

मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की63 rd किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है ,इंदौर की साहित्यकार ,शिक्षिका श्रीमती आशा जाकड़ को। वे लम्बे समय तक सेंट पाल स्कूल में हिंदी की शिक्षक रही हैं। उनके गुरु उनके उनके शिक्षक और आदर्श उनके पिताजी ही रहे। आशा जी अपने पढ़ाई के दिन और संघर्षों को याद करते हुए अपने पिताजी श्री राजाराम वर्मा को अपनी भावांजलि दे रही हैं —
63. In Memory of My Father-shri Rajaram Verma : मेरे पिता विद्यादान को सबसे बड़ा दान कहते थे
आदर्श गुरु व आदर्श पिता
मेरे पिताजी पिता होने के साथ-साथ एक अच्छे शिक्षक व गुरु थे। मेरे आदर्श गुरु व आदर्श पिता ही मेरी प्रेरणा स्रोत रहे हैं। पिताजी शिक्षक होने के कारण बड़े अनुशासन प्रिय थे ।घर में भी हम सब पिताजी की उपस्थिति में चुपचाप पढ़ते थे या कोई काम करते थे।
आज मैं जो अपने जीवन में हूंँ वह पिताजी की शिक्षा व संस्कार का परिणाम है। वे विद्यादान को सबसे बड़ा दान कहते थे। वे कहते थे कि हमारे पास धन तो नहीं है पर हम विद्यादान तो कर ही सकते हैं। स्कूल में शिक्षण के अलावा वे घर पर भी कोचिंग लेते थे। कॉमर्स के लैक्चरार होने से वे घर पर 9, 10, 11 और12 कक्षा की अलग-अलग कोचिंग लेते थे। जो बच्चे गरीब होते थे और पढ़ने के इच्छुक होते थे उन्हें वे फ्री कोचिंग देते थे क्योंकि उन्हें अपने जीवन में अध्ययन करने हेतु बहुत संघर्ष करना पड़ा। पढ़ने का उन्हें बहुत जुनून था ।
उनका जन्म गांँव में हुआ था । मेरे दादाजी कृषक थे अतः खेती-बाड़ी का काम करते थे ।उनको पढ़ने में कोई रुचि नहीं थी। पांँचवी तक पढ़ने के बाद दादाजी पढ़ाना नहीं चाहते थे लेकिन पिताजी को पढ़ने की धुन सवार थी । दादी उनकी भावनाओं का आदर करती थी अतः अपने पिता की इच्छा की विरुद्ध गांँव के पास शिकोहाबाद में अपने भाई के पास गए और अपनी पढ़ाई की। हमारे ताऊजी हलवाई थे उनके पास रहकर पढ़ाई की । घर में बिजली की सुविधा नहीं थी तो वह स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ते थे।आठवीं पास करके छोटा-मोटा काम भी किया और हाई स्कूल पास होते ही उनकी शादी हो गई ।दो साल बाद उनका गौना हो गया बी.ए पास करते ही पिताजी ने प्राइमरी स्कूल में अध्यापन किया पर अपना अध्ययन बराबर करते रहे। तभी मेरा जन्म हुआ फिर 2 साल बाद मेरी बहन और भाई का आगमन हुआ तब तक पिताजी एमकॉम कर चुके थे और टाइपिंग का कोर्स भी ।एम.कॉम.करने के बाद पिताजी बी.टी. करने के लिए आगरा गए और आगरा के दयाल बाग कॉलेज से बी.टी.(बी.एड.) किया और इत्तेफाक देखिए मैंने भी तीन बच्चे होने के बाद आगरा से बी.एड किया और उसी कॉलेज से जिससे मेरे पिताजी ने बी.एड.किया ।
तब तक हम तीनों बच्चे अपने नानी के यहांँ रहे हमारे नाना-नानी ने पिताजी की पढ़ाई में बहुत सहयोग दिया ।उसके बाद मेरे पिताजी को आगरा रेलवे में नौकरी मिली ।
रेलवे सर्विस में पिताजी के बॉस का लड़का पढ़ने में बड़ा ही कमजोर था और वह हाई स्कूल की एग्जाम दे रहा था। बॉस को मालूम पड़ गया कि पिताजी अध्यापन कर चुके हैं तो उन्होंने अपने बेटे की ट्यूशन के लिए कहा।पिताजी ने ट्यूशन में पैसे लेने से इनकार किया पर उसे पढ़ाया और वह तीन-चार महीने की मेहनत से प्रथम श्रेणी में पास हुआ , बॉस पिताजी से बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने पिताजी को गर्म सूट उपहार में दिया और कहा कि आप एक अच्छे अध्यापक हैं। आपकी यहांँ जरूरत नहीं है आपकी तो बच्चों को अधिक आवश्यकता है। और बच्चों का भविष्य आप जैसा अध्यापक ही बना सकते हैं ।
पिताजी मेरी पढ़ाई के प्रति बड़े जागरूक रहते थे। मैं भाई बहनों में सबसे बड़ी पुत्री थी। पिताजी ने फिर टीचिंग के लिए अप्लाई किया और उनकी सर्विस शिकोहाबाद में ए.के कोलेज में लग गई और हम शिकोहाबाद वापस आ गए। इसी कालेज से मैने हाई स्कूल /10th क्लास उत्तीर्ण की। मैं पिताजी के साथ स्कूल जाती थी और रास्ते में ही मेरे पिताजी मुझे साइकिल पर इंग्लिश की ग्रामर और मैथ्स के सवाल समझाया करते थे। स्कूल की प्रतिवर्ष मैगजीन निकलती थी और उसमें मैं हमेशा अपनी कहानी, कविता देती थी । पिताजी मेरी कहानी , कविता देखकर बड़े खुश होते थे और मुझे आशीर्वाद देकर आगे लिखने के लिए प्रेरित करते थे। स्कूल में भी कविता पाठ या किसी विषय पर बोलने के लिए हमेशा प्रेरित करते थे । छठवीं कक्षा में मैंने “झांसी वाली रानी थी” कविता सुनाई तब पिताजी ने लकड़ी की तलवार पर सिल्वर पेपर चढ़ा कर दी। हमारे पढ़ने के लिए पराग, नन्दन, चंदामामा पुस्तकें लाते थे। घर में पुस्तकों का अम्बार रहता था। छात्रों को पढ़ने के लिए पुस्तकें भी दिया करते थे। पिताजी ने मेरे तीनों मामाजी की पढ़ाई का भी बहुत ध्यान रखा।
बड़े मामाजी गवर्नमेंट स्कूल में अध्यापक पद पर रहे, बाद में प्रिंसिपल बने और दूसरे नंबर के शिकोहाबाद में ही इकोनॉमिक्स के लेक्चरार बने और छोटे मामा जी एडवोकेट। मेरे बीच के मामा जी बहुत अच्छे संगीतज्ञ हैं और अच्छे गायक हैं।
मेरी संगीत में रुचि थी।बचपन से ही मैं भजन ,गाने गाती थी। पिताजी मेरे लिए हारमोनियम लाए और मैंने हारमोनियम बजाना अपने मामा जी से सीखा, मुझे शादी में हारमोनियम भी दे दिया लेकिन संयुक्त परिवार में शादी होने के कारण मुझे बजाने का समय ही नहीं मिला। अभी भी बस एक यादगार वस्तु के रूप में हारमोनियम रखा हुआ है।
पिताजी को पढ़ने और पढ़ाने में बहुत अधिक रुचि थी।वे वाकई एक बहुत अच्छे अध्यापक थे जब बच्चों के एग्जाम होते थे तो पढ़ाने में इतने मगन हो जाते थे कि भोजन का भी ध्यान नहीं रखते थे। मेरी मांँ कभी -कभी बहुत नाराज होती थी लेकिन पिताजी हंँसकर टाल देते थे।परीक्षा के समय अगर कोई विद्यार्थी रात के 11:00 भी आ जाता तो तुरंत करके उसको पढ़ाने बैठ जाते थे। उस समय लड़कियों की पढ़ाई के प्रति इतनी जागरुकता नहीं थी। कई लड़कियों की पढ़ाई 8th क्लास पास करने के बाद बंद कर दी जाती थी । पिताजी उनके पैरेंट्स के पास जाकर उनको समझाते और उन्हें आगे पढ़ाने के लिए प्रेरित करते इस प्रकार कई लड़कियों को उन्होंने हाई स्कूल व इन्टर इंटर तक शिक्षा दिलवाई । किसी को एग्जाम के लिए फॉर्म भरते समय आर्थिक सहायता की जरूरत पड़ती तो पिताजी हमेशा सहायता करते,वे पढ़ने वाले विद्यार्थियों के प्रति बहुत प्रेम की भावना रखते थे।
मैं जब हाई स्कूल में थी मेरे हाई स्कूल की परीक्षा के समय मेरी आंँख में चोट लग गई। मेरा भाई गत्तै से खेल रहा था अचानक मेरी आंँख में लगा। मेरी आंँख पूरी लाल हो गई और सूज गई । पिताजी उस समय ट्यूशन पढ़ाने गए थे। जैसे ही आए , तुरन्त मुझे डॉक्टर के पास ले गए। पूरी रात मम्मी और पिताजी आँख की सिकाई करते रहे। पिताजी मेरी आंँख को देखकर बड़े दुखी हुए कि मैं एग्जाम कैसे दूंँगी।एक दिन छोड़कर ही मेरा हिंदी का पेपर था अब मैं पढ़ नहीं सकती थी पिताजी मुझे प्रश्नोत्तर, व्याकरण वगैरह सब पढ़- पढ़ कर सुनाते रहे। तीसरे दिन मेरी आंँख ठीक हुई और मैंने पेपर दिया ।10th में मेरी प्रथम डिवीजन तो आई लेकिन मेरे हिंदी में ही सबसे कम अंक आये।
जब मैं बी.ए. कर रही थी। एक स्कूल में मैथ्स टीचर की जरूरत थी और उनको टीचर नहीं मिल रही थी । मेरे पिताजी के एक दोस्त थे उनको मालूम था मेरा मैथ्स अच्छा है। पिताजी ने मुझसे कहा कि तुम जाकर वहांँ मैथ्स पढ़ा दिया करो। उन्हें पूरा विश्वास था कि मैं पढ़ा सकती हूंँ और मैं उस समय केवल 16 साल की थी मैंने 7, 8th क्लास के बच्चों को मैथ्स पढ़ाया ।इस प्रकार 16 साल की उम्र में ही मैंने पार्ट टाइम जॉब शुरू किया और मेरा अध्यापन शुरू हो गया इसके बाद मैंने 4 साल हिंदी और संस्कृत 9th,10th को पढ़ाया ।।
पिताजी शिक्षक थे अतः बचपन से ही मेरा सपना था कि मैं शिक्षक बनूंगी और अनचाहे ही मैं शिक्षक बन गई ।मेरे पिताजी भी मुझे बीए.करने के बाद b.ed कराना चाहते थे लेकिन जैसे ही मैंने बीए किया हमारे शिकोहाबाद में b.ed कॉलेज ही बंद हो गया। मेरे पिताजी मुझे अकेले आगरा पढ़ने भेजना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा शादी के बाद बीएड करवा देंगे।
मेरी शादी संयुक्त परिवार में हुई मेरे छै देवर और दो ननद हैं। शादी से पहले मेरी मांँ हमेशा कहती थीं कि बड़े परिवार में यह कैसे रह पाएगी हमारी तो छोटी फैमिली है ।मेरी दो बहने और एक भाई हैं। मेरे पिताजी कहते थे कि वह संयुक्त परिवार में एडजस्ट कर लेगी और मैंने किया भी। दो कमरों के मकान में हम 12 लोग रहते थे और उसी घर में मेरे तीन बच्चे हुए और उसी वातावरण में मैंने एम.ए. किया। घर में कोई सेविका काम नहीं करती थी। सारा काम हाथ से ही करना पड़ता था। पिताजी हम बच्चों की पढ़ाई का बहुत ध्यान रखते थे अतः हमारे यहाँ महरी हमेशा काम करती थी। मैं कभी – कभी अपनी माँ के सामने रोती थीऔर कहती कि इन्दौर शहर है तो क्या हुआ ,घर में बर्तन माँजने वाली भी नहीं है।माँ पिताजी से कहती तो पिताजी कहते ”
जीवन कष्टों का उपवन है
कहीं फूल खिलते हैं तो कहीं कांँटे मिलते हैं
कहीं मुलायम खास मिलती है जो सुख देती है
और कभी कँटीली राहे ,जो दु:ख देती हैं
पर हमें शूलों को फूल बनाना है ।
रोना किसी समस्या का हल नहीं है, न शिकवा कोई हल है। परिस्थितियों का सामना करो ,कांँटों को फूल बनाना सीखो। शिक्षा का सही अर्थ यही है हम संघर्ष करें और आसमान छुए ।मेहनत करोगे तो रास्ते अपने आप खुल जाएंगे ।
मैं 11 साल संयुक्त परिवार में रही। शादी के पहले केवल बी.ए.थी। संयुक्त परिवार में रह कर मैंने एम.ए. किया और बाद में तीनों बच्चों को छोड़कर आगरा से मैंने b.ed किया। जब मेरी बेटी 1 साल की थी तो मेरे पिताजी ने मेरा एडमिशन आगरा दयालबाग कॉलेज में करवा दिया क्योंकि वे जानते थे कि संयुक्त परिवार में रहकर मेरा बीएड. करना असंभव है। उन दिनों मोबाइल की फोन की ज्यादा सुविधा नहीं थी। मुझे पत्र लिखा कि तुम्हारा एडमिशन आगरा में हो चुका है, तुम्हारा इन्टरव्यू है और अब तुम जल्दी से आ जाओ।जीवन में कुछ पाने के लिए थोड़ा त्याग करना पड़ता है। दोनों बच्चों को सास के पास छोड़ दो और गुड़िया को लेकर आ जाओ, गुड़िया को हम संभाल लेंगे। पत्र पढ़कर मैं बहुत देर तक सोचती रही क्योंकि मेरी सास मुझे भेजने को तैयार नहीं थी फिर मेरे पतिदेव ने कहा तुम जाओ मैं सब संभाल लूंगा। फिर मैं हिम्मत करके दुःखी मन से अपनी मंजिल को प्राप्त करने के लिए चल दी। मेरे पतिदेव ने अपने एक रिश्तेदार को फ़ोन कर दिया कि आशा ग्वालियर बस से आ रही है ,आप उसे वहांँ से आगरा की बस में बैठा देना,। बस में प्रायः मुझे उल्टियांँ हो जाती थी , फिर गोद में गुड़िया,मैं किन हालात में ग्वालियर पहुँची,आज भी जब सोचती हूं तो रुह कांँपने लगती है।इनके दोस्त बस स्टैंड पर मुझे मिले और मेरी हालत देखकर मेरे साथ ही आगरा गए। वहाँ से मैं शिकोहाबाद पहुँची। गुड़िया को मम्मी के पास शिकोहाबाद में छोड़ा और और फिर दूसरे दिन मैं पिताजी के साथ दयालबाग कॉलेज इंटरव्यू देने आई। इस प्रकार गुड़िया को मम्मी ,मेरी बहन ने सम्हाला और मैंने आगरा में रहकर b.ed किया।
पिताजी कहते थे “सबै दिन जात न एक समान
” जीवन में हमेशा एक जैसे दिन नहीं रहते हैं। दुख के बाद हमेशा सुख के दिन आते हैं। b.ed करने के बाद मैंने 1 साल बाद ही नौकरी शुरू की और मैंन 33 वर्ष तक अध्यापन किया।
पिताजी हम बच्चों की पढ़ाई का बहुत ध्यान रखते थे ।मेरा भाई भी हमेशा 12वीं कक्षा तक पाली इंटर कॉलेज में प्रथम आता रहा और जब उसका एडमिशन रुढ़की इंजीनियरिंग कॉलेज में हुआ तब भी वे उसके साथ गए।
पिताजी एक ऐसे अध्यापक थे कि परीक्षा के समय कोई भी विद्यार्थी अगर कुछ पूछने आता तो हमेशा उसके प्रश्नों का समाधान करते थे क्योंकि विद्या दान ही उनका धर्म था और यही धर्म मेरे जीवन का मुख्य सिद्धांत बन गया है। आज पिताजी होते तो मेरे लेखन और उपलब्धियों को देखकर अवश्य खुश होते। पिताजी कहते थे कि रिटायर होने के बाद इंदौर अवश्य आऊंँगा तुम्हारे बच्चों की पढ़ाई भी देखूंगा लेकिन रिटायर होते ही पिताजी छै महीनों में ही हम सबको छोड़कर चले गए।
मेरी बहन की शादी की और उसके 2 महीने बाद ही रिटायर हो गए। उनके सिर में बहुत दर्द रहता खाना ढंग से नहीं खाते थे।मम्मी कहती “अच्छे डॉक्टर को दिखा दो ।”
पिताजी बड़ी सरलता से कहते थे “बच्चों की”_ एग्जाम के बाद आगरा दिखाने जाऊंँगा।
तभी भाई का ट्रांसफर दिल्ली हुआ और फिर मई के महीने में दिल्ली में डॉक्टर को दिखाया डॉक्टर ने कैंसर बताया वह भी लास्ट स्टेज पर। भाई का दिल्ली से फोन आया कि पापा जी की तबीयत खराब है। हम तीनों बहनें दिल्ली पहुंँचे पिताजी को देखने ।तब मालूम हुआ कि उनके लंग्स खराब हो चुके हैं डॉक्टर ने बताया कि बस 6 महीने चलेंगे। पिताजी को सिगरेट पीने की आदत थी। हम लोग बहुत मना करते थे कि आप स्मोक मत करिए मम्मी भी कहती थी आप इतने पढ़े- लिखे हैं ,बच्चों को शिक्षा देते हैंऔर खुद सिगरेट पीते हैं।। पिताजी हंँसकर कहते अब किशोरावस्था से पी रहा हूंँ, अब मैं इसके बिना रह नहीं सकता।
1 महीने बाद मम्मी शिकोहाबाद ले आई। मैं जुलाई में मिलने गई तो पिताजी ने कहा “बेटी
तुम्हारी मम्मी का हमने पूरा इंतजाम कर दिया है हमारे जाने के बाद मम्मी का ध्यान रखना अपना रजिस्टर दिखाया कि इसमें हमने कुछ लोगों को पैसे उधार दिए हैं अगर वह देदें तो ठीक है लेकिन किसी से मांँगना मत। पिताजी कॉमर्स के अध्यापक थे हिसाब- किताब बहुत करते थे ।बैंकों का अपना पूरा हिसाब किताब मम्मी को समझा गए। मम्मी रोती थी आप पढ़े लिखे थे फिर भी अपने स्वास्थ्य के प्रति कभी चिंता नहीं की ।बच्चों को पढ़ाने में लग रहे ।पिताजी हंँस कर कहते “हमारा तुम्हारा इतना ही साथ था हमने तुम्हारे लिए पूरा इंतजाम कर दिया है ।लड़कियांँ तुम्हारा ध्यान रखेंगी”
मैंने अपने दोनों बेटों को पिताजी के पास भेजा कि कुछ दिनों तक नाना जी की सेवा कर लो।
उनके विद्यार्थी उनको देखने आते कहते ” गुरुजी आपने हमको क्यों नहीं बताया हम आपको डॉक्टर के पास लेकर चलते ।”
सितंबर में तबियत खराब होने पर फिर मैं उनको देखने के लिए गई। पिताजी बोले” तुम सोनिया को लेकर नहीं आती हो मेरी उसको भी देखने की इच्छा है” मैंने कहा “ठीक है। मैं लेकर आती हूं 13 सितंबर को मैं वहांँ से चली,14 सितंबर को इंदौर सुबह 9 बजे पहुंँची, 1 घंटे बाद फोन आ गया कि पिताजी इस संसार को छोड़कर चले गए। मैं उनके अंतिम समय पर नहीं पहुंँच पाई। वहांँ पहुंँचने में 20 घंटे लग जाते थे। बाद में मम्मी मेरे पास ही
इन्दौर ज्यादा रही। पिताजी की स्मृति में मम्मी ने सांई कृपा कॉलोनी के मंदिर में दुर्गा जी की मूर्ति स्थापित करवाई। बस रह गई स्मृतियाँ । अभी प्रयाग में महाकुंभ चल रहा है तो प्रयाग भी मैं मम्मी व पिताजी के साथ गई थी अपनी भाभी को देखने और वहाँ सभी के साथ त्रिवेणी संगम का आनंद लिया।
पिताजी ने मुझे कंटक मार्गं पर चलना सिखाया, मेहनत करना सिखाया, हर मुश्किलें को पार करना सिखाया। वे कहते थे कि सपने हमारे मुट्ठी में है, हमें सपनों को पूरा करना है हर चुनौतियों का सामना करना है।आंँसुओं को अपनी कमजोरी नहीं बनने देना बल्कि आंँसुओं में अपने दर्द को डुबोना है ।आज पिताजी आप नहीं है मेरे पास, लगता है फिसल गया है आकाश । आपकी तस्वीर हमेशा मुझे प्रेरणा देती है कि सुख-दुख तो हँसकर झेलना है। मैं हूँ तुम्हारे पास, मन में रखो यह विश्वास। सोचती हूंँ काश आप होते तो मेरी उलझनें सुनकर पुचकारते, मेरे आंँसुओं को हथेली में लेते और मुझे जीवन की दिशा दिखाते ।
पिताजी आपके चरणों मेंशत-शत नमन
आशा जाकड़
लेखिका आशा जाकड़ शिकोहाबाद से ताल्लुक रखती हैं और कार्यक्षेत्र इन्दौर(म.प्र.)है। बतौर लेखिका आपको प्रादेशिक सरल अलंकरण,माहेश्वरी सम्मान रंजन कलश सहित साहित्य मणि श्री(बालाघाट),कृति कुसुम सम्मान इन्दौर,शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान(उज्जैन),श्री महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान(शिलांग) और साहित्य रत्न सम्मान(जबलपुर)आदि मिले हैं। जन्म१९५१ में शिकोहाबाद (यू.पी.)में हुआ और एमए (समाजशास्त्र,हिन्दी)सहित बीएड भी किया है। 28 वर्ष तक इन्दौर में आपने अध्यापन किया है। सेवानिवृत्ति के बाद काव्य संग्रह ‘राष्ट्र को नमन’, कहानी संग्रह ‘अनुत्तरित प्रश्न’ और ‘नए पंखों की उड़ान’ आपके नाम है।
बचपन से ही गीत,कविता,नाटक, कहानियां,गजल आदि के लेखन में आप सक्रिय हैं तो,काव्य गोष्ठियों और आकाशवाणी से भी पाठ करती हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी हैं।