मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 34 th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं आज के समय की सबसे बेहतरीन शास्त्रीय उत्तर भारतीय वायलिन वादक, 2004 में लाहौर (पाकिस्तान) में प्रतिष्ठित उस्ताद सलामत अली और नजाकत अली खान पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली भारतीय संगीतकार,कवि चंद्रकांत देवताले की बेटी और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वॉयलिन वादक अनुप्रिया देवताले को .उनके पिता साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हिंदी के प्रसिद्ध कवि चंद्रकांत देवताले अकविता आंदोलन में अग्रणी कवि रहे हैं । उनकी कविताओं की जड़ें गांव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन मेें रही है। उन्होंने मानव जीवन और उसकी विविधताओं की पुरजोर व्याख्या की है। सरल शब्दों में लिखी उनकी कविताओं में जीवन का निचोड़ है. ऐसे महान कवि ,असाधारण व्यक्तित्व और जाग्रत पिता को वायलीन की झंकृत होती लय,ताल और कविता की तरह याद करते हुए आज उनके जन्मदिन पर भावांजलि दे रही हैं अनुप्रिया देवताले ………..
दो लड़कियों का पिता होने से
पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूँ
दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं
सिर्फ़ बेटियों का पिता होने से भर से ही
कितनी हया भर जाती है
शब्दों में
मेरे देश में होता तो है ऐसा
कि फिर धरती को बाँचती हैं
पिता की कवि-आंखें…….
बेटियों को गुड़ियों की तरह गोद में खिलाते हैं हाथ
बेटियों का भविष्य सोच बादलों से भर जाता है
कवि का हृदय
एक सुबह पहाड़-सी दिखती हैं बेटियाँ
कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी थर्राता है
पत्तियों की तरह
और अचानक डर जाता है कवि चिड़ियाओं से
चाहते हुए उन्हें इतना
करते हुए बेहद प्यार।
34. In Memory of My Father-Dr. Chandrakant Devtale: मेरे पिता असाधारण कवि,अद्वितीय व्यक्तित्व
अनुप्रिया देवताले
कितनी ही बार पेन उठाया, एक नयी डायरी उठायी कि कुछ लिख सकूँ, पापा की यादों को, लेकिन यह बहुत मुश्किल भरा है। अब 7 साल हो गए पापा को हमारे बीच से गए, अदृश्यता कहना ज्यादा ठीक लगता है मुझे। कह नहीं सकती कि उनकी याद आती है बल्कि उन्हें एक पल को भी भुला नहीं सकी। कभी-कभी एक अजीब सा खालीपन कचोटता है, एक दर्द, एक तड़प और आँखें बार-बार नाम हो जाती हैं। और कभी मेरी ताकत और हौंसला बन कर मेरे साथ खड़े रहते हैं, हर वक्त मेरे पापा।
इतनी यादें हैं, इतनी बातें हैं – लेकिन जीवन में बहुत कुछ, बहुत देर से समझ में आता है। मैं बचपन से ही घर और माता-पिता से दूर रही। लेकिन पापा के साथ आत्मा का बहुत गहरा सम्बन्ध है मेरा। वे मुझे बहुत अधिक प्यार करते थे।
मेरे संगीत का कारक तो मेरी माँ हैं लेकिन एक थोड़ी अलग किस्म की सृजनात्मकता जो मेरे वादन में आ सकी वह एक कवि की बेटी के लिए ही मुमकिन है। मैं ईश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि मैं एक महान कवि और एक अद्वितीय जागृत व्यक्ति की बेटी हूँ। मैंने अपने पिता जी की छोटी-छोटी बातों को बहुत ध्यान से देखा और महसूस किया तभी मैं यह बात कह पा रही हूँ। वे एक कवि और असाधारण वक्ता हैं यह तो सारी दुनिया जानती है लेकिन उनके होने के पीछे जो चीजें हैं,जो बातें हैं, वह उनका असाधारण व्यक्तित्व है, जिसे उन्होंने बहुत ही सहज, सामान्य और सादगी से जिया, अपनी विलक्षण पैनी नजर के साथ। वे जागे हुए थे, वे चैतन्य थे – बहुत कम लोग उस अवस्था में पहुँच पाते हैं लेकिन आम लोग इसे समझ नहीं पाते थे। कई बार पापा हर चीज को कितनी गहराई तक महसूस करते थे और फिर भी उपर से देख कर, बात कर के ऐसा लगता था कि इन्हें कुछ पता नहीं, ये समझ नहीं सकते, लेकिन वे सब कुछ जानते थे।
उनकी सादगी अचंभित करती थी मुझे। मैं एक संगीतकार, वायलिन वादिका, मैंने अपना जीवन बड़े संगीतकारों के बीच बिताया, नज़दीक से उनके आडम्बरों और बनावटी जीवन को देखा और ऐसे में जब अपने पिता को देखती थी तो मेरा मन भर जाता था। मैं नतमस्तक हो जाती। कितना छोटा सा कमरा। टेबल, कुर्सी, मेज-किताबों से पटा हुआ। थोडा बेतरतीब भी।
उसी जगह, छोटे से शहर उज्जैन में बैठ कर कब उन्होंने ऐसी अद्भुत कविताएँ कैसे लिखीं होंगी। सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है। जो उन्होंने लिखा है, वह किसी की भी सोच से परे है और जब मैं अपने किसी कार्यक्रम के विषय या रचना का नाम उनसे पूछती थी तो वे धाराप्रवाह बोलते थे। मैं हैरान हो कर कहती – ‘पापा आप तो सूर्यदेव हैं। आपकी सोच और पकड़ अद्भुत है। पापा हँस देते और कहते बहुत बोलती है तू.
पापा और मैं रोज सुबह और शाम फोन पर बात करते थे और मैं चाहे दुनिया के किसी भी कोने में रहूँ ये क्रम अबाध रूप से चलता रहता था। रोजमर्रा के मौसम, सब्जियों के हाल, कभी-कभी दिल्ली का प्रदूषण और राजनीति की भी बातें, जो कि बहुत संक्षिप्त होतीं और अन्त में अक्सर कहते मीठा बोलो – संक्षेप में बोलो – जरुरी हो तो ही बोलो।
खाने और खिलाने का कितना शौक था उन्हें, यह तो उनके सभी मित्र जानते हैं। मेरे उज्जैन जाने पर पूरी लिस्ट तैयार करते थे कि कब क्या-क्या बनेगा खाने में। असाधारण कवि पिता से मैंने सामान्य पिताओं की तरह व्यवहार की चाह रखी भी नहीं। उनकी किताबों को लिखने-पढने की अपनी अलग दुनिया थी – बिना कम्प्युटर के – कितनी सुन्दर और जीवन्त। सुबह-दोपहर-शाम के अखबार और पोस्टमैन , जो कितनी सारी डाक ले कर आता था। उज्जैन के घर में बड़े से बागीचे में पेड़-पौधों और पक्षियों के बीच। धूप के टुकड़े में पापा बैठ कर पढ़ते-लिखते रहते लेकिन फिर भी मेरी बचपन की हाथी का बच्चा खरीदने की जिद पर सचमुच मुझे सर्कस ले गए और हाथी के बच्चे से मिले हम। सायकिल से ले कर वायलिन तक जो भी माँगा या चाहा पापा ने मेरा हर शौक पूरा किया। पापा ही पहली बार मुझे ले कर दिल्ली आए और संगीत शिक्षा के लिए प्रेमचन्द से ले कर निर्मल वर्मा तक और गोर्की-चेखव से ले कर ब्रेख्त-नेरुदा तक का साहित्य हम दोनों बच्चों को पढने के लिए पापा देते थे। हमारी गर्मियों की छुट्टियों में रोज एक पेज हमें ‘सुन्दर-लेखन’ जरुरी होता था। ‘बोर’ शब्द उनके शब्दकोष से बाहर था। इसीलिए हम भी कभी बिना टी वी, फोन और कम्प्युटर के दिनों तक में बोर नहीं हुए। ये सब उन्ही की शिक्षा और संस्कार है हम में। उनकी सच्चाई, बेख़ौफ़ जीवन और लेखन मेरी प्रेरणा हैं और उन्हीं की तरह, उन्हीं के रास्ते पर चलने की हर वक्त मेरी कोशिश है।
स्कूल-कालेज के दिनों में पापा की कविताएँ पढ़ कर कविता पाठ में हमेशा प्रथम, वाद-विवाद में हमेशा विपक्ष में – पापा के बताए मुद्दों पर बोल कर वहां भी हमेशा प्रथम रहती थी। इसीलिए आज जो कुछ भी हूँ वह पापा की वजह से हूँ।
पापा की कविताओं को अपने वायलिन पर बजाना, मेरे लिए उनके शब्दों को आत्मा में महसूस करना होता है। और यह नया प्रयोग आधुनिक कविता और वायलिन का मुझे, मेरे दिल के बेहद करीब है।
‘बेटी के घर से लौटना’ कविता उन्होंने मेरे पास दिल्ली से उज्जैन जाते हुए लिखी थी। यह कविता मुझे बहुत प्रिय है। मैं अक्सर पापा की कविताएँ पढ़ती रहती हूँ। अपने संगीतकार दोस्तों को पढ़ कर सुनाती भी हूँ। कमाल की बात यह है कि मेरे बहुत ही प्रिय उस्ताद आमिर खान साहब की गायकी की तरह पापा की कविताएँ कई बार पढ़ कर भी हर बार नयी लगतीं हैं। हर बार कुछ नया अर्थ, नई ऊर्जा और सन्देश –चेतावनी। यह सचमुच अद्भुत है। मेरे पापा ने मुझे भयमुक्त कर दिया है। उन्होंने कितनी बहादुरी से अपनी बीमारी का सामना किया। अपने पिता से मैंने हिम्मती सीखी, सादगी और सच्चाई सीखी। पापा कहते थे – बाजार जाता हूँ, खरीददार नहीं हूँ। किसी चीज का संग्रह नहीं किया उन्होंने। सुबह घूमने जाते थे। कुछ छुट्टे रुपए अपनी जेब में रखते थे। मोहल्ले के सफाई कर्मियों को चाय के पैसे या किसी गरीब ज़रूरतमंद को देते।
बहुत सारी बातें हैं पापा की। मैं अपनी आत्म-कथा में विस्तार से लिखूंगी। लेकिन अभी तो यही जो मेरे पापा मुझसे हमेशा कहा करते थे – गौतम बुद्ध का यह प्रसिद्ध वाक्य ‘अप्प दीपो भव’। अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो। संक्षेप में और मीठा बोलो। कोई भी दिखावा उन्हें पसन्द नहीं था – चाहें उनका जन्मदिन हो या कोई और मौक़ा। मैं उनके नाम के आगे महान या प्रख्यात लिखूं, यह तक नहीं। फेसबुक का उन्होंने बहुत ही नायाब हिन्दी अनुवाद किया था – ‘थोबड़ा पुस्तक’ और हम इस अनुवाद पर बहुत हँसते थे। कभी-कभी मैं उन्हें अपनी फेसबुक दिखाती और उस पर चस्पा साहित्यिक खबरें दिखाती। पाँच-सात मिनट बाद ही कहते ‘बस कर यह थोबड़ा-पुस्तिका’। ऐसा निराला, जीवन से भरपूर, ऊर्जा से भरपूर व्यक्तित्व अब कहाँ मिलेंगे ऐसे लोग। कभी उनके पास बैठ कर महसूस ही नहीं हुआ कि ये कितने बड़े कवि हैं। कविता लिखना उनके लिए कितना सहज था, यह सहजता विरली है। पापा के ही शब्दों में –
“यदि मेरी कविता साधारण है
तो साधारण लोगों के लिए भी
इसमें बुरा क्या, मैं कौन खास…”
“समय की मुठभेड़ों ने ईजाद किया है मुझ को
मैं चाकू हूँ आंसुओं में तैरता हुआ
समुद्र को ढूँढती मछली की तरह हूँ
इस दुनिया में…”
और मेरे दिल को छूने वाली कुछ पंक्तियाँ –
“मैं अपने को जाते हुए देखना चाहता हूँ
जैसे कोई सुई की आँख से देखे
कबूतर की अन्तिम उड़ान
और कहे – ‘अब नहीं है अदृश्य हो गया कबूतर
पर हाँ, दिखायी दे रही है उड़ान।
मैं अपनी इस बची उड़ान की छाया को देखते हुए
अपने को देखना चाहता हूँ।”
अनुप्रिया देवताले
मोबाईल – 09873229922
33 .In Memory of My Father-Dr. Sharad Pagare: पिताजी की साधारण से कालजयी तक की अद्भुत यात्रा………….