Shaligram of Gandaki : गंडकी नदी के शालिग्राम से प्रकट होंगे रामलला!

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Shaligram of Gandaki : गंडकी नदी के शालिग्राम से प्रकट होंगे रामलला!

पत्थरों से मूर्तियां गढ़ी जाती है, ये पुरातन सच्चाई है। लेकिन, धार्मिक नजरिए से ये धारणा गले नहीं उतरती। क्योंकि, पत्थर कभी भगवान नहीं बन सकते। भगवान तो आखिर भगवान है, फिर वो मूर्तियों में ही समाई आस्था क्यों न हों! धर्म को गंभीरता से समझने वालों का मूर्तियों के बारे में तर्क होता है कि पत्थरों से मूर्तियां नहीं गढ़ी जाती, बल्कि उनमें पहले ही मूर्तियां विराजित होती हैं, शिल्पकार तो बस उन्हें उकेरकर बाहर निकालता है। शिल्पकार मूर्ति के अलावा निरर्थक पत्थर निकालकर भगवान को उनका स्वरुप देता है। ऐसा ही कुछ आजकल अयोध्या में हो रहा है। रामलला के मंदिर में स्थापित होने वाली मूर्तियों के लिए नेपाल की गंडकी नदी से विशाल शालिग्राम पत्थर अयोध्या लाए गए। अब इन शिलाओं में छुपी रामलला और सीता माता की मूर्तियां उभरकर बाहर आएंगी।

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अयोध्या में रामलला का विशाल मंदिर आकार ले रहा है। इसका वास्तविक स्वरूप क्या होगा, अभी उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। इस मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होगा रामलला और सीता माता की मूर्तियां। जब मंदिर का आकार इतना भव्य होगा तो निश्चित है कि उसमें विराजित मूर्तियां भी कुछ ख़ास ही होंगी और उसी की तैयारी शुरू हो भी हो गई। इन मूर्तियों के लिए नेपाल की गंडकी नदी से विशाल शिलाएं लाई गई है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक शालिग्राम पत्थरों को शास्त्रों में साक्षात विष्णु का रूप माना जाता है। हिंदू धर्म में शालिग्राम पत्थर को भगवान की तरह पूजा जाता है। ये पत्थर सिर्फ उत्तर नेपाल की इसी गंडकी नदी में पाए जाते हैं। हिमालय से आने वाला पानी इन चट्टानों से टकराकर पत्थर को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ देता है।इन्हीं पत्थरों से बनने वाली मूर्तियों का पूजन किया जाता है। विज्ञान के नजरिए से समझें तो ये पत्थर एक तरह का जीवाश्म है, जो 33 तरह के होते हैं।

भव्य राम मंदिर में रामलला और सीता माता की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा के लिए गंडकी नदी से खास तौर पर शिलाएं लाई गई हैं। 127 क्विंटल की इन शिलाओं को नेपाल से सड़क मार्ग के जरिए लाया गया। ये शिलाएं मूर्ति निर्माण के लिए अयोध्या पहुंच गई हैं। अयोध्या पहुंचने पर इनकी विधि विधान से पूजा भी की गई। अयोध्या पहुंचने पर शिला समर्पण समारोह भी किया गया। इसे नेपाल और अयोध्या के प्राचीन संबंधों को नया तेवर और कलेवर प्रदान करने वाला प्रसंग बताया गया। जानकी मंदिर के महंत राम तपेश्वर दास ने दूल्हा-दुल्हन सरकार की जय का जयकारा लगाकर अयोध्या और नेपाल के त्रेता युग के संबंधों को पुनर्जीवित किया। क्योंकि, इन 6 लाख साल पुरानी शालिग्राम शिलाओं की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जो किसी और पत्थर में नहीं मिलती इसलिए इन्हें वहां से लाया गया।

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ये शालिग्राम शिलाएं 14 से 20 करोड़ साल पुरानी जुरासिक काल की होती हैं। इनकी उम्र का अंदाजा शिला में मिलने वाले एम्यूनोएड के आधार पर लगाया जा सकता है। इस आधार पर इन शिलाओं की उम्र का सटीक पता लगाना आसान होना है। सामान्यतः ऐसे एम्यूनोएड स्फीति में भी मिलते हैं और कश्मीर के कुछ हिस्सों में भी पाए जाते हैं। यह एम्यूनोएड चक्र जैसा दिखता है और इसमें कॉलिंग होती है। एक हिस्सा एम्बो होता है, जिसे एम्यूनोएड का मुंह कह सकते हैं।

नेपाल की यह गंडकी नदी भारत में प्रवेश करते ही नारायणी बन जाती है। सरकारी कागजों में इसका नाम बूढ़ी गंडकी नदी है। इस नदी के काले पत्थर भगवान शालिग्राम के रूप में पूजे जाते हैं। ये शालिग्राम पत्थर सिर्फ इसी नदी में मिलते हैं। यह नदी दामोदर कुंड से निकलकर बिहार के सोनपुर में गंगा नदी में मिलकर समाहित हो जाती है। नदी के किनारे इन विशाल शिलाखंड को निकालने से पहले भी वहां कई धार्मिक अनुष्ठान किए गए। नदी से शिला निकालने के लिए बकायदा क्षमा याचना और विशेष पूजा की गई। इसके बाद इन्हें अयोध्या रवाना किया गया। शिलाओं का 26 जनवरी को गलेश्वर महादेव मंदिर में रुद्राभिषेक भी किया गया। ये सारे धार्मिक रीति रिवाज बताते हैं कि किसी मंदिर की मूर्तियों का महत्व क्या होता है।

इस शालिग्रामी नदी में काले रंग के एक विशेष प्रकार के पत्थर पाए जाते हैं। इन्हें ही शालिग्राम भगवान का रूप कहा जाता है। प्राचीन काल से मूर्तिकला में इस पत्थर का इस्तेमाल किया जाता रहा है। वे बताते हैं कि शालिग्रामी पत्थर बेहद मजबूत होते हैं। इसलिए, शिल्पकार इन पत्थरों पर बारीक से बारीक आकृति भी उकेर लेते हैं। अयोध्या के राम मंदिर की भगवान राम की सांवली प्रतिमा भी इसी तरह की शिला से बनेगी। राम जन्मभूमि के पुराने मंदिर में अनेक स्तंभ भी इन्हीं शिलाओं से बने थे।

जहां तक शालिग्राम भगवान के विष्णु रूप की बात है, तो शालिग्राम पत्थर से घर के सारे वास्तु दोष भी दूर हो जाते हैं। शालिग्राम 33 प्रकार के हैं, जिनमें से 24 प्रकार के शालिग्राम को भगवान विष्णु के 24 अवतारों से संबंधित माना जाता है। माना जाता है कि जिस घर में शालिग्राम होता है, वहां पर कभी दुख और दर्द का वास नहीं होता। हिंदू धर्मग्रंथों मुताबिक शालिग्राम भगवान विष्णु का ही एक रूप है। शैव संस्कृति में माना जाता है कि भगवान शिव जहां-जहां से गुजरे, वहां उनके पैरों के नीचे आने वाले कंकड़-पत्थर ने शालिग्राम का रूप धारण कर लिया। इसलिए शैव लोग शालिग्राम को जागृत महादेव मानते हैं।

देशभर के सभी बड़े मंदिरों में इन्हीं पत्थरों को तराशकर भगवान की मूर्तियां बनाई जाती हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शालिग्राम पत्थर को भगवान विष्णु के अवतार की तरह के रूप में पूजा जाता है। यह भी मान्यता है कि इसे कहीं भी रखकर पूजने से उस स्थान पर लक्ष्मी का वास होता है। 2024 की मकर संक्रांति से पहले भगवान रामलला की प्रतिमा इस पत्थर से बनकर तैयार हो जाएगी। इन पत्थरों का सीधा रिश्ता भगवान विष्णु और माता तुलसी से माना जाता है। इसलिए शालिग्राम की अधिकतर मंदिरों में पूजा होती है और इनको रखने के बाद प्राण प्रतिष्ठा की जरूरत भी नहीं होती।

जहां तक इस तरह के एम्यूनोएड के संरक्षण और आगे की उम्र के बारे में सवाल है तो ये शिलाएं अम्ल से प्रतिक्रिया करती हैं! इसलिए इसे उनसे बचाने की सलाह दी जाती है। इसे बैक्टीरिया और फंगस से भी बचाया जाना जरूरी है। आशय यह कि इन शिलाओं से बनी मूर्तियों को दूध, फल या किसी भी तरह की खाद्य सामग्री से दूर रखना बेहतर होगा। क्योंकि, इसके जरिए बैक्टीरिया और फंगस इस लाइमस्टोन को नष्ट कर सकते हैं। अगर इसे संरक्षित किया जाए तो ये मूर्तियां कई लाख, करोड़ साल तक यह सुरक्षित रह सकती है।

नेपाल के पूर्व उप प्रधानमंत्री ने बताया कि पहले वह जनकपुर से जुड़ी श्रीराम की विरासत के अनुरूप रामलला के लिए धनुष भेंट करना चाहते थे। किंतु राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के साथ दो वर्ष तक चले संवाद के बाद यह तय हुआ कि नेपाल की गंडकी नदी से रामलला की मूर्ति के लिए पवित्र शिला अर्पित की जाए और यह शिला समर्पित करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है। चंपत राय ने शिला समर्पित करने के लिए जनकपुर मंदिर, नेपाल सरकार और वहां के लोगों के प्रति आभार ज्ञापित किया।