वक्त की यह सीख सभी के लिए है…

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वक्त की यह सीख सभी के लिए है…

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की लोकसभा से सदस्यता खत्म। कांग्रेस पार्टी के लिए दिल दहलाने वाला मामला। प्रतिक्रियाओं का दौर जारी है। फैसले को गुण-दोष के आधार पर देखने की हिम्मत कोई नहीं जुटा रहा। ऐसा कतई नहीं है कि मानहानि के मामले में दो साल की सजा से अपने में असीम संभावनाएं भरे उत्साह से लबरेज राहुल गांधी का राजनैतिक भविष्य खत्म हो गया है। हो सकता है कि ऊपरी अदालत में अपील में यह फैसला पलट जाए। हो सकता है कि ऊपरी अदालत भी गुण-दोष के आधार पर फैसले को यथावत रखे। हो सकता है कि सदस्यता खत्म रहे या फिर बहाल हो जाए। सब कुछ भविष्य के गर्त में छिपा है। पर ऐसी किसी भी घटना से लोकतंत्र पर आंच नहीं आ सकती और लोकतंत्र झुलस नहीं सकता। यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की ताकत है।
जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया, तब भी लोकतंत्र खत्म नहीं हुआ था और अब राहुल गांधी को मानहानि के मामले में दो साल की सजा और सदस्यता खत्म होने से भी लोकतंत्र पर कोई संकट नहीं आया है। न्यायालय के फैसले और लोकसभा के फैसले पर उंगली उठाने की कोई वजह नहीं है। कांग्रेस के युवा नेताओं को इसकी प्रतिक्रिया देकर खुद को क्रांतिकारी बनाने के फेर में युवावस्था के जोश में होश नहीं खोना चाहिए। बल्कि यह जरूर सोचना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी में भारत के परिपक्व लोकतंत्र में उन्हें अपने व्यवहार और आचरण को किन दायरों में सीमित करने की जरूरत है। यदि एक मुसलमान देशद्रोही साबित होता है तो क्या पूरी कौम पर सवालिया निशान लगाया जा सकता है। उत्तर यही है कि कतई नहीं। यदि एक हिंदू गद्दार साबित होता है तो क्या सभी हिंदुओं को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। उत्तर है कि बिलकुल नहीं। यदि एक ईसाई अपराध में लिप्त है तो क्या पूरा ईसाई समुदाय अपराध का पर्याय बन जाता है। उत्तर है असंभव। और यदि एक सिख अपने आचरण से देश को कलंकित करता है तो क्या पूरी सिख आबादी संदेह के दायरे में आ जाती है? उत्तर है नहीं, नहीं और नहीं। फिर एक सरनेम के दो लोग चोरी, अपराध या देशद्रोह करते हैं तो क्या उस सरनेम के सभी लोगों पर चोर, अपराधी या देशद्रोही का टैग चस्पा किया जा सकता है? उत्तर है कतई नहीं, बिल्कुल नहीं, असंभव और नहीं, नहीं और नहीं।
मंचों से सभाओं में जिन नेताओं द्वारा भाषणों में अक्सर दायरों को लांघकर श्रेष्ठ वक्ता बनने और तालियां बटोरने की कवायद की जाती है, सूरत की अदालत का राहुल गांधी के मामले में दिया गया फैसला उन सभी नेताओं को आइना दिखा रहा है। सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी या प्रतिक्रियाएं देने में भी जो नेता हद से गुजर जाते हैं, सूरत की अदालत का यह फैसला उन्हें भी सीख देने का सख्त संदेश दे रहा है। यह फैसला खास तौर पर सभी राजनैतिक दलों के युवा नेताओं को नसीहत दे रहा है, जिन्हें राजनीति में लंबी पारी खेलना है। और जो भारत के भाग्य विधाता बनकर दुनिया में देश को सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जिम्मेदारी का निर्वहन करेंगे, वह सभी युवा नेता यह भलीभांति समझ लें कि अब आरोपों की बौछार तथ्यों और सबूतों के आधार पर लगाने की आदत डालनी पड़ेगी। किसी एक व्यक्ति के आरोपी होने का विस्तार पूरी कौम पर कतई नहीं किया जा सकता है। और भविष्य के नेताओं को बोलने में, आरोपों की बौछार करने में और  तर्कहीन, आधारहीन, अनर्गल वार्तालाप करने के मामले में अपनी हदों को पहचानना होगा। वक्त की यह सीख युवा नेताओं के लिए खास है तो सभी नेताओं को अब इस सीख को आचरण और व्यवहार में शामिल करना ही पड़ेगा। यह राष्ट्र की जरूरत भी है और लोकतंत्र की सबसे बड़ी मांग भी है।
23 मार्च 2023 को सबसे चर्चित खबर यही थी कि राहुल गांधी को दो साल की जेल, तुरंत मिली बेल। ‘मोदी’ सरनेम पर बयान केस में सूरत कोर्ट ने यह फैसला सुनाया। खबर का विस्तार यह था कि ‘सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है?’ कांग्रेस नेता राहुल गांधी के इस बयान को लेकर दर्ज मानहानि के मामले में उन्हें दोषी करार दिया गया है। हालांकि, राहुल को कोर्ट से तुरंत जमानत भी मिल गई। गुजरात की सूरत सेशन कोर्ट ने दो साल की सजा सुनाई है। राहुल ने 2019 में कर्नाटक में एक रैली में ये बयान दिया था। राहुल के इस बयान को पूरे मोदी समाज का अपमान बताते हुए बीजेपी विधायक पूर्णेश मोदी ने उनके खिलाफ मामला दर्ज कराया था। गुजरात की सूरत कोर्ट ने चार साल पुराने इस मामले में राहुल को दोषी ठहराया। कार्यवाही के दौरान राहुल गांधी कोर्ट में मौजूद रहे। इस दौरान गुजरात कांग्रेस के तमाम बड़े नेता उनके साथ मौजूद रहे।
सूरत कोर्ट के इस फैसले के बाद कानून के जानकारों ने तस्वीर साफ कर दी थी कि अगला कदम राहुल गांधी की लोकसभा से सदस्यता का खत्म होना ही है। और 24 मार्च 2023 की सबसे चर्चित खबर भी यही बनी कि राहुल गांधी की लोकसभा की संसद सदस्यता खत्म कर दी गई है। यह तो दो साल की सजा पर होना तय ही था। इसमें कोई भूचाल आने की बात नहीं थी। पर सियासत में अपने नेता पर हुए इस वज्रपात पर सत्ताधारी दल पर आक्रमण करना अपरिहार्य है, सो वही हो रहा है। इसमें कोई नई बात नहीं है, क्योंकि इक्कीसवीं सदी में अब राजनीति का यही दौर चल रहा है। जनता पार्टी शासन के दौरान स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी की भी लोकसभा की सदस्यता छीनी गई थी| उसके बाद 1980 में जनता ने फिर से कांग्रेस पार्टी को जनादेश देकर सत्ता सौंपी थी। तब जनता ने न्याय किया था और अब भी जनता ही न्याय करेगी। राहुल गांधी तो यह बात समझ रहे हैं, लेकिन कांग्रेस नेता प्रतिक्रियाएं देकर महज अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर खानापूर्ति ही कर रहे हैं। न्यायालय के फैसले पर टिप्पणी करना किसी की हिम्मत नहीं है तो लोकसभा के फैसले पर टिप्पणी कर तो संतुष्टि की ही जा सकती है। और यही दौर चल भी रहा है।
प्रियंका गांधी ने सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री को संबोधित पत्र में लिखा है कि आपके चमचों ने एक शहीद प्रधानमंत्री के बेटे को देशद्रोही, मीर जाफ़र कहा। आपके एक मुख्यमंत्री ने सवाल उठाया कि राहुल गांधी का पिता कौन है? कश्मीरी पंडितों के रिवाज निभाते हुए एक बेटा पिता की मृत्यु के बाद पगड़ी पहनता है, अपने परिवार की परंपरा क़ायम रखता है। भरी संसद में आपने पूरे परिवार और कश्मीरी पंडित समाज का अपमान करते हुए पूछा कि वह नेहरू नाम क्यों नहीं रखते…. लेकिन आपको किसी जज ने दो साल की सज़ा नहीं दी। आपको संसद से डिस्क्वालिफाई नहीं किया। राहुल जी ने एक सच्चे देशभक्त की तरह अडानी की लूट पर सवाल उठाया। नीरव मोदी और मेहूल चौकसी पे सवाल उठाया…। क्या आपका मित्र गौतम अडानी देश की संसद और भारत की महान जनता से बड़ा हो गया है कि उसकी लूट पर सवाल उठा तो आप बौखला गए? आप मेरे परिवार को परिवारवादी कहते हैं, जान लीजिए, इस परिवार ने भारत के लोकतंत्र को अपने खून से सींचा जिसे आप ख़त्म करने में लगे हैं। इस परिवार ने भारत की जनता की आवाज़ बुलंद की और पुश्तों से सच्चाई की लड़ाई लड़ी।
हमारी रगों में जो खून दौड़ता है उसकी एक ख़ासियत है- आप जैसे कायर, सत्तालोभी तानाशाह के सामने कभी नहीं झुका और कभी नहीं झुकेगा। आप कुछ भी कर लीजिए।
प्रियंका गांधी ने जो ब्यौरा दिया है, उसमें सवालिया निशान तैर रहे हैं। सवाल यही है कि बयान देने वालों के खिलाफ क्या कानूनी कार्रवाई की गई है? यदि नहीं तो इसमें कांग्रेस की गलती है। निष्कर्ष यही है कि मानहानि के इस फैसले से नेताओं को सीख लेने की जरूरत है। खास तौर पर युवा नेताओं को। यह पूर्ण सत्य है कि वक्त की यह सीख सभी के लिए अमूल्य और फलदायी है।