31.In Memory of My Father : कर्मयोगी गृहस्थ संत बाबूजी

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पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता।इस श्रृंखला की 31st. किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं भोपाल की लोक संस्कृति अध्येता डॉ. सुमन चौरे । उनके पिता स्व.श्री शिवनारायण उपाध्याय जी को खंडवा के पास कालमुखी की जमींदारी, मालगुजारी मिली थी ,वे उन्ही दिनों  को याद करते हुए अपने पिताजी को भावांजलि दे रहीं हैं उनकी बड़ी बेटी डॉ. सुमन चौरे…..

“पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः।।”

31.In Memory of My Father : कर्मयोगी गृहस्थ संत बाबूजी

डॉ. सुमन चौरे, भोपाल

बाबूजी की याद बड़ी ही सुखदायी होती है।उनकी याद के साथ कालमुखी की कचहरी (बैठकखाना) का वह ‘आला’(ताक) जिसके साथ लगा उनका पलंग। उस आले में गरल पान करते नीलकंठ का चित्ताकर्षक चित्र। बिस्तर पर पड़े-पड़े हम देखते थे, कैसे आँगन के कुँए से पानी खींचकर खड़े-खड़े, बाल्टियाँ अपने पर डाल लेते थे। सर्दियों के मौसम में तो हम देखकर काँप उठते थे। दुलई सिर तक ओड़ लेते थे। वे सीधे भीतर आकर सफेद फक्क धोती पहन कर ताक के शिवजी पर अकाव या धतूरा फूल चढ़ाकर, अगरबत्ती लगाकर हाथ जोड़ते और कुरता डालते-डालते घर से बाहर। तब तक बैलगाड़ी दरवाजे पर लग जाती थी। वे खेत चले जाते थे।

हमको याद है कि हमारे ऐसे पड़े रहने से उनकी पूजा में कभी बाधा नहीं आई। न, नहाकर बिस्तर पलंग को छूने का शौच-अशौच और न हम जैसे आलसी-उधमी बच्चों पर कोई क्रोध या शिकायत। जितने ‘भोले भगवान शंकर’ उतने ही भोले भाले उनके भक्त।

हमारे बाबूजी शिवनारायण, जिनको परिवारजन प्रेम से ‘शिवा’ और गाँव के लोग ‘छोटे मालिक’ कहा करते थे। छोटे मालिक सदा ही ‘छोटे’ बने रहे यानी बिना दिखावे वाला सादगी भरा जीवन जीते रहे । जीवन में खुशी-गम,मान-अपमान को उन्होंने एक कोने में रखकर अपना कर्तव्य का निर्वहन किया। पिता से विरासत में जमींदारी, मालगुजारीमिली थी। पिताजी को वे ‘भाईजी’ और माँ को ‘भाभी’ करते थे। निमाड़ में पिता-माता के लिए तब यही संबोधन होता था। मालगुजार भाईजी की तीन संताने थीं। तीनों भाईयों में बाबूजी सबसे छोटे थे। भाईजी पूजा-पाठ और मेल-मुलाकात में लगे रहते बड़े भाई पुरूषोत्तम (बाबू) मालगुजारी का हिसाब किताब लिखा-पढ़ी करते थे।

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मझले भाई रामनारायण (जातू) की मालगुजारी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे तो आजादी के आन्दोलन में कूद गए। खेतीबाड़ी, हाट बाजार, लेनदेन, लगान वसूली, कुर्की, नीलामी, सनावद-खण्डवा के हाट का पूरी मेहनत का काम बाबूजी (शिवा) ही देखते रहे। वे ये सारे काम बड़ी खुशी से करते थे। काम के लिए उनके पास एक बहुत ईमानदार घोड़ा भी था। अच्छे घुड़सवार थे बाबूजी। मैं यह नहीं कहूँगी कि बाबूजी और दादा (रामनारायण) एक दूसरे के बिना अधूरे थे या एक-दूसरे के पूरक थे, तथापि सत्य यही था कि वे सदैव एक-दूसरे के साथ ही पूर्ण थे, वस्तुत: दो शरीर एक आत्मा थे। हमारे लिए भी बाबूजी-छोटी बाई ( पिता और माँ सुभद्रा) और दादा-बड़ी बाई (बड़े पिता और बड़ी माँ शकुन्तला) एक ही थे। जैसे वे भाई, वैसा हीअपार स्नेह और एकभाव देवरानी-जेठानी के बीच था।

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बाबूजी के लिए जीवन में कष्ट-मुसीबत, सुख-आराम सब तराजू के पड़ले बराबर ही रहे। ईश्वर की अनन्त पा रही कि खुशी-गम के तराजू में खुशी का पड़ला सदा जमीन से लगा रहा। गम का जितना भार था वह जीवन में एक ही बार मिला वह भी बड़ा भारी। बाबूजी के भाईजी सदाचारी, सत्यव्रती, सदाशयी और बड़े पुण्यात्मा थे। मालगुजार पद का अभिमान उन्हें छू नही सका। ईश्वर को ध्यान में रखकर अपना कार्य करते थे। यही कारण था कि उन्हें घटनाओं और स्थितियों का पूर्वाभास हो जाता था। उन्होंने परिवार के समक्ष घोषणा कर दी थी कि शिवा का विवाह होगा तो मैं उसका जाता मौढ़ देखूँगा लेकिन आता नहीं। चाहे विवाह किसी भी तिथि पर हो। बावजूद उन्होंने पंडित बुलवाकर विवाह की तिथि भी तय कर दी। विवाह मण्डप में सबके सम्मुख अपने विचार रखे कि मेरी बहू-बेटे को कोई अपशकुनी न कहे। मेरी मृत्यु तो निश्चित है इनके विवाह की तिथि को। बाबूजी के सामने बड़ी विचित्र दुविधा प्रस्तुत हो गई थी। बाबूजी की बारात को खुशी के साथ बिदा किया। जिसने अपना गृहस्थ जीवन, मिलन-बिछोह, सुख-दुख, धूप-छाँव के साथ आरम्भ किया हो वह व्यक्ति स्वत: ही विदेह हो गया। पितृतुल्य काका मुंशी रामचरण (मुंशी दाजी) ने भी तीनों भतीजों को पुत्रवत स्नेह दिया और पिता की छाँव को बनाए रखा। आज्ञा पालन, काका व ज्येष्ठ भाइयों की सलाह के बिना एक कदम भी न उठाना ऐसी स्थिति में स्वत: निर्णय अधिकार बाबूजी ने त्याग दिया। जो बड़े कहें वही करना है। और यही स्थिति उनकी अंतिम समय तक रही कोई भी कार्य होता तो अपने बेटों से यहाँ तक की बहुओं से विचार किए बिना निर्णय नहीं लेते थे। हर क्षण काम में लगे रहते थे।

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देश के स्वतंत्र होने के बाद मालगुजारी के काम से निज़ाद मिली किन्तु अच्छी लंबी-चौड़ी खेती थी। खेती का तो सूत्र है “खेती घर सेती, तो उगलमणिमोती।”बाबूजी आधा दिन इस खेत में तो आधा दिन उस खेत में, निगरानी में ही नौकर-हाली-साझी काम करते थे। संपन्नता थी किन्तु किसी प्रकार का गुमान नहीं था। अपना काम बाबूजी स्वयं करते थे। प्रतिदिन अपने कपड़े स्वयं धोते थे। बिना इस्तरी किए कपड़े उन्होंने कभी नहीं पहने। घर कोयले की इस्तरी थी। अपने लिए संचय उन्होनें कभी नहीं किया। चार जोड़ से पाँचवी जोड़ कपड़े हुए तो अपने नौकरों को आवश्यकतानुसार दे देते थे। कहीं गाँव में किसी कार्यक्रम में जाएं या ब्याह शादी में तो कोसे का सोने की बटन सर कुरता और मक्खनडग धोती काली टोपी लगाते थे। बाकी दिनों में तो घर से बाहर निगले कि सिर पर गमछा बाँधा। वो कहते थे कि सिर, कपाल और कान बँधे रहें तो न सर्दी में सर्दी होगी और ना ही गरमी में लू लगेगी। प्रकृति के नियमानुसार वे चलते थे। अत: जीवनभर कभी भी गोली-दवाई नहीं लेना पड़ा। खेती बाड़ी, हाट बाजार सब काम इतना व्यवस्थित तरीके से करते थे कि न कभी काम के लिए समय कम पड़ा और न ही काम के बोझ-घबराहट हुई। लंबा चौड़ा कारोबार देखने के बाद भी बाबूजी सामाजिक दायित्व बड़ी कुशलता से निबाहते थे। किसी घर कार्य हो तो वे उनके घर समय निकाल  दस बार होकर आ जाते। काम में हाथ बँटवा देते थे। घर परिवार में भी काम हो तो पंडित-पुजारी से लेकर नौकर-चाकर सबको मुहूर्त और समय की तागीद देते थे। बैठकर गपशप करना बिल्कुल पसन्द नहीं था। यहाँ तक की सत्यनारायणजी की कथा में भी वे कभी पूरी कथा में नहीं बैठे जबकि कथा में लिखा है कि कथा छोड़ने और प्रसाद त्यागने का श्राप मिलता है। कई लोग विनोद भी करते थे उनकी इस आदत का कि ‘नानाभाई’ (छोटा भाई)एक जगह टिकते नहीं। तो हँसकर जवाब देते कि भगवान् सत्यनारायण इतने छोटे नहीं हैं कि उनकी कथा में से कोई उठे या प्रसाद न ले तो श्राप दे देंगे। ईश्वर और कर्म के प्रति उनकी आस्था और विश्वास इतनी उच्च श्रेणी का था कि इन सब बातों को आडम्बर मानते थे। वे कहते थे, भगवान के डर से उनके सामने बैठने से वे प्रसन्न नहीं होंगे।

अपने बेटों की शादी के लिए लड़कियों के रिश्ते आए या बेटियों के लिए प्रस्ताव रखे तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि हमारे भाई जो करेंगे हमें मंजूर है। मेरा विवाह भी दादा ने तय किया और कन्यादान दादा-बड़ी बाई ने ही किया। वे सदा अपने काम में मगन रहते थे। हाँ, काम से समय निकाल कर लिखते भी थे।

बाबूजी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। बाबूजी के लेखन के विषय में आचार्य प्रभुदयालु अग्निहोत्री जी कहते थे कि, “जैसे मैथिलीशरण गुप्त के कारण सियारामशरण गुप्त उठ नहीं पाए वैसे है शिवनारायण नहीं उठ सके। बड़े वृक्षों के नीचे छोटे पौधेकम ही पनप पाते हैं।“ उस वक्तबाबूजी की आंचलिक कहानियों को प्रेमचंद और जैनेन्द्र दी की कहानियों की श्रेणी में रखा गया था। कविताओं का उनका अपना दर्शन था। निमाड़ी और हिन्दी में उन्होंने कई कविताएँ लिखी, प्रकाशित हुईं, सराही गईं। आकाशवाणी- इन्दौर से उनकी कविताओं और कहानियों का प्रसारण होता था।

वे सुरीले कंठ के धनी थे। मराठी और हिन्दी भजन बड़ी रुचि से गाते थे। मैंने मराठी उन्ही से बात-बात में सीखी। जब मैं बड़ी हुई तो मेरे साथ दो भजन मुक्त कंठ से गाते थे। “साँसों के स्वर झंकार रहे, जयदीश हरे, जगदीश हरे“ दूसरा था “रघुवर की सुधी आई आज मोहे, राम बिना मेरू सूनी अयोध्या लछिमन बिन ठकुराई” तुलसी कृत यह भजन गाते गाते उनका कंठ भर आता था। और मुझे लगता था, वे अपनी पीड़ा गीत में उतार देते थे।

जब मझला बेटा बसन्त कच्छ में डॉक्टर बनकर गया और छोटा बेटा शिशिर बड़वानी, दोनों जगह समय के हिसाब से दूर थी। उस युग में फोन जैसी सुविधा भी सुलभ नहीं थी। कालमुखी छोड़ने का दर्द भी उन्हें भीतर ही भीतर खोखला करता रहा पर विषपायी के भक्त ने सबका विछोह इन गीतों को गाकर कम कर लेते थे।फ़ोटो के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है.

हम बच्चे बड़े हो गए थे। कालमुखी से सब खण्डवा पढ़ने या नौकरी के लिए आ गए। बच्चों के साथ खण्डवा में दादा-बड़ी बाई रहते थे। बच्चों की पढ़ाई, उच्च शिक्षा और शादी-ब्याह के बढ़ते खर्चों ने आर्थिक पहिया कमजोर कर दिया। भूदान यज्ञ में भी बड़ी ज़मीन दान दे दी थी। जनपद अस्पताल के लिए भी जमीन दान दी। गाँव में रहते नकद पैसों की जरूरत कम रही। खण्डवा आते ही हर कदम पर नकद पैसा लगने लगा। स्थायी संपत्ति तो थी किन्तु नकद की मारा-मारी होने लगी।हालात कुछ ऐसे बने कि कुछ खेत निकालने पड़े। लम्बे समय तक परिवार से दूर रहे बाबूजी भी अंततोगत्वा खण्डवा आ गए।

कालमुखी के व्यस्त खेतीबाड़ी के जीवन के साथ परसाई (पंडिताई) का काम भी हमारे परिवार को विरासत में मिला था। बड़े दादा तो सिर्फ गाँव में आग्रह पर ही जाते थे किन्तु बाबूजी कालमुखी सहित हीरापुर, काकरगाँव, मानपुरा, अमोदा, बोराड़ी तक कथा, पूजा, होम, ग्यारी गृहप्रवेश, लग्न विवाह आदि करवाते थे। हमारे परिवार में विवाह हो तो दूसरे पंडित आते थे। वे डरते थे कि कहीं चूक हुई तो छोटे भाई गलती पकड़ लेंगे। बाबूजी पूजन कार्य में भी सिद्ध हस्त थे। मृत्यु आदि उत्तरकर्म न करवाते थे न उनकी दान-दक्षिणा लेते थे। यहाँ तक कि श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण भोजन भी नहीं स्वीकारते थे।

खण्डवा आकर उनके पास काम कम और समय ही समय हो गया।  सुबह उठे स्नान किया, तिलभाण्डेश्वर मंदिर दर्शन करके आए तब कहीं दिन निकलता था। कई लोगों ने सलाह दी की यहाँ पण्डिताई की कमी है, पूजा पाठ करने लगो। तो कहते थे, “मैं लाल-सफेद कपड़ों की पोटली में गेहूँ-चावल वाली पूजा नहीं करता।”

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आर्थिक मदद के बतौर माणिक वाचनालय में काम करने लगे। यूँ तो ग्रंथालयकाम बड़े आदर का होता था, किन्तु एक-दो बार किसी ने अभद्र वाक्य बोल दिये। घर आकर उन्होंने भोजन नहीं किया और सो गए। सबको लगा कि बैठे-बैठे काम करने की आदत नहीं है इसलिए थक गए होंगे। बाद में उन्होने दादा को बताया कि अब मैं ये कार्य नहीं कर सकूँगा। मैं फिर से कालमुखी चला जाऊँगा। देखरेख के अभाव में अच्छी खेती को नौकर बिगाड़ रहे हैं। दादा ने समझाया कि कुछ और काम देखते हैं।

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बाबूजी ने खादी भण्डार में काम करना शुरु किया। हर सप्ताह बुधवार कालमुखी हाट के दिन खेती बाड़ी, धाड़क्या (मजदूरी) और दूसरे काम देखकर अगले दिन वापस आ जाते थे। खेती, गाय- भैंस सब कुछ साझी की देखरेख में छोड़ दी। खादी भण्डार में जब काम की बात हुई थी, तब यही तय हुआ था कि क्रय-विक्रय, माल आयात-निर्यात का कार्य देखना होगा। बाद में व्यवस्थापकों ने और कपड़ा ग्राहकों को बताना और सामान लेन-देन जैसा कार्य भी सौंप दिया। बाबूजी घर आकर बताते थे कि कुछ ग्राहक कैसे एक मीटर कपड़े के लिए पूरी दुकान खंगलवा लेते हैं। एक दिन ग्राहक की बदतमीजी और व्यवस्थापक के असहयोग के कारण वे खड़े के खड़े वहाँ से घर आ गए।

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बाबूजी कालमुखी लौट गए। महीने में एक-दो बार खण्डवा आते थे। वहाँ से सब्जी, घी, अनाज भेजते रहते थे। दादा का स्वास्थ्य खराब होने से पुन: खण्डवा आ गए। कालमुखी के बड़े वाले दोनों घरों को बीच से बन्द कर चार-पाँच किरायेदारों को दे दिया। आर्थिक सम्बल मिलने लगा। किन्तु अप्रैल 1984 में कालमुखी गाँव एक भयंकर दावानल में पूरी तरह जल गया।

मैं भोपाल से खण्डवा गई। बाबूजी को देखकर मन हुआ कि दहाड़मार कर रो लूँ। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कालमुखी उनके साथ गई। मैं हिम्मतकर बाबूजी को सांत्वना के कुछ शब्द बोलना चाह रही थी। लेकिन बाबूजी ने जो कहा उससे लगा कि मेरे गाँव के ‘छोटे मालिक’ कितने बड़े हैं। पूरी तरह राख हो चुके गाँव में मेरे साथ घूमते हुए बोले “देखा  सब भस्मीभूत हो गया। अपना तो खण्डवा में घर है। तीनो सौ घर के गाँव में मात्र दो ही पक्के मकान बचे है। उनमें एक अपना भी है। पर क्या, पूरा गाँव उघाड़ा हो गया?” उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। मैं सोचती रही बाबूजी सच में अपने गाँव को व गाँव हितुओ को कितना प्यार करते हैं।

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गहरी मानवीय संवेदना से पूर्ण थे मेरे बाबूजी। लगता था बाबूजी भावुकता शब्द का भाव ही नहीं जानते थे। मुझे तो याद भी नहीं हे कि कभी बाबूजी हम बच्चों को अंगुली पकड़कर बाजार ले गए हों। या कभी गोदी उठाकर मेले-जत्रा ले गए। घर में दाजी, बड़े दादा, छोटे दादा सब थे। हम बच्चों की आवश्यकताएं क्या थीं उनसे ही पूरी हो जाती थी। और रही लाड़ की बात तो वह भी भरमार मिलता था। बाबूजी एक मूक साधक से हमारे सभी अनजाने मनोरथ पूर्ण कर देते थे। जिसका हमें कभी अहसास ही नहीं हुआ। हमारे टूटे होल्डर की टूटी निब किसने बदल दी, सूखी दवात में स्याही कब किसने भर दी। होली आते ही पलाश के फूल सुखाकर रंग तैयार करना, बाँस-पीतल की पिचकारियों को फिर से रंग फेंकने लायक बना देना। दीवाली पर टिकड़ी के तमंचे दुरुस्त कर देना सब कुछ क्या स्वत: ही होता था? नवरात्र ने के पहले ही सुतार के घर से हमारे डाँडिया चिकने करवा देना, टूर्नामेंट होने के पहले हमारे लिए रस्सी दौड़ की रस्सी, लोटा दौड़ के लिए वछान के पाले की चोमली… सब कुछ बाबूजी ही तैयार कर देते थे। हमारी किसी भी फरमाईश के पहले सारे काम हो जाते थे। किन्तु हमने कभी उनको अपनी सफलताओं की खुशखबरी नहीं दी।

मुझे याद है, जब मेरी पहली बेटी का जन्म हुआ। परम्परानुसार प्रथम प्रसव मायके में होता है। मुझे बड़ा अफसोस हो रहा था, एक तो मायके में आर्थिक तंगी और मेरे पर अतिरिक्त खर्च। मैंने एक दिन एकान्त देखकर कहा, बाबूजी एक खर्च मेरा भी बढ़ा गया। मुझे बुरा लग रहा है। तो उन्होंने कहा,“कैसी बात करती है, पेट में समाया तो क्या हाण्डी में नहीं समाएगा।”

बाबूजी की इच्छा थी कि मैं खण्डवा पढ़ने जाऊँ। कितना ही आगे पढ़ूँ पर सीधा पल्ला की साड़ी बाँधू। मैं पीएच. डी. हो गई। उन्होंने मेरे ग्रंथ को हाथ में लेकर प्रणाम किया और मुझसे कहा, “तूने नौकरी करते हुए और पढ़ने के बाद भी अपनी संस्कृति और पहनावे, रहन-सहन की लाज रखी। मुझे तुझ पर नाज़ है।”

बाबूजी की सोच कितनी उदात्त थी हम समझ नहीं पाए। जब समझने की सूझ आई, वे ब्रह्म में विलीन हो गए। खण्डवा से फोन आया, बाबूजी अस्पताल में भर्ती हैं। सब काम छोड़कर गई। मुझे देखकर बाबूजी ने बाई से कहा देखो लड़कियों को दौड़कर आना पड़ा। बहुत भाड़ा लगता है। मैं ठीक हूँ। बाबूजी बारहों महिने सुबह पाँच बजे तिलभाण्डेश्वर मंदिर दर्शन करने पहुँच जाते थे। मैं मन्दिर गई तो पण्डित जी ने मुस्कुराते हुए पूछा, बाबूजी कहाँ हैं, चार दिन से भगवान् को जगाने नहीं आए। मैंने बताया अस्पताल में भरती हैं। मैं मन्दिर से बेलपत्र लाई और बाबूजी को मुँह में दी। सभी परिवारजन वहीं थे। बाई रोते हुए बता रही थी, बाबूजी ने रात को दो बजे मुझे कहा “बच्चों को घर जाने दो। दिनभर आराम नहीं मिलता। कल अमावस्या है। ग्रहण साढ़े ग्यारह बजे छूट जाएगा। वैशाख समोती अमावस, ऊपर से ग्रहण मुक्ति, नर्मदाजी पर बहुत भीड़ होगी। पहाड़ भी बहुत तपते हैं, कोई कितना ही कहे ओंकारजी मत ले जाने देना। मैं संतुष्ट होकर जा रहा हूँ। मैं नहीं चाहता कि किसी का कान भी ताला (गरम) हो। दशगात कर्म भी रामेश्वरकुण्ड पर ही करवाना।”अपने जाने के बाद भी किसी को तकलीफ न हो इसकी व्यवस्था कर गए थे। हमने कर्मयोगी गृहस्थ संत को पहचानने में देरी की।

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डॉ. सुमन चौरे, भोपाल