Cow, Dung & Tradition : गाय, गोबर, जीवन और हमारी परंपरा!  

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Cow, Dung & Tradition : गाय, गोबर, जीवन और हमारी परंपरा!   

शास्त्रों में कहा गया है ‘गावो विश्वस्य मातरः’ यानी गाय विश्व की माता है! मां के दूध के समान ही गाय का दूध भी पौष्टिक होता है। गाय के गोबर और गोमूत्र दोनों की भारतीय संस्कृति में बहुत अहमियत है। सनातन संस्कृति के अनुसार गाय के गोबर में मां लक्ष्मी का वास होता है। लेकिन, आज के दौर में बढ़ती भौतिकवादी संस्कृति में लोग अपने संस्कार और परंपराओं को भूलने लगे। यही वज़ह है कि अब आवारा पशुओं की संख्या देश में लगातार बढ़ रही है।
आज लोग पशुधन, सिर्फ़ तभी तक लोग पालते हैं, जब तक उससे दूध मिलता है। जहां एक बार गाय ने दूध देना बंद किया कि उसे खुला छोड़ दिया जाता है। इस वज़ह से कई बार सड़कों पर गायें तड़प-तड़पकर मर जाती है। सरकारें भी गौ-शालाओं को लेकर कम राजनीति नहीं करती! लेकिन, सच्चाई यह है कि इंतजाम भी ढाक के तीन पात मालूम पड़ते हैं। ऐसे में आवारा पशुधन कई मुसीबतों की जड़ बनता जा रहा है। जिससे कहीं न कहीं हमारे नैतिक मूल्यों का भी पतन हो रहा है। वर्तमान दौर में मानवीय संवेदना गुम सी हो गईं हैं। यही वज़ह है कि गाय जो हमारी माता है। उसके प्रति भी समाज का रवैया बदल गया है।
इस बीच छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार ने ‘गोधन न्याय योजना’ शुरू करके पशुधन के प्रति लोगों का रुझान बदलने का प्रयास किया है। शायद एक समय तक किसी ने सोचा हो कि गोबर से भी पैसा कमाया जा सकता है पर, छत्तीसगढ़ की सरकार ने ‘गोधन न्याय योजना’ शुरू करके प्रदेश के गौ-पालकों को गोधन से समृद्धि की जो राह दिखलाई, उसके सुखद परिणाम देश के अन्य हिस्सों से भी देखने को मिल रहें हैं।
गोधन से समृद्धि का सफ़र तय करने की ऐसी ही एक कहानी है ग्वालियर के गोपाल झा की। गोपाल की यह कहानी बेहद मार्मिक और नैतिक मूल्यों के संवर्धन से जुड़ी हुई है। कैसे एक व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी समाज के लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है। इसकी एक बानगी है गोपाल झा की जिंदगी। इतना ही नहीं, आज़कल आत्मनिर्भर भारत शब्द की गूंज हर तरफ सुनाई देती है। गोपाल झा की कहानी भी कहीं न कहीं आत्मनिर्भर भारत के सपनों को साकार कर रही है। बात 2009 की है, जब गोपाल के पिता सब्जी लेने अपने मुहल्ले में जा रहे थे। तभी एक आवारा गाय ने उन्हें उठाकर पटक दिया, जिससे उनकी मौत हो गई। इस घटना के बाद गोपाल सदमे में चले गए। कुछ समय बाद जब गोपाल सदमे से बाहर आए तो सोचने लगे कि कैसे आवारा गायों को सड़कों पर घूमने से बचाया जाए! ऐसे में गोपाल के मुताबिक उनके मन में विचार आया कि गोबर ही एकमात्र ऐसी चीज है, जो गाय के साथ ताउम्र रहती है।
उन्होंने गोबर को आधार बनाकर ही उन्होंने गाय को आवारा बनने से बचाने का और स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिया। शुरुआत में जब गोपाल ने गाय के गोबर को इकट्ठा करना शुरू किया, तो उनके आसपास के लोग मख़ौल उड़ाने लगे कि पढा-लिखा व्यक्ति पगला गया है। कुछ तो यहां तक कहने लगे कि पिता की मौत के बाद दिमाग में गोबर भर गया। लेकिन, गोपाल का जुनून था कि अब गाय के गोबर से ही कुछ ऐसा किया जाएगा। जो समाज के लिए मिसाल बनेगा! शुरुआती दौर में गोपाल को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। जिसमें सामाजिक ताने भी शामिल थे।
साल 2009-10 में यूट्यूब और सोशल मीडिया का चलन भी नहीं था। ऐसे में गोपाल की राह थोड़ी और कठिन रही। ग्वालियर और उसके आसपास उस दरमियान तक गोबर से प्रोडक्ट बनाने का कोई ट्रेनिंग सेंटर भी नहीं था। जिससे कुछ सीखकर गोपाल अपने मिशन में कामयाब हो पाते, लेकिन वो कहते हैं न कि कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो मुश्किल राह भी आसान हो जाती है। कुछ ऐसा ही हुआ गोपाल के साथ और उन्होंने आस-पास घर में रखी चीजों के सेप-साइज को देखकर, उसी तरह का गोबर से फ्रेम बनाना शुरू किया।
शुरुआत में लोग गोबर से बने प्रोडक्ट को देखकर ही भाग जाते थे। फिर उन्होंने अपने तरीके में बदलाव की सोची और प्रोडक्ट को मॉर्डन तरीके से डिजाइन करना शुरू किया, तो लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। धीरे-धीरे शहरों में लगने वाले ट्रेड फेयर, एग्जीबिशन सेंटर में स्टॉल लगाया। लोगों को इसे बारे में बताया। यहीं से अलग-अलग राज्यों के कस्टमर जुड़ने लगे। कल्चरल एक्टिविटीज, गिफ्ट के लिए ऑर्डर मिलने लगे। आज के समय में गोपाल और उनका बेटा यश मिलकर 200 से ज्यादा तरह के गोबर से बने डेकोरेशन आइटम्स बनाते हैं।
इतना ही नहीं शहर के गौशालाओं से 5 रुपए प्रति किलो गोबर खरीदते हैं। जिससे कि गायों को कोई आवारा घूमने के लिए सड़कों पर न छोड़े। गोपाल आज आत्मनिर्भर भारत के सच्चे सारथी भी हैं और वो पांच लोगों को रोजगार प्रदान कर चुके हैं। उनकी सालाना कमाई लगभग 6 लाख रूपए है। सच पूछिए तो गोपाल की यह कहानी हमें और हमारे समाज को सीख प्रदान कर रही है कि हमें ईश्वर ने नज़र और नजरिया दोनों दिया है। तो इसका बेहतर सदुपयोग हमें करना चाहिए, न कि सिर्फ़ अपने हित के लिए नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देना चाहिए।