प्रगति की चकाचौंध के बावजूद दक्षिण  में भी सत्ता के लिए  जातीय मुद्दा

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प्रगति की चकाचौंध के बावजूद दक्षिण  में भी सत्ता के लिए  जातीय मुद्दा

इस बार नव वर्ष की पूर्व संध्या पर बेंगलूर में रहने का अवसर मिला | मैसूर जाने वाले मार्ग के दोनों ओर भारतीय जनता पार्टी के झंडे और बैनर दिखाई दिए | तो ड्राइवर राघवेंद्र से पूछने पर पता चला कि गृह मंत्री अमित शाह इसी रास्ते से मैसूर के कुछ इलाकों में सभा करने आए हैं | विधान सभा चुनाव तो चार पांच महीने बाद हैं , लेकिन बड़े नेता पार्टी की स्थिति देखने और क्षेत्रीय नेताओं कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने आ रहे हैं | राहुल गाँधी ने अपनी पद यात्रा के बहाने इस इलाके में  कुछ किलोमीटर अपने नेताओं के साथ बिताए थे | राघवेंद्र शिक्षित और जागरुक व्यक्ति है | राजनीति पर बात छेड़ने पर कहता है – ‘ सर , बेंगलूर ही नहीं कर्नाटक आपके उत्तर भारत से अधिक तरक्की कर चुका है | दुंनिया की बड़ी से बड़ी कंपनी यहाँ आ गई हैं | टेक्नोलॉजी , सड़क , ट्रांसपोर्ट , एयरपोर्ट , होटल्स , बिल्डिग , कालेज , अस्पताल एकदम मॉडर्न हैं , लेकिन पॉलिटिक्स में अब भी वोक्कालिंगा और लिंगायत के समीकरण हावी हैं | ” फिर भी अब तो भाजपा की सरकार है और लिंगायत समाज का मुख्यमंत्री है , फिर से जीतेगी ? राघवेंद्र का उत्तर था – ‘ सर , जरुरी नहीं | भाजपा केवल पी एम् मोदी के नाम पर चल रही | सी एम् से लोग खुश नहीं और कांग्रेस की तरह आपसी झगड़े इनकी मुसीबत है | ‘

सचमुच शहर , प्रदेश बहुत बदला है |  कर्नाटक विधान सभा चुनाव से थोड़ा पहले  दिसम्बर 1982 यानी करीब चालीस साल पहले ‘दिनमान ‘ साप्ताहिक की रिपोर्टिंग के लिए बेंगलूर , मैसूर , मंगलोर आदि जाने का अवसर मिला था | कांग्रेस सत्ता में थी | केंद्र में बहुमत वाली कांग्रेस की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी थीं और उनके प्रिय युवा नेता गुडू राव मुख्यमंत्री थे | लेकिन प्रदेश की गुटबाजी और जातीय समीकरणों का गहरा असर देखा और मैंने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में लिखा भी था | तब  प्रतिपक्ष में  जनता पार्टी प्रभावी थी | उससे बाहर आई जनसंघ नए अवतार भाजपा के रुप में दक्षिण में अपने पैर रखने के लिए आगे आ रही थी | राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और पुराने पार्टी कार्यकर्ताओं को लेकर लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी की सभाएं होने लगी और उनमें भी भीड़ अच्छी रहती थी , जो तब वोट नहीं दिला पा रही थी | यही येदुरप्पा और अनंतकुमार जैसे नेताओं ने कर्नाटक में पार्टी को धीरे धीरे सत्ता तक पहुँचाया | जातीय समीकरणों और आतंरिक झगड़ों से इंदिरा कांग्रेस जनवरी 1983 के चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गई | मतलब , सारी आधुनिकता के बावजूद कर्नाटक की राजनीति उसी ढर्रे पर चल रही है |

सो वर्तमान हाल की बात की जाए |कर्नाटक में  अप्रैल में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा ने नए गठबंधन की संभावनाएं तलाशना शुरू कर दिया है। इसके तहत पार्टी वैचारिक रूप से विरोधी जेडीएस से गठबंधन की तैयारी कर रही है। ऐसा कर वह पुराने मैसूर क्षेत्र की 89 सीटों (वोक्कालिग्गा बाहुल्य) को साधना चाहती है।224 विधानसभा सीटों वाले कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा 113 है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को कुल 104 सीटें मिली थीं। इनमें से पुराने मैसूर इलाके में 89 में से सिर्फ 22 सीटें ही भाजपा जीत सकी थी। कांग्रेस ने 32 और जेडीएस ने 31 सीटों पर जीत हासिल की थी।यह क्षेत्र पूर्व प्रधानमंत्री और जेडीएस प्रमुख एचडी देवगौड़ा का गृह क्षेत्र भी है। वहां जेडीएस और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर होती आई है। 100 से ज्यादा सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा सरकार बनाने से चूक गई थी, क्योंकि जेडीएस ने कांग्रेस को बिना शर्त समर्थन दे दिया था।लेकिन  सत्ता में असंतोष के बाद 17 विधायकों के विद्रोह से भाजपा अपनी सरकार बनाने में सफल हो गई | अब वह पी एम् मोदी के नाम और काम के साथ लिंगायत , वोक्कालिंगा तथा अन्य जातियों को हिंदुत्व के झंडे तले अपने बल पर सरकार बनाने की तैयारी कर रही है |  भाजपा राज्य के इस क्षेत्र में अपनी कमजोरी पर सबसे पहले ध्यान देना चाहती है, ताकि पुराने मैसूर इलाके की 80% से अधिक सीट जीत सके।

2009 में जेडीएस ने भाजपा खासकर येदियुरप्पा को ढाई-ढाई साल के सीएम फॉर्मूले के तहत समर्थन नहीं दिया था, तो सरकार गिर गई थी। उसके बाद सहानुभूति फैक्टर येदियुरप्पा के पक्ष में रहा और भाजपा चुनाव में जीती। इसके बाद येदियुरप्पा भाजपा से अलग हो गए तो भाजपा चुनाव हार गई |पिछला चुनाव भाजपा के येदियुरप्पा को CM प्रोजेक्ट कर लड़ना पड़ा, जबकि उनकी उम्र 76 साल थी। सूत्रों का कहना है कि भाजपा को यह फैसला इसलिए लेना पड़ा, क्योंकि लिंगायत (भाजपा का कोर वोटर) को साधने वाला येदियुरप्पा से बड़ा कोई नेता पार्टी के पास नहीं है। वसबराज बोम्बई को मुख्यमंत्री बनाया गया, जो इसी लिंगायत समुदाय से आते हैं।. माना जाता है कि लिंगायत समुदाय जिसकी तरफ मुड जाता है सत्ता की चाभी उसके पास चली जाती है |भाजपा  की नजर विधानसभा के साथ-साथ 2024 के लोकसभा पर टिकी हुई है, वह  अपना पिछला प्रदर्शन दोहराना चाहेगी. मगर, कांग्रेस भी राज्य में बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे लेकर जा रही है, जिससे कि वह  राज्य में अपनी खोई  हुई सत्ता हासिल कर सके | असली समस्या जे डी एस की बचीखुची ताकत है | उसके पास कांग्रेस और भाजपा से समझौते के रास्ते खुले हुए हैं |

कर्नाटक की कुल आबादी में लिंगायतों की संख्या 18 फीसदी है, जो 110 विधानसभा सीटों पर सीधा असर डालते हैं. लिंगायत समुदाय को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है. कर्नाटक के अलावा पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में इस समुदाय की अच्छी आबादी है.   एक तरफ भाजपा  मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और पूर्व सीएम बीएस येदियुरप्पा को लेकर दुविधा में है तो  है तो दूसरी ओर कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार में अभी से  सीएम की कुर्सी को लेकर संघर्ष  चल रहा है | हालांकि भाजपा ने बीएस येदियुरप्पा को  राष्ट्रीय स्तर पर अहम जिम्मेदारी देकर मना लिया है|  वहीं कांग्रेस में सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच खुद राहुल गांधी ने सुलह करवाने की कोशिश की है , लेकिन यह राजस्थान की तरह चालाकी लगती है  |आने वाले समय में दोनों पार्टियों के लिए गुटबाजी को शांत करके रखना बड़ी चुनौती होगी |

दुर्भाग्य यह है कि बिहार की तरह कर्नाटक में भी आरक्षण की आवाज गर्मा गई है | लिंगायत भी आरक्षण मांगने लगने लगे हैं |कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को अगड़ी जातियों में शुमार किया जाता है, जो संपन्न भी हैं. इनका इतिहास 12वीं शताब्दी से है | दरअसल 12वीं शताब्दी में एक समाज सुधारक हुए बासवन्ना, उन्होंने हिंदुओं में जाति व्यवस्था में दमन और ऊंच-नीच को लेकर आंदोलन छेड़ा था| बासवन्ना मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे, साथ ही वेदों में लिखी बातों को भी खारिज कर दिया था. दरअसल, कर्नाटक में हिंदुओं के मुख्य तौर पर पांच संप्रदाय  माने जाते हैं |इन्हीं में से एक शैव संप्रदाय के कई उप संप्रदाय हैं. उसमें से एक वीरशैव संप्रदाय है, लिंगायत इसी वीरशैव संप्रदाय का हिस्सा हैं. शैव संप्रदाय से जुड़े जो अन्य दूसरे संप्रदाय हैं वोनाश, शाक्त, दसनामी, माहेश्वर, पाशुपत, कालदमन, कश्मीरी शैव और कपालिक नामों से जाने जाते हैं |वसुगुप्त ने 9वीं शताब्दी में कश्मीरी शैव संप्रदाय की नीव डाली, हालांकि इससे पहले यहां बौद्ध और नाथ संप्रदाय के कई मठ मौजूद थे | इसके बाद वसुगुप्त के दो शिष्य हुए कल्लट और सोमानंद इन दोनों ने ही शैव दर्शन या शैव संप्रदाय की नींव डाली थी | वामन पुराण में शैव संप्रदाय की चार संख्या बताई गई है. जिन्हें पाशुपत, कालमुख, काल्पलिक और लिंगायत के नाम से जाना जाता है | वर्तमान में कर्नाटक और इसके पड़ोसी राज्यों के लिंगायत संप्रदाय, प्राची लिंगायत का ही नया रूप है |इस संप्रदाय के लोग शिवलिंग की पूजा करते हैं. लिंगायतों का वैदिक कर्मकांड में विश्वास नहीं है. लिंगायत पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करते, इनका मानना है कि जीवन एक ही है और कोई भी अपने कर्मों से अपना जीवन को स्वर्ग और नर्क बना सकता है |

लिंगायत पारंपरिक रूप से बीजेपी का कोर वोटर रहे हैं |1980 के दशक से ही लिंगायतों ने भारतीय जनता पार्टी का साथ दिया है. 80 के दशक से जब से बीजेपी का उभार हुआ तब से ही लिंगायतों ने राज्य के नेता रामकृष्ण हेगड़े पर भरोसा जताया |मगर बाद में लिंगायत कांग्रेस के बीरेंद्र पाटिल के साथ हो गए. इसके बाद से लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस से दूरी बना ली. एक बार फिर से रामकृष्ण हेगड़े के पास लौटने के बाद लिंगायतों ने बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा पर लंबे समय से भरोसा जता रहे हैं |

मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2018 में चुनाव से ठीक पहले लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा दिए जाने की मांग को मानते हुए बड़ा फैसला लिया था | लिंगायत समुदाय एक लंबे समय से हिंदु धर्म से अलग धर्म का दर्जा दिए जाने की मांग करते रहे थे. तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने नागमोहन समिति की सिफारिशों को राज्य अल्पसंख्यक आयोग  एक्ट की धारा 2डी के तहत मंजूर कर लिया था. इसकी अंतिम मंजूरी के लिए केंद्र के प्रस्ताव भेजा गया था. कांग्रेस ने लिंगायतों की मांग पर उन्हें अलग धर्म का दर्जा देने का  समर्थन किया , जबकि बीजेपी अभी भी लिंगायतों को हिंदू धर्म का हिस्सा मानती है |

बेंगलुरु की चकाचौंध और इसका महानगरीय सेट-अप कर्नाटक की गहरी जड़ें जमा चुकी जाति व्यवस्था को छुपाने का मौका देता है |राजनीतिक शक्ति के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करने, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र पर पूरी तरह से नियंत्रण के बाद कर्नाटक के प्रमुख समुदाय अपनी विशेष स्थिति की रक्षा करने की कोशिश करते रहते हैं | मंडल कमीशन के नतीजे और पिछड़ों-एससी/एसटी की आगे बढ़ने की इच्छा ने उनकी शक्ति को खतरे में डाल दिया है. 2019 में सामान्य श्रेणी में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण के माध्यम से उन्होंने अपनी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति पर पकड़ मजबूत बनाए रखने का प्रयास किया. केवल इन दो प्रमुख समुदायों ने कई अनुमानों के अनुसार लगभग आधी उच्च श्रेणी की सरकारी नौकरियों पर कब्जा कर लिया है जिससे उन्हें भारी राजनीतिक रसूख प्राप्त हो गया है.

आगामी अप्रैल-मई में होने वाले विधानसभा चुनाव और सभी मोर्चों पर संकटों से घिरी बोम्मई सरकार अब इन दो प्रमुख समुदायों के चुनाव में समर्थन की कोशिश कर रही है | बोम्मई सरकार उन्हें आरक्षण में बढ़ावा देने के साथ ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए शाक्षिक कोटे को 15 और 3 प्रतिशत से बढ़ा कर क्रमशः 17 और 7 प्रतिशत कर दिया | यह साफ तौर पर राजनीति और शासन पर जाति व्यवस्था की मजबूत पकड़ को दर्शाता है |सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के कोटा में शक्तिशाली और धनी पिछड़ी जातियों लिंगायत और वोक्कालिगा को शामिल करने का प्रयास किया है. उन्हें रद्द कर दिए गए 3ए और 3बी श्रेणी से आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर जातियों वाली श्रेणी में रख दिया गया है. 2सी और 2डी नई श्रेणियां बनाई गई हैं जिसमें 2सी में वोक्कालिगा को 4 परसेंट और 2डी में लंगायत को पांच फीसदी का आरक्षण दिया गया है| इन दो समुदायों के जो लोग 2C और 2D श्रेणियों में नहीं आते उन्हें ईडब्ल्यूएस के उस हिस्से में रखा गया है जो इस्तेमाल नहीं किया गया |चुनौती दिए जाने पर यह कानून अदालतों में नहीं ठहरेगा| लेकिन सरकार के इस कदम से लिंगायत समुदाय के प्रमुख उप-जाति पंचमसाली की आकांक्षाओं पर पानी फिर गया है जिससे कई विवाद उठने लगे हैं. ऊपरी तौर पर वोक्कालिगा भले ही शोर मचा रहे हों मगर वह अंदर से इससे काफी खुश हैं. मगर ब्राह्मण महसूस कर रहे हैं कि ईडब्ल्यूएस के भीतर प्रमुख समुदायों को जगह दिये जाने से उनका कोटा कम हो गया है. वह विरोध कर रहे हैं. एक तरह से बोम्मई सरकार पर उनका ही कदम भारी पड़ गया लगता है.

पंचमसाली अब मांग कर रहे हैं कि उन्हें 2ए समूह में शामिल किया जाए जो दरअसल अत्यधिक हाशिए पर पड़ी ओबीसी जातियों के लिए है. 2ए का आरक्षण धोबी, पासी, तेली जैसे पारंपरिक व्यवसाय करने वालों के लिए है |सामाजिक और राजनैतिक रूप से मजबूत पंचमसाली इस श्रेणी में फिट नहीं होते जिससे सरकार दबाव में है |सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है. मगर अगर सरकार पूर्व की वीरप्पा मोइली सरकार की 73 फीसदी कोटे को लेकर दोबारा आती है तब इस परेशानी को दूर किया जा सकता है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर इस विधेयक को रद्द कर दिया कि आरक्षण देने के पीछे सरकार के पास जातियों के पर्याप्त आंकड़े मौजूद नहीं हैं |

सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण कर्नाटक में एक महत्वपूर्ण विषय रहा है. कर्नाटक में देवराज उर्स सरकार की हवानूर आयोग से लेकर टी वेंकटस्वामी आयोग तक कई आयोगों का गठन किया गया. |ये आयोग पिछड़ी जातियों की लिस्ट तो देने में सफल रहे मगर जनसंख्या में उनके प्रतिशत के आंकड़े को जुटाने में नाकाम रहे |अधिकांश आयोगों को वोक्कालिगा और लिंगायत अधिकारियों के नेतृत्व वाली नौकरशाही से जरूरी सहयोग नहीं मिला. वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय के अफसरों को डर रहा कि एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण उनके राज्य में सबसे बड़े दो समुदाय होने के दावे को कहीं कमजोर नहीं कर दे जिससे उनका राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव कम हो जाए | इस तरह से जातियों की गणना करने का अंतिम प्रयास कंथराज आयोग रहा जिसे जरूरी समर्थन नहीं मिला |इन सबके बावजूद, पिछड़ी जातियों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति का “सर्वेक्षण” करने के लिए सिद्धारमैया सरकार द्वारा गठित कंथाराज आयोग ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसे औपचारिक रूप से विधानसभा में पेश नहीं किया गया | मीडिया में लीक इसके अंशों को सही मानें तो आयोग की रिपोर्ट विस्फोटक साबित हो सकती है. विजया कर्नाटक की एक रिपोर्ट के अनुसार, आयोग की रिपोर्ट ने कर्नाटक में अस्पृश्य और अछूत दोनों उप-जातियों को मिला कर अनुसूचित जातियों को सबसे बड़े जनसांख्यिकीय समूह के रूप में मान्यता दी है | कर्नाटक की 6.11 करोड़ की आबादी में अनुसूचित जातियों यानी शिड्यूल्ड कास्ट का प्रतिशत 1.08 करोड़ है. 75 लाख के साथ संख्या के हिसाब से मुसलमान दूसरे नंबर पर हैं |क्रमशः 59 और 49 लाख के साथ लिंगायत और वोक्कालिगा तीसरे और चौथे स्थान पर रहे | 43.5 लाख जनसंख्या के साथ कुरुबा वहां का पांचवां सबसे बड़ा समुदाय है| इनके अलावा 42 लाख अनुसूचित जनजाति , 14 लाख एडिका और 13 लाख ब्राह्मण हैं.स्वाभाविक रूप से रिपोर्ट को स्वीकार करना को दूर की बात है, सामाजिक-राजनीतिक रूप से मजबूत समुदाय इस रिपोर्ट को हर हाल में रोकने की कोशिश करेंगे चाहे सरकार भाजपा कि हो, कांग्रेस की या जेडी (एस) के नेतृत्व वाली. दूसरी तरह यह अनुमान लगाते हुए कि उनके प्रभुत्व के दिन गिनती के रह गए हैं वह उन सरकारों पर दबाव डाल रहे हैं जिन्हें वह नियंत्रित करते हैं कि उनका प्रभुत्व कायम रहे. कर्नाटक में इन दिनों यही हो रहा है |

बी एस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री के पद से हटाने के बाद लिंगायतों को मरहम  लगाने के लिए बीजेपी ने बोम्मई के रूप में एक कमजोर नेता को मुख्यमंत्री बनाया जिसे अगले चार महीने में बगैर बड़ी उपलब्धी  के विधानसभा चुनाव का सामना करना है |  आक्रामक कांग्रेस ने मौजूदा सरकार को राज्य के इतिहास में अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार करार दिया है. मंत्रियों की तरफ से अकारण रिश्वत मांगने के आरोप के बीच कई सरकारी ठेकेदारों की आत्महत्या ने स्थिति को और खराब कर दिया है |येदियुरप्पा को हटाने से लिंगायतों में अंदरूनी तौर  थोड़ी  नाराजगी है| उनके स्थान पर बसवराज बोम्मई आलाकमान और कर्नाटक भाजपा के लिए ऐसे नेता हैं जिन्हें मन मुताबिक ढाला जा सकता है | समुदाय तन, मन, धन से भाजपा के साथ खड़ा है और राज्य में पार्टी को सत्ता में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है| लेकिन एक वर्ग  पंचमसाली भाजपा के प्रति अपने गुस्से को खुलेआम व्यक्त कर रहे हैं |

जहां तक वोक्कालिगाओं की बात है तो किंग-मेकर पार्टी जेडी (एस) अब अपने गिरावट के दौर में है |इसके प्रमुख पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा नब्बे साल से ऊपर के हो चुके हैं | वह अब उतने प्रभावी नहीं रहे जो वह कुछ वक्त पहले तक होते थे. लिंगायतों की तरह ही वोक्कालिंगाओं में भी युवा भाजपा से प्रभावित हैं और उसे ही वह सत्तारूढ़ पार्टी की तरह देखते हैं. ऐसे में वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ लगातार पीछे खड़े हैं |उन्हें शांत करने के लिए जो आरक्षण कोटा लाया गया है वह उनके मामले में अच्छे नतीजे दे सकता है | देश  में हो रहे बदलाव को कर्नाटक भी साफ तौर पर दिखा रहा है |  यह परिवर्तन धीमा है और समझने में आसान नहीं है |जाति की राजनीति या यूं कह लें कि पहचान की राजनीति भी बदल रही है. लिंगायतों में बदलाव आ रहा है | धार्मिक प्रमुखों की तरह ही लिंगायत समुदाय के नेता या तो इस दुनिया में नहीं हैं, या बस आखिरी सांस गिन रहे हैं या सेक्स स्कैंडल में फंस कर बदनाम हो चुके हैं |अपने बुजुर्गों की तरह युवा लिंगायत संतों के प्रभाव में नहीं हैं. वे महत्वाकांक्षी हैं, प्रेरित हैं और आधुनिक भी.युवा वोक्कालिगा के मन में भी धार्मिक स्थलों को लेकर ज्यादा लगाव नहीं है | वे भाजपा को एक ऐसी पार्टी के रूप में देखते हैं जो उनकी आकांक्षाओं को साकार कर सकती है |जाति और समुदाय की राजनीति हमेशा नई पहचान की राजनीति उस पार्टी को तरजीह देगी जो बदलाव ला सकती है | जाति और समुदाय की राजनीति हमेशा सफल नहीं हो सकती |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।