मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 45th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है भोपाल की वरिष्ठ लेखिका ,कथाकार शीला मिश्रा को.वे अपने पिताजी के बताये जीवन मूल्यों के किस्से भावुक मन से याद कर रही हैं .वे आयुर्वेद विभाग में डिप्टी डायरेक्टर थे .इस संस्मरण में एक बहुत ही सुन्दर जीवन सिद्धांत है,हमें अपनी जरूरत की वस्तु हमेशा निर्धारित जगह पर ही रखना चाहिए ताकि अँधेरे में भी वस्तु मिल जाय ….शीला मिश्रा अपने पिताजी के एक कोर्ट केस को रेखांकित करते हुए उन्हें अपनी सादर भावांजलि दे रही हैं …
सम्पादन -स्वाति तिवारी
कितनी मुलायम हो जाती है
माथे की शिकन
एक बेटी का पिता बनने के बाद
ख़ुद-ब-ख़ुद छूट जाता है
मुट्ठियों का भिंचना, नसों का तनना
कॉफ़ी हाउस में घंटों बैठना
धीरे-धीरे संयत होता स्वर
धीमे…धीमे…पकती गंभीरता
और, देखते…देखते… मृदु हो उठता चेहरा
एक बेटी का जन्म लेना
उसके भीतर उसका भी जन्म लेना है
सफ़ेद बालों की गिनती
ओवरटाइम के घंटे
सबका निरंतर बढ़ना है.–शुभम श्री [साभार ]
45.In Memory of My Father-Dr. Vishnu Dev Tiwari Adhikaree: जीवन मूल्यों के प्रणेता मेरे पिता-शीला मिश्रा
कोर्ट रुम पूरी तरह से भरा हुआ था ,सरकारी वकील की पूरी दलील सुनने के बाद जब याचिका कर्ता के वकील ने पूरे तथ्य क्रमवार प्रस्तुत किये तो सबके बीच खुसफुसाहट शुरु हो गई। मुख पर विस्मय के भाव के साथ ‘किसी का हक आखिरकार क्यों छीना गया ,’इस पर दबी जबान में बातचीत होने लगी। कुछ ही देर बाद जज ने याचिका कर्ता के पक्ष में फैसला सुनाया और फिर खड़े होकर ताली बजाते हुए कहा -“मैं आपके जज्बे को सलाम करता हूँ तथा हिम्मत की दाद देता हूँ और सच के साथ खड़े रहने के आपके साहस को नमन करता हूँ। मैं अपने फैसले के द्वारा समाज में यह संदेश देना चाहता हूँ कि सच कभी पराजित नहीं हो सकता।”
यह सुनकर पूरा हॉल याचिका कर्ता के सम्मान में खड़ा हो गया और तालियों की गड़गड़ाहट से अपनी खुशी जाहिर की। यह देख याचिका कर्ता डा. विष्णु देव तिवारी अधिकारी के मुख पर मुस्कुराहट के साथ आँखों की कोरों पर नमी विद्यमान थी। यह किसी फिल्म या नाटक का दृश्य नहीं अपितु मेरे पापा डॉ. विष्णु देव तिवारी अधिकारी जी के जीवन का सत्य है।
मेरे पापा ने प्रारंभिक शिक्षा गुरुकुल में प्राप्त की । इसलिए उनमें सत्य व धर्म के प्रति दृढ़ता तथा नैतिक मूल्यों के साथ जीवन-यापन के लिए विशेष आग्रह था। आगे की पढ़ाई उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से की । वहीं वे आचार्य नरेंद्र देव के संपर्क में आये। मेरे पापा जी अपनी विद्वता, वक्तृत्व कुशलता व नेतृत्व क्षमता के कारण ही विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बने तथा उन्हें विश्वविद्यालय द्वारा अधिकारी की उपाधि प्रदान की गई। आचार्य नरेन्द्र देव का शिष्य बनने के बाद देशभक्ति की भावना उनके रग- रग में हिलोरें लेने लगी। उन्होंने कुछ समय पत्रकारिता का कार्य किया फिर स्वतंत्रता सेनानियों की मदद हेतु आगे आये ।इस दौरान घायल तो हुए ही और कुछ समय के लिए भूमिगत भी रहना पड़ा लेकिन किसी न किसी रुप में वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मदद करते रहे।
स्वतंत्रता मिलने के पश्चात वे सरकारी नौकरी में आये। छतरपुर, टीकमगढ़, बिलौआ , राजगढ़, जबलपुर, इन्दौर, भोपाल, बिलासपुर, रायपुर आपकी कर्मस्थली रही। भोपाल में रहते हुए उनके अधीन एक आफिसर को नियमों को अनदेखा करते हुए पदोन्नति देकर उनका सीनियर बना दिया गया ।इस बात का मेरे पिताजी ने बहुत विरोध किया। उनकी बात नहीं सुनी जा रही थी लेकिन जब बात विधानसभा में उठी तो उन्हें पदोन्नति तो दी गई लेकिन तनख्वाह नहीं बढ़ाई गई। इसके विरोध में उन्होंने हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की। स्वाभाविक था कि सरकार के विरोध में कैसे जीत सकते थे किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी ।
रिटायरमेंट के पश्चात वे यह केस सुप्रीमकोर्ट ले गये। छह वर्षों की सुनवाई के बाद फैसला मेरे पापाजी के पक्ष में आया। तब तक हम चारों बहनों की शादियां हो चुकी थीं। इसलिए एक मुश्त राशि मिलते ही उन्होंने अपनी जरुरत के हिसाब से राशि अपने पास रखी बाकी पूरी राशि नजदीकी रिश्तेदार , जिनके यहाँ बेटियांँ थीं और उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर थी ,उन बेटियों की शादी के लिए एफ डी बनाकर दे दी। मेरे पिताजी की धार्मिक आस्था के कारण उनका रुझान संस्कृत भाषा के प्रति विशेष रुप से था। उन्होंने चारों वेदों का अध्ययन किया साथ ही ज्योतिष विद्या भी सीखी । रिटायरमेंट के पश्चात कई लोगों को यह ज्ञान दिया। आज उन्हीं से यह शिक्षा प्राप्त कर कई व्यक्ति पंडिताई का काम करते हुए अपना घर चला रहें हैं।
घर में उनका अनुशासन बहुत सख्त था। वे छह बजे के आस- पास ऑफिस से घर लौटते थे तो उसके पहले हम बहनों का घर में रहना आवश्यक था। हम बहनें ,जहाँ कहीं पढ़ रहे हों ,खेल रहें हों , छह बजने के पांँच मिनट पहले घर लौट आते थे फिर हमारे यहांँ नियमित रुप से संध्या आरती होती थी जो कि संस्कृत में होती थी । हम बहनें माँ के साथ वह आरती गाते , पिताजी पूजाघर के बाहर बरामदे में बैठकर सुनते ।जिस किसी बहन का एक शब्द भी ग़लत उच्चारित होता तो उस दिन उसे वे अपने पास बिठाकर उच्चारण सिखाते। इसके साथ ही नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने के लिए वे संस्कृत में श्लोक सुनाते फिर उसका अर्थ बताकर समझाते ।इन सारे श्लोकों का सार यही होता कि नैतिकता ही मनुष्य का आभूषण है । उन्हें न जाने कितने श्लोक व वेदों की ऋचाएँ कंठस्थ थीं , जिन्हें वे हमें सुनाते और अपनी समृद्ध भारतीय संस्कृति पर गर्व करते। मुझे आज भी उनका वह गर्वोन्नत मुख स्मरण है , जिसे याद कर मैं अपने भारतीय होने तथा उनकी संतान होने पर गर्व से मुस्कुरा उठती हूँ।
एक बात ,जो हम सब बहनों को बहुत बुरी लगती थी वह यह कि हम किसी सहेली के यहांँ नहीं जा सकते थे। हम पूछते तो उनके पास एक ही जवाब होता कि उसे यहांँ बुला लो , तुमलोग कहीं नहीं जाओगी। न बाजार जाना,न बाजार का कुछ खाना, न सिनेमा देखना और न ही श्रृंगार करना , ऐसे सख्त नियम थे। हम बहनें मांँ के पास जाकर अपनी नाराज़गी दिखाते ,ठुनठुनाते, अपनी सहेलियों की स्वच्छंदता का उदाहरण देते परन्तु इन नियमों को तोड़ने का साहस न तो माँ में था और न ही हम बहनों में । तेज आवाज में बोलना ,जोर से हंँसना ,गाने सुनना सब प्रतिबंधित…। कभी हम बहनों की आपस में लड़ाई हो जाती (जो कि अक्सर होती थी )और अगर उनके कानों में पड़ गई तो जोर से केवल एक नाम पुकारते थे और हम सब सहम जाते थे और दूसरी तरफ स्नेह इतना कि ठंड शुरु होने पर हमारे पूरे घर में दरियां बिछ जातीं ताकि हम बहनों के पाँव ठंडे फर्श पर न पड़ें।
उनको बागवानी का विशेष शौक था ।कई तरह की सब्जियां व फल हमारे घर लगते थे। जाड़ों में तो हम पीछे के बगीचे में कुर्सी डालकर वहीं बैठकर पढ़ाई करते और जब कुछ खाने का मन होता तो कभी मूंगफली खोदकर निकालकर खा लेते या गाजर मूली निकालते या मौसमी फल जो बगीचे में रहता,वह स्वाद लेकर खाते, उसके बाद…ओफ्हो…, जो शामत आती ..,एक- एक पत्ती ,फल ,फूल, कली ,सब्जी सब उनकी स्मृति में होती ,एक डंठल भी कम दिखता तो तेज आवाज में -“आज बगीचे में कौन गया था ?” सुनाई पड़ता , हम लोग एक -दूसरे का नाम लगाकर बचने का प्रयत्न करते। जब कभी कोई ग़लती हो जाती तो उनकी डाँट से बचने का एक ही तरीका था कि उनके ऑफिस से आने के पहले पढ़ने बैठ जाओ। हमलोग पढ़ते दिखते तो वे कभी नहीं डाँटते।
उनका अनुशासन ऐसा कि जो चीज उठाई, उसे उसी जगह पर वापिस रखो ,अगर थोड़ी सी भी यहाँ- वहांँ हो गई तो यही कहते कि सामान अपनी जगह पर ऐसा रखो कि अंधेरे में भी मिल जाये। उनका यह वाक्य मैं भी अपने बच्चों से जब कभी कहती तो वे तुरन्त बोल उठते कि ‘मम्मी, अंधेरे में क्यों ढूंढेंगे ,इन्वर्टर है तो अंधेरा क्यों होगा?’ मैं हंँस पड़ती और सोचती ‘उन्हें क्या पता कि हमारे समय में यह सुविधा नहीं थी।’
मेरे हाथ का बना हुआ खाना उन्हें विशेष रुप से पसंद था ।जब खाते तो यह अवश्य कहते कि मेरी माँ भी ऐसा ही भोजन बनातीं थीं। उन्होंने अपनी दस साल की उम्र में ही अपनी माँ को खो दिया था। ममत्व के दुलार से वंचित मेरे पिता अपनी बेटियों के स्नेह से पूर्णतः लबालब रहे।
आज जब कभी पीछे मुड़कर देखती हूँ तो यह विचार मन में अवश्य आता है कि सभी मनुष्य जन्म तो लेते हैं लेकिन मनुष्यता माता -पिता के दिये संस्कारों से आती है । हमारे पापा की सख्ती व अनुशासन में संस्कारों की सीख थी, सेवा-सहयोग की सीख थी, समय के सदुपयोग की सीख थी ।शायद इसी को चरित्र निर्माण कहते हैं। उनके इस रुप में दिये स्नेह व प्यार से अभि सिंचित हम बहनें आज इसी संस्कार रुपी स्नेह से अपनी संतानों को सिंचित कर उन्हें अपनी विरासत सौंप रहीं हैं।
आज उनकी पुण्यतिथि पर मैं निम्न पंक्तियों से उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि दे रहीं हूँ –
“जीवन मूल्यों के प्रणेता,आलंबन थे पापाजी।
त्याग दया श्रम के पर्याय,स्पंदन थे पापाजी।
अध्यात्म की राह पर चलते, अनुशासन थे पापाजी।
नहीं भूलता आपका स्नेह , स्मृति में सदैव पापाजी।”
शीला मिश्रा, भोपाल।