

कविता “जिजीविषा”
रहे हम धता बता, जबकि है पता
फल-फूल संग, वायु तुम्हीं प्राण बनाए हो
हम ढीठ, लीच, रहे आंख मीच
है बात ठीक, कि तुम सरमाये हो
पर मंतव्य गहो, न दुविधा में रहो
प्रगति के बीच तुम आए हो
हो जहां खड़े , मार्ग होंगे चौड़े
कार्य में अवरोध लगाए हो
ना सूख रहे, ना ठूंठ रहे
ज़िद पर क्यों अड़ आए हो
हम काट रहे, हम छांट रहे
लो तुम फिर उग आए हो
तुम अद्भुत हो, क्या ‘भृगुसुत’ हो
मन क्यों दृढ़ बनाए हो ???
हे क्षमाशील! हे धीर वीर !
जिजीविषा किस कोटर में छुपाए हो ?