अपनी भाषा अपना विज्ञान: माँ और शिशु का साझा सूक्ष्म जीवाणु संसार
एक मां से शिशु को क्या-क्या मिलता है?
गर्भ में विकास, दूध, लाड़ प्यार, संस्कार, सुरक्षा
क्या-क्या नहीं मिलता।
एक और चीज मिलती है जिसके बारे में कम लोग जानते हैं और कम ही जानते हैं।
मिलते हैं करोड़ों अरबों बैक्टीरिया। जी हां बैक्टीरिया, जिन्हें हम जर्म्स या कीटाणु या जीवाणु के रूप में जानते हैं,जिनसे हम डरते हैं क्योंकि वे नाना रोगों का कारण बनते हैं। आधुनिक मानव की सतत कोशिश रहती है बैक्टीरिया से बचने की। सफाई रखो, हाथ धोओ, नहाओ, एंटीसेप्टिक साधन अपनाओं, छानकर पानी पियो, बाहर का खाना मत खाओ। ठीक भी है। इसके फायदे जगजाहिर है। लेकिन यह भी सच है कि हम बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्म जीवों से बच नहीं सकते। कुछ भी कर लो। हम डाल डाल तो वे पात पात।
(चित्र – आंतों में बेक्टीरिया)
बैक्टीरिया Ubiquitous है – सर्वव्यापी है। जहाँ में ऐसा कहां है कि जहां बैक्टीरिया ना हो। शायद स्टरलाइज्ड ऑपरेशन थिएटर को छोड़कर। यदि कण-कण में भगवान है तो कण-कण में बैक्टीरिया व अन्य जीवाणु है।
इनकी खलनायक वाली छवि से परे सच्चाई तो यह है कि बैक्टीरिया हमारे अंतरंग साथी हैं। हमारे भले के साथी या तटस्थ किराएदार।
हमारे शरीर में प्रतिक्षण कितने बैक्टीरिया रहते हैं?
लगभग उतने ही जितनी कि हमारे शरीर में कुल कोशिकाएं होती है। इनमें से अधिकांश बैक्टीरिया हमारी आंतों में भरे पड़े रहते हैं। इनकी वैरायटी हजारों प्रकार की होती है। वैरायटी अर्थात स्पीशीज।
आंतों तथा शरीर के अन्य भागों में रहने वाले बैक्टीरिया परिवारों का अपना एक इकोसिस्टम होता है। पारिस्थितिकी। इकोलॉजी। इसका स्वस्थ संतुलन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी वर्षा-वन या रेगिस्तान की इकोलॉजी का। इसे हम माइक्रोबायोम(Microbiome) कहते हैं। “सूक्ष्म जीव संसार”।
एक सेनिटाइज्ड ऑपरेशन थिएटर मानव निर्मित कृत्रिम स्थान है। प्रकृति में ऐसा कहां हो सकता है कि कोई रचना बैक्टीरिया विहीन हो? एक स्वस्थ मां के गर्भ में पल रहा शिशु। जन्म के समय तक वह जीव स्टराइल (Sterile) – जीवाणु रहित होता है।
प्रसव के दौरान बाहर आते समय नवजात का शरीर मां के योनि मार्ग में मौजूद हजारों प्रकार के करोड़ों बैक्टीरिया के चिपचिपे द्रव पदार्थ में लथपथ हो जाता है। माँ अपनी संतान को जीवन का पहला कवच पहनाती है। जैसे कि यूनानी पुराण कथा में एफ्रोदिते अपने नन्हें एचिलिस को उसकी एड़ियों से पकड़कर, उल्टा लटका कर स्वर्ग की नदी में एक डुबकी लगवाती थी
बच्चों का माइक्रोबायोम (सूक्ष्मजीव संसार) मां की देन से शुरू होता है। जन्म के बाद एक-दो वर्षों में, छाती से चिपक कर दूध पीते, मां की सांसो को सूंघते, माता की देह की गर्मी में अलसाते शिशु को मां के बेक्टीरिया की सतत सप्लाई मिलती रहती है।
बच्चे की इम्युनिटी का तंत्र और मेटाबॉलिज्म इन्हीं से विकसित होता है। मां ने जिन जिन संक्रमणों का सामना करके खुद के शरीर में जो प्रतिरोधात्मक आत्म रक्षा प्रणाली गढ़ी होती है उसका ट्रांसफर हजारों बैक्टीरिया की अनेक खेपों के माध्यम से होता रहता है।
आंतों और शरीर के अन्य अंगों में बसने वाली बेक्टीरिया-कॉलोनी से निकलने वाले नाना प्रकार के रसायन बच्चे के विकास में महती भूमिका निभाते हैं ।
शोध पत्रिका ‘सेल’(Cell) के दिसंबर 2022 के अंक में मेसासुचेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी तथा हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ब्रॉड इंस्टिट्यूट के रिसर्चर्स ने एक विस्तृत सर्वेक्षण के परिणाम प्रकाशित किये। नवजात शिशु के जीवन के प्रथम तीन वर्षों में, उसके और माता के सूक्षम जीव संसार (माइक्रो-बायोम) का तुलनात्मक अध्ययन किया गया ।
शोधकर्ता रमणीक ने बताया कि माँ और बच्चे के 70 जोड़ो के टट्टी के सैंपल समय समय पर इकट्ठा किये गए। उनमें मौजूद बेक्टीरिया को विशिष्ट रसायनों से भरे मर्तबानों और प्लेटों में उगाया गया । इस विधि को “कल्चर करना” कहते हैं। उगने वाले बेक्टीरिया की बस्तियों (कॉलोनीज) की पहचान करने की अपनी अलग विधियाँ और कसौटियां होती है ।
कल्चर करना (उगाना) एक लम्बी प्रक्रिया है, समय लगता है, परिणाम सटीक नहीं मिलते,बैक्टीरिया मौजूद हो फिर भी कल्चर में उगने से रह जाते हैं। जिनेटिक्स विज्ञान में युगांतरकारी प्रगति के कारण 165r RNA तकनीक द्वारा सूक्ष्म जीवों पर शोध त्वरित,आसान और सटीक हो गई है । राइबोसोमल आर.एन.ए. की इस उपइकाई में विभिन्न न्यूक्लीयोटइ और तदनुरूप अमीनो एसिड्स की क्रमबद्धता के सुनिश्चित पैटर्न इस तरह से भरे रहते है मानो ख़ास ख़ास हस्ताक्षर या फिंगर प्रिंट हों । बेक्टीरिया की हजारों प्रजातियों के डी.एन.ए. के क्रमबद्ध पैटर्न इनका मिलान करते है उन जीवाणुओं की पुख्ता पहचान हो जाती है ।
सूक्ष्म जीव-संसार (माइक्रोबायोम) के दोनो सैंपल्स में अनेक भिन्नताएं पाई गई ।माँ-बच्चे के आहार का भी प्रभाव देखा गया ।
नयी आश्चर्यजनक बात यह मालूम पड़ी कि शिशु की आंतों में माँ वाले अनेक बेक्टीरिया न होने के बावजूद उन जीवाणुओं की जींस(जीनोम) के अंश वहां पाये गये।
सामान्यतः जींस का अनन्तरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता है – वर्टिकल ट्रांसमिशन। क्या बिना प्रजनन के, एक ही पीढ़ी में एक सदस्य से दूसरे सदस्य तक कुछ जींस छलांग लगा सकती है? इसे दुर्लभ अपवाद माना जाता रहा है। इसका नाम है Horizontal Transmission.
एक सह-लेखक टॉमी वनानेन(हेलसिंकी, फिनलैंड) ने कहा कि शुरू में हम विशवास नहीं कर पा रहे थे कि माता की आतों की बेक्टीरियल बस्तियों में से जीनोम के हजारों अंश, कूद लगा कर शिशु के माइक्रोबायोम को समृद्ध बना रहे होंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि माँ के दूध व अन्य स्पर्श माध्यम से इन्फेंट के शरीर में प्रवेश करने वाले अनेक बेक्टीरिया वहां लम्बे समय तक जीवित न रह पाते हों लेकिन फिर भी उस अवधि में उनके जीनोम के छोटे बड़े टुकड़े, जिन्दा रह जाने वाले बेक्टीरिया में सवार हो जाते हैं ।
इस अनन्तरण (Transfer) की प्रक्रिया में प्रोफाज (Prophage) नाम की वायरस वाहक की भूमिका निभाती हैं।
चलायमान जींस (Mobile Genes) की खोज सबसे पहले 1940 के दशक में बार्बरा मेक्किन्टोक ने करी थी, जिसके लिए उन्हें नोबल पुरूस्कार दिया गया था । लेकिन ऐसा Horizontal Transfer जन्म के समय से शुरू हो जाता होगा तथा शिशु के विकास में इतनी भुमिका निभाता होगा, इसका अनुमान नहीं था ।
जो बच्चे सीजेरियन ऑपरेशन से पैदा होते हैं उन्हें माता के बेक्टीरियल रंगों की होली में भीगने का अवसर नहीं मिलता। उनके लिए यह एक हानि है। फिर भी आगामी सप्ताहों और महीनो में माँ का दूध और चमड़ी से चमड़ी संपर्क वाले लाड़ प्यार, आलिंगन, चुम्बन आदि मिलते रहें तो काफी हद तक इस कमी की पुर्ति हो जाती है ।
अगली बार आप अब जब भी एक माँ की खुली छाती पर नंगे शिशु को चिपक कर दूध पीता देखें, तो जरुर मुस्कराईयेगा कि बच्चे के सूक्ष्म जीव संसार को अच्छा खाद-पानी मिल रहा है।
माता की आतों और योनिमार्ग (वेजाइना) बेक्टीरिया की जातियों और संख्याओं का गर्भ में पल रहे फिट्स की रचना और विकास से गहरा सम्बन्ध पाया गया है । इन जीवाणुओं से निकलने वाले अनेक केमिकल, इम्युनिटी और Inflammation (प्रवाह) को नियंत्रित करते हैं ।
लेक्टोबेसिलस नामक लाभकारी बेक्टीरिया माँ के वेजाइना में बहुतायत से मौजूद रहता है । नवजात शिशु की आंते एक बड़ा रियल स्टेट है जिसमें देखते ही देखते ढेर सारी नई कालोनियां बस जाती है । नाना प्रकार के बेक्टीरिया की बस्तियां । बसने वाले अनेक धर्मों, नस्लों, जातियों, रंगों और भाषाओँ वाले होते हैं। कुछ असामाजिक तत्त्व भी पैठ कर जाते हैं । माँ का स्वास्थ्य, उसका आहार, हाइजीन आदि का असर पड़ता है।
शिशु को यदि प्रथम छ: माह तक केवल माँ का दूध मिले तो उसकी आतों में बाईफिडो बेक्टीरियम की लाभकारी बढ़त होती है ।
Jama Pediatrics नमक शोध पत्रिका के जुलाई 2018 के एक अंक में कनाडा के रिसर्चर्स ने बताया कि डिब्बे का दूध पीते बच्चों में मोटापा, एलर्जी, डाइबिटीज आदि रोगों की आशंका अधिक पाई गई क्योकिं उनका सूक्ष्म जीवाणु संसार विकृत किस्म का था ।
विकसित देशों में हाइजिन का स्तर बेहतर होने तथा बोतल द्वारा फार्मूला फीडिंग का चलन अधिक होने से वहां के बच्चों की Gut के Microflora की संख्या, वेरायटी और गणवत्ता निचले दर्जे की होना संभावित है ।
मेरी पत्नी डॉ. नीरजा (IBCLC-International Board Certified Lactation Consultant) हमेशा बताती है कई महज कुछ दिनों में, थोड़ी सी खुराक बोतल द्वारा अन्य दूध (गाय,पाउडर) का देने से इंटेस्टाइन के जीवाणुओं का स्वस्थ संतुलन गड़बड़ा जाता है । पुनः ठीक होने में अनेक सप्ताह लग जाते है । दीर्घकालिक दुष्परिणाम होते है। दुःख की बात है कि अनेक डॉक्टर्स, स्तनपान के लिये केवल जबानी जमाखर्च(लिप-सर्विस) करते हैं। जरा सी तुच्छ सी कठिनाई आने पर माता को सलाह दे डालते है – पिला दो, पिला दो, ऊपर का पिला दो वे नहीं जानते (या शायद जानते भी हो) कि ऐसा करके वे राष्ट्र की भावी पीढ़ियों के पोषण,इम्युनिटी, बौद्धिक विकास आदि में खलल के एक कारक बन रहे हैं ।