

एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति:”मेरी माँ “-
माँ एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति है जो हर किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ‘मेरी माँ ‘श्रृंखला के माध्यम से हम अपनी माँ के प्रति अपना सम्मान ,अपनी संवेदना प्रकट कर सकते हैं –-इस लेख को जरुर पढ़िए बागवानी और फूलों की बात करनेवाले श्री महेश बंसल बता रहे हैं उनकी प्रथम गुरु माँ के जीवन मूल्यों में शामिल जीवन दर्शन ” गाय और कुत्ते की रोटी, चिटियों की पंजेरी, हर संत-फकीर और मित्र को भोजन कराना… यह सब उनके जीवन का हिस्सा था, और हम सब भाई बहन उनके जीवन की पाठशाला के विद्यार्थी थे—जहाँ ‘अतिथि देवो भवः’ सिर्फ वाक्य नहीं, जीवन दर्शन था।” सही कहते हैं, महेशजी माँ के पास डिग्रियां हो तो भी और ना हो तो भी अनुभवों का एक विश्व विद्यालय ही होती हैं वे ,एक कविता याद आ गयी यहाँ –महेश जी आपके लेख को समर्पित है यह —
डिग्रियों के बारे में तो
चुप ही रहीं माँ
बस एक उकताई-सी मुस्कुराहट पसर जाती आँखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
‘उस ज़माने की एम.ए. हैं साहब
चाहतीं तो कॉलेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’
डिग्रियों से याद आया
ननिहाल की बैठक में टँगा
वह धूल-धूसरित चित्र
जिसमें काली टोपी लगाए लंबे से चोग़े में
बेटन-सी थामे हुए डिग्री
माँ जैसी शक्लो-सूरत वाली
एक लड़की मुस्कुराती रहती है.
स्रोत :रचनाकार : अशोक कुमार पांडेय प्रकाशन : हिन्दवी
3.Unique Person My Mother: -एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति: “मेरी माँ ” : -माँ के पास डिग्रियाँ नहीं थीं, केवल अक्षर ज्ञान के बावजूद वह अनुभवों का एक पूरा विश्वविद्यालय थीं
“माँ: परंपरा से परे, करुणा की प्रतिमा”
महेश बंसल ,इंदौर
समाज अक्सर स्त्रियों को रूढ़ियों में बाँधकर देखता है, लेकिन मेरी माँ उन सीमाओं को प्रतिदिन अपने व्यवहार से लांघती रहीं। वह उस दौर में भी अपने विचारों में स्पष्ट, निर्णयों में दृढ़ और करुणा में असीम थीं।
माँ ने अपनी मृत्यु से उन्नीस वर्ष पहले हम दोनों भाइयों को पास बिठाकर कहा था—
“मेरी अंतिम यात्रा में बैंड-बाजे न बजें, कोई नंगे पाँव न जाए, कोई सिर न मुंडाए, और बारहवें में कोई वस्तु न बांटी जाएं।”
जब हमने उनकी इच्छाओं को पूरा करने का वचन दिया, तो माँ ने कहा—
“अब मैं निश्चिंत होकर मर सकूँगी।”
पति, बेटा और बहू की असमय मृत्यु का आघात सहकर भी उन्होंने अपने लिए तय की गई अंतिम व्यवस्थाओं को भी उस समय पूरी गंभीरता से निभवाया।
कुछ वर्षों बाद उन्होंने देहदान का संकल्प भी किया, लेकिन कोरोना महामारी की बंदिशें उस इच्छा को साकार न कर सकीं।
माँ के पास डिग्रियाँ नहीं थीं, केवल अक्षर ज्ञान होने के बावजूद वह अनुभवों का एक पूरा विश्वविद्यालय थीं। छः बेटियों में से किसी से भी कभी कढ़ाई का काम नहीं करवाया—तेल के छींटों से कहीं उनका भविष्य न झुलस जाए! फीट्स की बीमारी होने से 2-4-8 और कभी कभी 25-30 घंटे की बेहोशी से होश में आने पर नित्य कार्य में लग जाती थी।
जब गेहूं बीनने वाली बाई न आती, तब लोगों की नजर में सेठानी मेरी माँ आठ बच्चों के पालन-पोषण के साथ-साथ दुकान का अनाज भी अपने हाथों से बीनतीं।
उस समय जब स्त्रियाँ पर्दे में रहती थीं, माँ दुकान भी संभालती थीं।
एक बार किसी झूठी शिकायत पर पुलिस आई—तो दरवाज़े पर ही माँ ने थानेदार से कहा, “जूते बाहर उतारकर भीतर आइए!”
हमारी बड़ी मां के निधन के पश्चात पिताजी का पुनर्विवाह मां के साथ हुआ था। बड़ी मां की दो बेटी एवं मां को दो बेटे व चार बेटियां, इस तरह हम आठ भाई-बहन है। सबसे बड़ी दोनों बहनों सहित कुछ अन्य बहनों को,शादी के बाद ससुराल में मालूम पढा़ की पिताजी की दो शादी हुई थी।
गाय और कुत्ते की रोटी, चिटियों की पंजेरी, हर संत-फकीर और मित्र को भोजन कराना… यह सब उनके जीवन का हिस्सा था, और हम सब भाई बहन उनके जीवन की पाठशाला के विद्यार्थी थे—जहाँ ‘अतिथि देवो भवः’ सिर्फ वाक्य नहीं, जीवन दर्शन था।
मां का पीहर धार में था। मां ने बताया था कि -“हम बहुत गरीब थे, जंगल से गोबर लेकर आते थे। कन्डें घर पर बनाकर चूल्हें जलाने में काम लेते थे। मां (मेरी नानीजी) मुझे हर सप्ताह चार आने देती थी, उसे मैं खर्च नहीं करती थी। इन जमा पैसों से कान की चेन बनाकर मेरे कन्यादान में दी गई थी।” छुट्टियों में भांजे भांजी जब घर आते थे तो मां उन्हें भी चवन्नी देती थी।
मां ने बताया था कि -“एक बार हम उम्र रिश्तेदार की चप्पल गुम हो गई। उसके परिवार वालों ने मुझ पर चोरी का इल्ज़ाम लगा दिया। तब उनसे मैंने कहा था कि – हम गरीब है तो क्या चप्पल चुराएंगे? गरीबों पर हर कोई शक करता है।”
संवेदनशील एवं करुणा से भरी मां परिश्रम की पराकाष्ठा थी। प्रायः घर पर आने वाले मेरे प्रिय बाल सखा साकेत अग्निहोत्री (दिवंगत) ने मां के बारे में ये शब्द लिखे थे ..जो इस स्मृति में अनमोल रत्न की तरह हैं।
स्मृतियों के ठेठ पर
कुछ धुंधले दिनों के बीच
सूप में गेहूँ फटकती
मित्र की माँ
भूसे के साथ
सारे दुर्दिनों को भी फटक कर
हवा में उड़ा देती है…
कंकर और मिट्टी को चुनते हुए
वह रास्ता भी दिखाती है,
आने वाले दिनों की निर्विघ्न धूप को…
उसके सूप से
दानों के एकसाथ उछलने
और फिर पलटकर लौटने से
उपजने वाले संगीत में
शामिल हैं सूफियों के आदि स्वर
जो इस हफ्ते भी किसी फकीर को
न्यौतेंगे जीमने के लिए…
मेरे मित्र की माँ के चेहरे पर
हर झुर्री में लिखे हैं
संघर्ष के उपन्यास
और करुणा की अजस्र धाराओं वाली
ऐसी कविताएं
जिनका उद्गम में ही धार है…
पता ही नहीं चला,
पिता के न रहने पर
कब वटवृक्ष में परिणत हो गई
मेरे मित्र की माँ
कि वह उसकी छाँह में लेटकर
वैसे ही सुरक्षित है,
जैसे अलंघ्य किले में होते थे शहंशाह…
कभी-कभी जब
सबसे ऊबकर मैं
मित्र की काया में रहने चला जाता हूँ
तब मेरी भी माँ
होती है, मित्र की माँ…
महेश बंसल ,इंदौर
1. Unique Person My Mother: -“मेरी माँ “- श्रीमती प्रीति जलज -सफलता की समर्पित सीढ़ी