बोल मेरी तकदीर में क्या है…!

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आगामी विधानसभा सत्र में सदन में गूंजेगी नीति आयोग की रिपोर्ट और प्रदेश की गरीबी ...

बोल मेरी तकदीर में क्या है…!

मध्यप्रदेश विधानसभा में किसानों का मुद्दा उठा। सत्ता पक्ष‌ और विपक्ष में तीखी तकरार हुई। विपक्ष ने बहिर्गमन कर सरकार को आइना दिखा दिया। सरकार का पक्ष भी नहीं सुना। जब मुख्यमंत्री किसानों के नुकसान की भरपाई और सर्वे पर अफसरों संग गहन मंथन में व्यस्त थे, तब विधानसभा में विपक्ष हंगामा कर रहा था। चुनावी साल में किसानों का हितैषी साबित करने की कवायद होना आम बात है। पर सवाल यह है कि क्या इससे वास्तव में किसानों की तकदीर बदली जा सकती है? क्या अन्नदाता के दु:ख की भरपाई की जा सकती है? आखिर इस मुद्दे पर गंभीरता के साथ बैठकर जनप्रतिनिधि विचार क्यों नहीं करते? सरकार किसी भी दल की रहे, लेकिन यह बात तो तय है कि फसलों पर प्रकृति की मार हमेशा ही पड़ती रही है।

और अन्नदाता फसलें बर्बाद होने पर खुद भी बर्बादी की कगार पर पहुंच जाता है। सरकारी प्रक्रिया कितनी भी दुरुस्त हो, पर किसानों के खातों में मुआवजा की राशि पहुंचते-पहुंचते वक्त पहले भी लगता रहा है और अब भी लग रहा है। क्या ऐसी किसी व्यवस्था का प्रावधान संभव नहीं है कि फसल बीमा कंपनियों को फसल के नुकसान होने के बाद तय समय 15 दिन या 20 दिन में सीधे पीड़ित किसानों के खाते में नुकसान की भरपाई करने वाली राशि का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा सके? आयुष्मान कार्ड‌ बनाकर केंद्र सरकार हर पात्र का पांच लाख तक का इलाज कराने का प्रावधान कर चुकी है और लोगों को इसका पूरा लाभ भी मिल रहा है। इस तर्ज पर प्रकृति की मार से फसल बर्बाद होने पर किसानों को नुकसान के मुताबिक पांच लाख तक की राशि तय‌ समय में मुहैया हो सके, क्या ऐसी किसी नीति बना पाना संभव नहीं है?

किसानों के हित में ऐसे विचारों पर क्या विधानसभा में सभी जनप्रतिनिधियों को मिलकर मंथन नहीं करना चाहिए? ऐसी राजनीति से आखिर किसान को क्या मिलने वाला कि उनकी बर्बादी पर सरकार पर निशाना साधकर विपक्ष नायक बनकर संतुष्ट हो जाए और किसान आपदा की मार से हमेशा की तरह बेहाल ही बना रहे। या सरकारी मुआवजा समय पर मिल जाए तो किसान सरकार को पूजता रहे। कम से कम फसल की बर्बादी पर सत्ता पक्ष-विपक्ष के खेल से शायद अब किसान को मुक्त करने का समय आ गया है।

ओलावृष्टि से प्रभावित किसानों को राहत न पहुंचाने के मामले में कांग्रेस ने सोमवार यानि 20 मार्च 2023 को बहिर्गमन किया। नेता प्रतिपक्ष डॉ गोविंद सिंह ने कहा कि सरकार किसानों से जुड़े इस बड़े मुद्दे पर गंभीर नहीं है। अभी तक सर्वे प्रारंभ नहीं हुआ है। किसी भी किसान को सहायता नहीं मिली है। हम इन दोनों मुद्दे को लेकर बहिर्गमन करते हैं। वहीं संसदीय कार्य मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि कांग्रेस किसानों के नाम पर राजनीति कर रही है। इनका कोई नेता किसानों के बीच नहीं पहुंचा है। हमारे नेता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अधिकारियों के साथ बैठक करके स्थिति का जायजा ले रहे हैं और सर्वे कराने के निर्देश दिए जा चुके हैं। न तो कमल नाथ अब तक किसानों के खेत में पहुंचे हैं और न ही दिग्विजय सिंह। सदन का उपयोग राजनीति के लिए किया जा रहा है। किसानों के मुद्दे पर विधानसभा के अंदर और बाहर दोनों जगह बीजेपी और कांग्रेस के मंत्री-विधायकों ने जमकर एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी की।विधानसभा के बाहर शाजापुर के कालापीपल से विधायक कुणाल चौधरी गेहूं की बर्बाद हो चुकी बालियां लेकर पहुंचे थे और जमीन पर बालियां बिछाकर सरकार से किसानों की मदद तत्काल करने की मांग कर रहे थे। विधानसभा के अंदर नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविंद सिंह ने सरकार पर आरोप लगाए कि बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि की वजह से किसानों की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है और सरकार अभी तक कोरी लफ्फाजी ही कर रही है और किसानों तक अब तक कोई मदद नहीं पहुंची है। सरकार की तरफ से कैबिनेट मंत्री भूपेंद्र सिंह ने सभी आरोपों पर पलटवार किया।मंत्री भूपेंद्र सिंह ने कहा कि ‘हमारी सरकार ने राहत राशि बढ़ाने का काम किया है। कांग्रेस के समय तो राहत राशि बेहद मामूली ही दी जाती थी। सर्वे से एक भी किसान नहीं छूटेगा। सभी पीड़ित किसानों को राहत राशि दी जाएगी। उन्होंने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए कहा कि ‘कांग्रेस ने अपनी सरकार के दौरान एक पैसा किसानों को नहीं दिया लेकिन हमारी सरकार किसानों के साथ पूरी तरह से खड़ी है और हर मदद दे रही है’। मंत्री भूपेंद्र सिंह ने बताया कि सभी किसानों को पर्याप्त राहत राशि मिलेगी।

यह तो बात हुई विधानसभा की। पर असल बात यही है कि ऐसा सिस्टम कब तक बनकर तैयार होगा, जब किसानों के नुकसान की भरपाई सीधे फसल बीमा कंपनियों की जिम्मेदारी तक सीमित हो जाए और सत्ता पक्ष और विपक्ष को अन्नदाता के हितों के नाम पर तनावग्रस्त न होना पड़े। तब शायद किसान आत्मनिर्भर हो सकेगा और प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी वह असुरक्षा की भावना से ग्रस्त नहीं होगा। इसके लिए जरूरी है कि ऐसी नीति के निर्माण की प्रक्रिया के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष कवायद में जुटें कि व्यावहारिक तौर पर यह किस तरह संभव हो सकेगा? ताकि इक्कीसवीं सदी में अब किसान को फसल की बर्बादी पर शोक में डूबकर और आसमान की तरफ माथे पर हाथ रखकर निरीह बन टकटकी लगाए ईश्वर से यह सवाल न पूछना पड़े कि “बोल मेरी तकदीर में क्या है…!”