्यों में उनकी स्थिति क्या है।
1. सामाजिक परिपेक्ष्य:
तकनीकी जागरूकता और जुड़ाव:
आज के युवा डिजिटल युग में पले-बढ़े हैं। वे प्रौद्योगिकी के साथ सहज हैं, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का व्यापक उपयोग करते हैं और सूचनाओं तक उनकी त्वरित पहुंच है। यह उन्हें वैश्विक स्तर पर जुड़ने, विभिन्न संस्कृतियों को समझने और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर प्रदान करता है।
वैश्वीकरण का प्रभाव:
युवा पीढ़ी पर वैश्वीकरण का गहरा प्रभाव पड़ा है। वे विभिन्न संस्कृतियों, विचारों और जीवन शैलियों के संपर्क में हैं। इसने उनकी सोच को व्यापक बनाया है और उन्हें अधिक सहिष्णु और खुले विचारों वाला बनाने की क्षमता है। हालांकि, इसके साथ ही पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण और अपनी जड़ों से दूरी जैसी चुनौतियां भी सामने आई हैं।
सामाजिक न्याय और समानता के प्रति जागरूकता:
आज के युवा सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता, नस्लीय भेदभाव और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों के प्रति पहले से कहीं अधिक जागरूक और मुखर हैं। वे इन मुद्दों पर बहस करते हैं, ऑनलाइन याचिकाओं पर हस्ताक्षर करते हैं और विरोध प्रदर्शनों में भाग लेते हैं, जो एक अधिक न्यायसंगत समाज के निर्माण की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
पारिवारिक मूल्यों में बदलाव:
पारंपरिक पारिवारिक संरचना और मूल्यों में बदलाव आ रहा है। एकल परिवार, लिव-इन रिलेशनशिप और विवाह के प्रति बदलते दृष्टिकोण युवाओं के सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। माता-पिता के साथ संवाद की कमी और अकेलेपन की भावना जैसी समस्याएं भी बढ़ रही हैं।
मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियां:
प्रतिस्पर्धा, अनिश्चित भविष्य और सोशल मीडिया के दबाव के कारण युवा पीढ़ी में तनाव, चिंता और अवसाद जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं। इन मुद्दों पर खुलकर बात करने और मदद मांगने की जागरूकता बढ़ रही है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
2. नैतिक परिपेक्ष्य:
अन्याय के खिलाफ आवाज:
युवा पीढ़ी अन्याय, भ्रष्टाचार और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने में आगे रहती है। वे सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से अपनी राय व्यक्त करते हैं और बदलाव लाने के लिए सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। यह एक स्वस्थ और प्रगतिशील समाज का संकेत है।
मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता:
युवा पीढ़ी मानवाधिकारों के महत्व को समझती है और उनके उल्लंघन के खिलाफ खड़ी होती है। वे सभी के लिए समान अधिकार और सम्मान की वकालत करते हैं, जो एक समावेशी समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है।
भौतिकवाद का प्रभाव:
उपभोक्ता संस्कृति और भौतिकवादी मूल्यों का युवाओं पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। वे अक्सर ब्रांडेड वस्तुओं और दिखावे को अधिक महत्व देते हैं, जिससे नैतिक मूल्यों में गिरावट और सामाजिक तुलना की भावना बढ़ सकती है।
तात्कालिक संतुष्टि की प्रवृत्ति:
तकनीकी प्रगति ने युवाओं को तात्कालिक संतुष्टि का आदी बना दिया है। वे हर चीज तुरंत चाहते हैं, जिससे धैर्य और दृढ़ता जैसे मूल्यों में कमी आ सकती है।
नैतिक मूल्यों में भ्रम:
विभिन्न सूचना स्रोतों और मूल्यों के टकराव के कारण युवाओं में नैतिक मूल्यों को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है। उन्हें सही और गलत के बीच अंतर करने में कठिनाई हो सकती है।
3. आर्थिक परिपेक्ष्य:
नवाचार और उद्यमिता की क्षमता:
आज के युवा नवाचारी विचारों से भरे हुए हैं और उनमें उद्यमिता की भावना प्रबल है। वे नए व्यवसाय शुरू करने, तकनीकी समाधान विकसित करने और रोजगार के नए अवसर पैदा करने के लिए उत्सुक हैं।
तकनीकी कौशल:
युवा पीढ़ी तकनीकी रूप से कुशल है और डिजिटल अर्थव्यवस्था की मांगों को पूरा करने की क्षमता रखती है। वे कोडिंग, डेटा विश्लेषण और डिजिटल मार्केटिंग जैसे क्षेत्रों में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।
वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ाव:
इंटरनेट और वैश्वीकरण ने युवाओं को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ने के कई अवसर प्रदान किए हैं। वे दूरस्…
: यह कहना कि युवा ‘सही’ हैं या ‘गलत’ अपर्याप्त है। महत्वपूर्ण यह है कि हम उनकी चुनौतियों को समझें, उनके सकारात्मक पहलुओं को प्रोत्साहित करें और उन्हें एक बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए आवश्यक सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करें। एक समावेशी और सहायक वातावरण बनाकर हम युवाओं की क्षमता का पूरा उपयोग कर सकते हैं और एक अधिक प्रगतिशील और न्यायसंगत समाज का, राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।
डॉ तेज प्रकाश व्यास, एंटी एजिंग साइंटिस्ट,ह्यूमन हार्ट हेल्थ काउंसलर, इंदौर
11 .सबसे पहले हम यह समझ लें कि युवा पीढ़ी हमारी ही संताने हैं-अचला गुप्ता
क्या वर्तमान सामाजिक, नैतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय युवा सही दिशा में अग्रसर है?
इस ज्वलंत विषय पर विचार प्रस्तुत हैं।
सबसे पहले हम यह समझ लें कि युवा पीढ़ी हमारी ही संताने हैं। हमने और लगभग सभी पालको ने उन्हें वही संस्कार दिए हैं जो हमें अपने माता-पिता से मिले हैं।
लेकिन संगत और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के कारण युवा वर्ग अंधानुकरण करते हुए गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। आधुनिक वही है जो व्यसनी है , आडंबरप्रिय है। वस्त्र छोटे होते जा रहे हैं और आकांक्षाएं बड़ी।
अनावश्यक आकांक्षाएं युवा वर्ग को भटका रहीं हैं। वृद्ध माता-पिता बोझ हो रहे हैं और तथाकथित मित्र प्रिय ।
ऐसा नहीं है कि सभी युवा ऐसे ही हैं। बड़े पदों पर भी युवा अपनी मेहनत के बल पर आसीन हैं।
गुड मार्निंग की बजाय अब युवा भी जय श्री राम, जय श्री कृष्णा कह कर अभिवादन कर रहे हैं। दादा , दादी के अनुभवों को सुन रहे हैं….
कहने का तात्पर्य यह है कि बेशक युवा वर्ग भटकने लगा है पर उन्हें मुख्यधारा में लाना हमारा ही कर्तव्य है।
सबसे जरूरी है उनसे बात करना,उनकी समस्याओं को सुनना और प्रेम पूर्वक समझाना।
अचला गुप्ता
इंदौर