मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 50 th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं इंदौर की लेखक और पत्रकार निशा चतुर्वेदी को । आप पत्रकारिता, जनसंचार और अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि धारी है । आप चिरैया , अमराई और पंचायत परिवार जैसी पत्रिकाओं की लंबे समय तक संपादक रही है । आदिवासी जीवन में बदलाव और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों पर केंद्रित स्मारिका पगडंडी की भी आप लेखिका रही है । निशा लंबे समय से विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में विविध विषयों पर लेखन कार्य से जुड़ी हुई है ।उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी रहे ,प्रजामंडल उन दिनों आजादी की लड़ाई लड़ने वाला सबसे बड़ा संगठन हुआ करता था। प्रजामंडल के पर्चे इंदौर से देवास लाकर विभिन्न स्थानों पर चिपकाते हुए एक रात पोस्टर के साथ उन्हें पुलिस प्रशासन ने उन्हें पकड़ लिया उन्हें थाने ले गए इस तरह वे कई बार जेल भी गए । अपने जीवन मूल्यों के साथ उन्होंने कभी समझोता नहीं किया था .मानव सेवा में उनकी गहरी आस्था थी . जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी…इसी संकल्प के साथ उन्होंने देहदान किया था.उन्हें सादर नमन करते हुए भावांजलि दे रही हैं उनकी बेटी निशा …...
पिता होते हैं …..
हां ….पिता ,
होते हैं बरगद
जिनकी घनी छांव
जीवन की तपन से
देती है सुकून
पिता ,
होते हैं समंदर
जिनकी गहराई में
छुपे होते हैं
जीवन दर्शन के मोती
पिता ,
होते हैं चांद और सूरज
जो देते हैं
शीतलता और ऊर्जा का
सतत प्रवाह
पिता ,
होते हैं नदी स्वरूप
जो सिखाते हैं
वक्त के साथ बहना
पिता ,
होते हैं एक एहसास
जीवन के हर मोड़ पर
जो देता है
ईश्वर की मौजूदगी
का अटूट विश्वास–निशा चतुर्वेदी
50.In Memory of My Father-Shri Suresh Chandra Dubey: जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी…इसी संकल्प के साथ देहदान किया !
निशा चतुर्वेदी
मेरे पिताजी स्वर्गीय सुरेश चंद्र जी दुबे जिन्हें हम पापा जी कहकर पुकारते रहे हैं , वह हमारे पांचो भाई बहन के जीवन की प्रेरणा दाई पाठशाला है । जिनका हर पाठ हमें हर परिस्थितियों में चुनौतियों का मुकाबला करने की शक्ति देता है । जीवन में कई बार सुख दुख आए परंतु उनके द्वारा दी गई सीख ,संस्कार ,हिम्मत, हौसला और प्रोत्साहन से रास्ते अपने आप मिलते भी चले गए । जिनकी अंगुलि पड़कर हमने चलना सीखा ,जिनकी छत्रछाया में रहकर हम बड़े हुए , जिनके सख्त अनुशासन व मार्गदर्शन से हमने अपने जीवन को संवारने का प्रयास किया ,आज उन्हीं से हमारा नाम है और पहचान भी है । जिन पर हमें गर्व है…….
उनका जन्म 17 मार्च 1927 को ग्राम भौंरासा तहसील सोनकच्छ जिला देवास (मप्र) में हुआ था । उनका बचपन गरीबी में बिता । उन्होंने भौंरासा से सोनकच्छ व देवास पैदल जाकर शिक्षा प्राप्त की । उन्होंने प्राथमिक शिक्षा भौंरासा, नेवरी से ली । हाई स्कूल जूनियर देवास से किया । उसके उपरांत नौकरी करते हुए स्नातक और वकालत (एलएलबी) की परीक्षा इंदौर से उत्तीर्ण की ।मैंने अपने पापा जी को हमेशा अपने मन के भीतर और अपने आसपास ही पाया है । बचपन से उनके साथ गुजारे एक-एक दिन मेरी अनमोल यादों की स्मृति में एक पुस्तक की तरह अंकित है । जब भी पुस्तक का एक-एक पन्ना खोलती हूं तो प्रत्येक पाठ मुझे और भी मजबूती प्रदान करता है । ऊर्जा और शक्ति से भर देता है । मैं सोचती हूं. ……उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी कभी हार नहीं मानी । जीवन के हर पड़ाव की जद्दोजहद में जूझते हुए वह अपना रास्ता बनाते गए पर कभी ऊफ़ नहीं किया । इतने बड़े परिवार का पालन पोषण किया ।
पापा जी ने अपना पूरा जीवन बड़े संघर्षों के साथ व्यतीत किया लेकिन कहीं भी वह लड़खड़ाए नहीं । और नहीं घबराए । एक चट्टान की तरह हमेशा तटस्थ खड़े रहकर और आशावादी सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ते गये । वे स्वयं कष्ट सहते गए परंतु अपने बच्चों को वह निखारते गए। उन्होंने हमारे परिवार जनों को तमाम सुख सुविधा प्रदान की। पांचो भाई बहनों को उच्च शिक्षा दिलवाई। रुचि अनुसार हर कार्य करने और हर गतिविधियों में हिस्सा लेने हेतु हमेशा प्रोत्साहित किया। मेरे लेखन को भी उन्होंने गति प्रदान की। मेरी मम्मी जी ने भी विवाह के बाद ही मोंटेसरी ट्रेनिंग किया । जब हम भाई-बहन बहुत छोटे थे। उसके बाद स्कूल में शिक्षिका के पद पर नौकरी करते हुए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी बखूबी तरीके से निभाई। साथ ही पापा जी के विचारों का मान सम्मान करते हुए अपना पत्नी धर्म भी बहुत ही अच्छी तरीके से निभाया। विपत्तियों के समय घबराना नहीं , चुनौतियों से मुकाबला करना , ईमानदारी के साथ अधिक परिश्रम कर अपने जीवन पथ पर चलते रहना और निडरता के साथ सत्य के मार्ग पर डटे रहना …….यह सब हमारे पापा जी की प्रमुख सीख हुआ करती थी।
उनका जीवन दर्शन था ……सादा जीवन उच्च विचार। उन्होंने हमेशा खादी के वस्त्र पहने । उन्होंने अपने जीवन मूल्यों व सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया । इसी कारण कई बार उन्हें कई कठिनाइयां व विरोधों का सामना भी करना पड़ा। देश सेवा , मानव सेवा ,समाज सेवा तो जैसे उनके रग-रग में बसी हुई थी । उनका मानना था कि कर्म ही पूजा है…. सत्य के मार्ग पर चलते हुए अपने नेक कर्म करते चलो और फल ईश्वर पर छोड़ दो……..।
वे स्वभाव से बहुत जिद्दी थे। जो ठान लेते थे उसे करके ही रहते। गुस्से के भी बहुत तेज थे लेकिन वाजिब कारण से उन्हें गुस्सा आता था । बेवजह नहीं । लेकिन हमारे रिश्तेदार , परिवारजन कुछ भी कहने के पहले सोचते थे कई बार । हम भाई-बहन भी अपने मन की बातें हमारी मम्मी के द्वारा उन तक पहुंचाया करते। जबकि वे हृदय से बहुत ही सरल और सहज थे पर हां गलत बातों को वह कभी बढ़ावा नहीं देते थे। अच्छी बातों की दिल खोलकर प्रशंसा भी करते थे। ऊपरी दिखावा , बनावटीपन ,आडंबर से वे कोसों दूर रहे।
उनका जीवन एक खुली हुई किताब की तरह पारदर्शी था। उनका बुनियादी सोच था….जैसे हैं ,वैसे हैं ….!उनके आचार ,विचार और व्यवहार में कहीं कोई अंतर नहीं था। जो वह कहते ,उसे करते भी थे। इसका एक उदाहरण मैं आपसे साझा करना चाहूंगी…….. जब अंग्रेजी हटाओ आंदोलन की लहर चली थी तो उन्होंने उसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और उसकी शुरुआत भी उन्होंने सबसे पहले अपने घर से की। हमें अंग्रेजी पढ़ाने के बजाय हिंदी पढ़ने पर जोर दिया। उनका मानना था कि हिंदी जन जन की और हमारी मातृभाषा है। इसका हमें जोर-शोर के साथ समर्थन करना चाहिए।
वे कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे। समाज में व्याप्त कुरीतियों , रूढ़िवादिता , दहेज प्रथा ,मृत्यु भोज और संकुचित मानसिकता के खिलाफ उन्होंने हमेशा आवाज उठाई और इन सब बिंदुओं का अपने परिवार में पालन भी सुनिश्चित किया । हम पांचो भाई बहनों का लालन-पालन भी स्वतंत्र वातावरण में किया। उन्होंने कभी भी बेटे और बेटियों में भेद नहीं किया। बल्कि बेटियों को वह ज्यादा प्रोत्साहित करते थे।
वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे । स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। कई बार जेल भी गए। कई यातनाएं भी सही। परंतु उन्होंने कभी इसकी सुविधाओं का लाभ नहीं उठाया और नहीं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की शासकीय सुविधाओं हेतु आवेदन किया। अक्सर वे स्वतंत्रता आंदोलन के किस्से हमें जरूर सुनाया करते थे। उन्हें किस्सों में से एक किस्सा है………. उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय विद्यार्थी साथियों के साथ देवास नगर में जबरदस्त तैयारी कर हाथों में पोस्टर लेकर जुलूस निकाला। अंग्रेजों भारत छोड़ो…. इंकलाब जिंदाबाद….. भारत माता की जय…… के खूब नारे लगाए। इस घटना के बाद इंदौर जाकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से संपर्क किया। प्रजामंडल उन दिनों आजादी की लड़ाई लड़ने वाला सबसे बड़ा संगठन हुआ करता था। प्रजामंडल के पर्चे इंदौर से देवास लाकर विभिन्न स्थानों पर चिपकाए। पुलिस प्रशासन ने एक रात पोस्टर चिपकाते हुए उन्हें पकड़ लिया। उन्हें थाने ले गए। वहां उन्हें डराया धमकाया और अन्य साथियों के नाम पूछे परंतु उन्होंने देश प्रेम की भावना लिए प्रत्येक प्रश्न का जवाब…. भारत माता की जय…. इंकलाब जिंदाबाद…. से ही दिया । देवास प्रजामंडल की स्थापना में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
डॉ राम मनोहर जी लोहिया , लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी जैसे दिग्गज समाजवादी नेताओं की मित्र मंडली में वे शामिल रहे और उनकी विचारधाराओं से भी काफी प्रभावित रहे । डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में गठित समाजवादी पार्टी में विभिन्न पदों पर भी रहे और जीवन भर सक्रिय भी रहे । एक घटना मुझे अब तक याद है जिसका वह अक्सर जिक्र किया करते थे…… देवास में समाजवादी पार्टी का गठन किया गया । उन दिनों शिप्रा नदी में बाढ़ आई थी । उन्होंने सप्ताह भर गांव में पैदल घूम-घूम कर जन सेवा की। नगर में कपड़े ,अनाज और जरूरत का सामान एकत्र कर पीड़ितों को पहुंचाने का नेक कार्य किया। समाजवादी चिंतन उन पर इस कदर हावी था कि एक बार देवास जूनियर द्वारा हरिजन सहभोज का आयोजन किया गया । वे भी वहां गए । सेवाएं दी और भोजन भी ग्रहण किया । तब उनसे किसी सज्जन ने प्रश्न किया कि आपको जाति बहिष्कार का भय नहीं है ? क्योंकि ऐसा करने से इसके पूर्व श्री हरि भाऊ जी को जाति बहिष्कृत किया जा चुका था । तब उन्होंने बड़े सहज और बेबाकी से हंसते हुए जवाब दिया…… स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हम जो अपना सर्वस्व अर्पण करने का निश्चय कर चुके हैं तो फिर जाति वाति हमारे लिए गौण है …. हमारे लिए तो केवल मानव धर्म ही सर्वोपरि है……।
ऐसे कई किस्से है जो उनके देश के प्रति समर्पण की कहानी कहते हैं । उनकी आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर थी परंतु अपने देश के प्रति जज्बा, हौसला बुलंद था । सन 1945 में उन्होंने देवास जूनियर में सरकारी नौकरी भी कर ली । वेतन मात्र ₹20 प्रतिमाह था । परंतु स्वतंत्रता आंदोलन का जोश उन पर इस कदर हावी था कि उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी कुछ दिनों के उपरांत ही छोड़ दी और प्रजामंडल की गतिविधियों में सक्रिय हो गए ।
देश की आजादी के बाद भी उनकी राजनीतिक गतिविधियां जारी रही । जब भी चुनावी हलचल होती तो वरिष्ठ और दिग्गज नेताओं का हमारे निवास पर बैठकों का दौर चल पड़ता । कम्युनिस्ट पार्टी के नेता तत्कालीन सांसद होमी दाजी, कामरेड गुंजाल , तत्कालीन शिक्षा मंत्री श्री ओमप्रकाश जी रावल , तत्कालीन सांसद श्री कल्याण जैन जी ,समाजवादी नेता श्री राम गोपाल जी अग्रवाल ,श्री गंगाराम जी तिवारी दद्दू , लाडली मोहन निगम , मधुलिमये आदि दिग्गज नेताओं का हमारे निवास पर आना-जाना लगा रहता था । और जब भी चुनाव होते देर रात तक घर से ही सारी गतिविधियां संचालित होती। चाय नाश्तों का दौर चलता रहता था।
यूं तो पापा जी के साथ मेरी कई अनमोल यादें जुड़ी हुई है। उनमें से एक याद मेरी स्मृति में हमेशा तरोताजा रहती है। जिसे मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहती हूं……… ना कोई चिट्ठी ना कोई संदेश……. जाने वह कौन सा देश ……..जहां तुम चले गए…….. इस ग़ज़ल को जब भी मैं सुनती हूं , मुझे उनकी बहुत ही याद आती है । पापा जी की चिट्ठियों के कारण वे घर , परिवार ,समग्र रिश्तेदार और अपने मित्रों के एक-एक परिवार के बीच अक्सर चर्चा का विषय बना करते थे। मुझे अब भी यह अच्छी तरह से याद है…… जब भी कोई आगंतुक अपने घर आता था तो वह शुरुआती लंबे दौर की चर्चा आपकी चिट्ठियों पर केंद्रित करके ही किया करता था । उनकी चिट्ठी लिखने की शैली और संवाद अदायगी उनकी मौजूदगी का एहसास कराती और घर परिवार की कुशलता और तमाम अन्य जानकारियां भी दे जाती। एक बार मैंने उनसे पूछा था ……..यह चिट्ठी लिखना आपने किस से सीखा…….? तो उन्होंने बताया था कि आजादी के आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी की चिट्ठियों ने मुझे अंतरमन तक बहुत ही प्रभावित किया था। उन्होंने यह भी कहा था की बेटा….. हम तो सिर्फ चंद रिश्तेदारों ,मित्रों और परिवारजनों को ही चिट्ठियां लिखते हैं लेकिन गांधी जी ने तो असंख्य और अपरिचित लोगों को भी चिट्ठीयां लिखकर जागरूक किया । अंग्रेजो के खिलाफ प्रभात फेरिया अन्य गतिविधियों में शामिल होने का आह्वान कर देश के आजादी आंदोलन में आम नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित की थी। बेटा…… अगर हमारी चिट्ठियों से यदि हमारे होने का एहसास किसी दूर मौजूद स्वजन को पता चलता है ……तो एक चिट्ठी लिखने में हमारा क्या जाता है ……? अब भी मैं जब भी किसी घर के दरवाजे पर किसी पोस्टमैन को देखती हूं तो मेरी स्मृति पटल पर उनकी लिखी चिट्ठियां अंकित हो जाती है।
वह अपनी सेहत का और खाने-पीने का बराबर ध्यान रखते थे। सुबह जल्दी उठकर योग ध्यान और व्यायाम भी करते थे। अपने मन को एकाग्रचित करने के लिए वह चैत्र और शारदीय नवरात्रि के दिनों में कभी एक, दो या फिर 3 हजार …..जैसा भी उनका संकल्प होता , रुद्राक्ष माला से गायत्री माता का जाप करते थे।
उन्होंने अपने बच्चों का विवाह भी बड़ी सादगी के साथ बिना किसी लेनदेन के गायत्री पद्धति से संपन्न कराया था जिसे समाज में काफी सराहा भी गया था।
वे प्रखर वक्ता और एक अच्छे पत्रकार थे । उनके आलेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। पाठकों की प्रतिक्रियाएं उन्हें पत्र द्वारा मिलती रहती थी । वह वैचारिक धरातल पर सदैव सुर्खियों में रहते थे।
वह हमेशा अपना काम स्वयं करते थे। अपने स्वयं के कपड़े धोना , शर्ट आदि में बटन टांकना , उधडे हुए कपड़ों को अपने हाथों से सीना और यहां तक कि उनके कपड़ों का रफू व थेगला तक वह अपने हाथों से लगा लेते थे । उनका मानना था कि जहां तक हो सके कपड़ों का पूरी तरह से उपयोग करना चाहिए। हमारे देश में कई लोग ऐसे हैं जिन्हें अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है। उन्होंने अपनी थाली में कभी भी झूठा नहीं छोड़ा। वह हमेशा हमें यही शिक्षा देते थे कि अन्न देवता है । इनका अपमान कभी नहीं करना चाहिए। फीजुल खरची उन्हें पसंद नहीं थी। वे अक्सर कहा करते थे…..जितनी आवश्यकता है उतना ही खरीदो और हमेशा जरूरतमंदों की मदद करते रहो।
हमारे घर परिवार में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। परिवार की गाड़ी पटरी पर आ ही रही थी कि अचानक सन 1995 में मेरी मम्मी श्रीमती मनोरमा देवी दुबे का स्वर्गवास हो गया। हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मम्मी इतनी जल्दी हम सभी को छोड़कर चली जाएगी। इस घटना ने हम सभी परिवार जनों को हिला कर रख दिया। हम संभल ही नहीं पा रहे थे परंतु ऐसे समय में भी पापा जी ने हमें हिम्मत दी , हौसला दिया और समझाया कि विधि के विधान को आज तक कौन टाल पाया है…? इस सच को भी हम सभी को स्वीकार करना होगा और एक दूसरे का ध्यान रखकर आगे बढ़ना होगा ।उन्होंने मम्मी व पापा दोनों की जिम्मेदारियां बखूबी निभाई। यहां तक कि मेरी छोटी बहन और एक छोटा भाई जो की अविवाहित थे उनकी शादी भी करवाई और घर परिवार दोनों को एक मजबूती के साथ जोड़े रखा।
उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि उनका मनोबल बहुत सशक्त था। कितनी भी विषम या कठिन परिस्थिति हो वह उनसे जूझते हुए हंसते मुस्कुराते निकल ही जाते थे। वह हमेशा यही कहते थे कि यही तो जीवन के अनुभव है और इसी से हम सिखते भी है।
मैंने कभी उन्हें आराम से बैठते हुए नहीं देखा। हमेशा वे अपने किसी ने किसी कार्यों में व्यस्त ही रहते। सर्दी ,खांसी हो या फिर बुखार काड़ा पीकर अपनी बीमारी ठीक कर लेते थे। आराम शब्द शायद उनके शब्दकोश में था ही नहीं। उनकी सक्रियता ही उनकी अच्छी सेहत का राज था।
उन्होंने अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में भी समाज में एक मिसाल कायम की । 23 सितंबर वर्ष 2013 को उनका देहावसान हुआ । उनके संकल्प अनुसार….. जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी…. परिवारजनों ने इंदौर के मेडिकल कॉलेज में मानव सेवा हेतु देहदान और नेत्रदान किया । उन्होंने जब देहदान का संकल्प लिया और इस कार्य हेतु आवेदन भरा था तब परिवार जनों के हस्ताक्षर लेते समय सभी को समझाया था…….. यह शरीर मृत्यु के बाद पांच तत्वों में विलीन हो जाता है। लेकिन अगर मृत्यु के बाद हमारे शरीर का कोई भी अंग यदि किसी के भी काम आ सके तो इससे बड़ी मानव सेवा और महादान और क्या हो सकता है। इससे हमारा शरीर ….जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी ……किसी और का जीवन रोशन करता है।
उनके द्वारा किए गए इस प्रेरणादायी कार्य का लगभग सभी समाचार पत्र ,पत्रिकाओं में सकारात्मक स्टोरी के रूप में व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। समाज में भी उनके इस एक कार्य को काफी सराहा गया और वह प्रकाश स्तंभ बने।
………..जब भी मैं इंदौर के पुराने एबी रोड स्थित इंदौर मेडिकल कॉलेज के रास्ते से गुजरती हूं तो कुछ देर के लिए वहां थम सी जाती हूं ….. मुझे ऐसा एहसास होता है कि वह मुझसे कह रहे हैं कि बेटा निशा….. रुक जाना नहीं….. तू कहीं हार के ……कांटों पर चलकर मिलेंगे…. साएं बहार के……. उनका मुस्कुराता हुआ शांत चित्त चेहरा मेरी आंखों के सामने आ जाता है….। तब मैं अपनी तमाम भावनाओं को मन में समेटे हुए पुनः हिम्मत बटोर कर एक नई ऊर्जा व शक्ति के साथ उनके बताए हुए रास्ते पर चलने की कोशिश करने लगती हूं……।
…उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ सदर कोटि-कोटि नमन……।
48.In Memory of My Father-Shri Jugal Kishore Dubey : मेरे पिता को झूठ पसंद नहीं था- प्रवीण दुबे