सामाजिक व वैचारिक विविधता ही भारत की ताकत है

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सामाजिक व वैचारिक  विविधता ही भारत की ताकत है

पिछले किसी निर्णायक चुनाव के नतीजे आने के बाद राजेन्द्र माथुर की टिप्पणी थी, ‘ भारत की हवा पर मूलतः वह अखिल भारतीय वर्ग हावी है जिसके दिल में दो बातें सर्वोपरि हैं । एक है भारत की एकता और अखंडता और दूसरी है गरीबों को भी प्रवेश का अवसर देने वाला खुला उदार प्रजातंत्र । आप एक मुल्य को चुन लें और दूसरे को रौंद डालें, यह कतई संभव नहीं है । लेकिन जब आप कहते हैं कि देश के स्थायित्व के लिए ये जरूरी है, तो यह ऐसा है कि ब्राम्हण को माँस खिलाने वाला ये कहे कि सनातन धर्म की रक्षा के लिए हमें समर्थन दो । ‘

निसन्देह भारत के आम आदमी की उस सूझ बूझ ने न केवल भारत बल्कि दुनिया को आश्चर्य में डाला है । यहाँ के गरीब आम आदमी को प्रजातंत्र या शासक वर्ग की ऊँची ऊँची बातें समझ में नहीं आती । उनके अंतःकारण से जो आवाज़ आती है वही उनके लिए अंतिम सत्य है । गाँव का आदमी, लगभग निरक्षर और आज भी गरीब, आसमान देखकर मौसम के बारे में बता देगा, ज़मीन पर लकड़ी ठोक कर बता देगा कि पानी कहाँ मिलेगा।  उसे अपने काम और परिवार के हाल चाल से सरोकार है, लेकिन उसे ये भी आभास है कि समाज व आसपास में कौन खोखला है और कौन दिल से ईमानदार । ये आदमी दिल से समावेशी है, सबको समेटने वाला – काटने वाला नहीं । हजारों सालों से भारत की ताकत का स्त्रोत भी यही आदमी है ।

पिछले कुछ वर्षों से भारत की एकता को खतरे का हवाला देकर बहुत कुछ कहा जा रहा है और प्राचीन सांस्कृतिक वैश्व की याद दिलाकर जो कुछ आधुनिक है उसे भारत विरोधी बता कर नेपथ्य में करने की कोशिश हो रही है ।

लेकिन यदि व्यापक दृष्टिकोण व विचारों की गहराई के संदर्भ में देखें तो उस प्राचीन भारत का आदमी संकुचित विचारों से मीलों दूर था । दुख की बात है कि उस वैभव के नाम पर हमें संकुचिता की ओर ढकेला जा रहा है ।

जिन वेदों और उपनिषदों का हवाला देकर आजकल भारत को एंकागी बनाने की कोशिश है – उन वेदों में, खास कर ऋगवेद मे ंतो केवल प्रकृति की प्रशंसा व जीवनदायनी तत्वों जैसे क्षितिज, जल, पावक, गगन, समीरा, सूर्य, चन्द्रमा व तारों के गुणगान के श्लोक हैं – आश्चर्य व आनन्द से भरे हुए श्लोक ! कोई आश्चर्य नहीं कि उस तरह के वातावरण से कोई भी बाहर से आने वाला आकर्षित हो जाता था ।

रविन्द्रनाथ टैगोर ने भी इन वैदिक श्लोकों का वर्णन सभ्यता के आरम्भ में मनुष्य द्वृारा प्रकृति की सुदंरता, ब्रम्हाण्ड के रहस्यों व उसके नित नये रूपों को संगीतमय श्रद्वंाजंलि के रूप में किया है – सभ्यता का ये आदिकाल था – “मनुष्य पर ज्ञान का कोई बोझ नहीं था । ब्रम्हाण्ड के नित नये अजूबे देख कर लोगों के मुँह से अनायास ही आनन्द भरे उद्गार निकल जाते थे।“ टैगोर के अनुसार वैदिक श्लोकों में समाहित प्रकृति के रहस्यों का गुणगान ही उनको और कालजयी बनाता है ।

उस वैश्वशाली अतीत में न किसी मूर्ति का जिक्र था – न किसी मंदिर का – “सारे श्लोक बस विश्व के रहस्यों, उसकी सुदंरता के लिए किसी अदृश्य शक्ति को धन्यवाद के लिए निकले उद्गार हैं “ (जवाहरलाल नेहरू) ध्ान्यावाद देने के लिए किसी देवी देवता का नाम नहीं लिया गया । ध्ार्म का उस समय किसी के मन में कोई संकल्पना नहीं थी ।

इतना ही नहीं ‘हिंदू‘ शब्द भी प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता – आठवीं शताब्दि के किसी अनाम ग्रंथ में पहली बार ‘हिंदू‘ शब्द प्रयोग किया गया। वो भी यहाँ के लोगों के लिए न कि किसी धर्म के अनुयाइयों के लिए।

‘हिंदू‘ होना जीवन जीने का एक तरीका था – यहाँ की सब चीजें सब के लिए, किसी एक समुदाय के लिए नहीं । लोग विभिन्न विचारों में विश्वास रखते थे, अलग अलग रीति रिवाज़ थे किसी तरह की बन्दिशें नहीं थी । जीवन की इस सहजता ने ही सैेकडों साल से बाहर से आने वाले उन हजारों लोगों को आकर्षित किया जो यही के होकर रह गयें ।  भारत में आज भी कई देशों के लोग आराम से रहते हुए मिल जायेंगे । उन्हें भारतीय कहलाने मे कोई एतराज़ नहीं है । यहाँ बसने वाले ईसाइयों या मुसलमानों ने आसानी से यहाँ उस समय प्रचलित रीतिरिवाजों और संस्कृति को स्वीकार कर लिया । न केवल ये बल्कि उनके समाज में होने वाले कई मंगल कार्याें में भारतीय मांगलिक रीति रिवाजों की झलक मिलती है । इसके बावजूद वो अपने ध्ार्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं व अपने रीति रिवाजों का कटृरता से पालन करते हैं ।

प्राचीन काल में भारत के वभश्व की कहानियोें ने दूर दूर के देशों को इतना आकर्षित किया कि देश को सैकड़ों आक्रमण झेलने पड़े । हर आक्रमण एक नई चुनौती लेकर आया । हर बार समाज को नया ध्ाक्का सहना पड़ा। लेकिन हर आक्रमणकारी का एक ऐसे सामाजिक वातावरण से सामना हुआ जो हर चीज़ को अपने में समेट लेता था और ध्ाीरे ध्ाीरे भारतीयता के रंग में रंग देता था । नतीज़ा ये हुआ कि भारतीय संस्कृति का रूप हर सौ, दो सौ साल में बदल जाता था । हमारी संस्कृति कभी मृतप्रायः नहीं हुई हमेशा जीवंत बनी रही ।

इस प्रक्रिया के चलते इन हज़ारों वर्षों में भारत ने अपने अदंर इतनी विविध्ाताओं को समेटा है कि अब यही विविध्ाता यहाँ की ऐसी पहचान वन गई है जिस पर न केवल हमें गर्व है बल्कि पूरा संसार आश्चर्य चकित है । दर्जनों भाषाएं, त्योहार, रीतिरिवाज़, खानपान, ध्ाार्मिक आस्थाएं, नृत्य, संगीत, साहित्य – हर बात अलग, लेकिन दिल से भारतीय । और ये भारतीयता उस समय ज़्यादा उभर कर सामने आती है जब देश के अस्तित्व पर संकट आता है । नहीं तो समुदायों के आपस में विरोध्ाी विचार होते हुए भी जीवन सामान्य रूप से चलता रहता है । भारतीय मानस के अंर्तमन में सर्तकता का एक सत्त  भाव रहता है जिसके चलते इस देश के विविध्ाता से भरे तानेबाने को कोई नष्ट नहीं कर सकता । भारत के साध्ाारण गरीब और ज़मीन से जुड़े  आदमी  ने सैकड़ों वर्षों से इस ढांचे को सुरक्षित रखा है ।

इतिहास गवाह है कि जिन संस्कृतियों  ने दिल खोलकर विविधता का स्वागत किया है  वही जिंदा रही हैं ।  बाकी काल  के गर्त में समा गई हैं।

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मोहिनी माथुर
मोहिनी माथुर

सम्पादकीय सलाहकार
मंगल प्रभात , गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा , नई दिल्ली