रावेरखेड़ी में जिंदा रहेंगे चितपावन थोरले बाजीराव पेशवे (Bajirao Peshwa) ,281 साल बाद सजेगी समाधि

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Bajirao

चितपावन कुल के ब्राह्मण घर में जन्मे थोरले बाजीराव (Bajirao )की रावेरखेड़ी में बनी समाधि 281 साल बाद मराठा शिल्प के तहत काले पत्थरों से सजकर प्रेम, साहस, वीरता और राष्ट्रभक्ति की छटा बिखेरेगी। 18 अगस्त 1700 ईसवीं को श्रीवर्धन में जन्मे बाजीराव की 321 वीं जयंती पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा में शामिल होकर सिंधिया घराने को पूरी तरह भगवामय करने वाले केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने रावेरखेड़ी में बाजीराव की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित की। इसके साथ ही मराठा शिल्प से समाधि को सुसज्जित करने और मॉं नर्मदा का घाट बनाने, परिक्रमा तीर्थयात्रियों के लिए निवास बनाने की राह भी प्रशस्त हो गई। निश्चित तौर से जब समाधिस्थल पर्यटन के रूप में विकसित होगा तो देशवासी इस महानतम अपराजेय योद्धा को श्रद्धासुमन अर्पित करेंगे तो मॉं नर्मदा के किनारे राष्ट्रभक्ति,वीरता,साहस और प्रेम की भावना से ओतप्रोत हो उठेंगे।

पिता के निधन के बाद बीस साल की आयु में पेशवा बने बाजीराव की वीरता के अमिट निशान दिल्ली से लेकर हैदराबाद के निजाम तक अंकित हैं। तो बाजीराव का सामना एक बार भोपाल के निकट भी निजाम से हुआ था, जिसमें बाजीराव की सेना ने विजय हासिल कर दोराहा भोपाल की सन्धि की और मालवा का सम्पूर्ण क्षेत्र मराठों को प्राप्त हो गया था। करीब बीस साल की अपनी पेशवाई में सभी 41 युद्धों में विजय प्राप्त कर अपराजेय बने बाजीराव विश्व के महानतम सेनानी सम्राट के रूप में प्रसिद्व हैं। उन्होंने जहां मुगल-निजाम का दंभ दफन किया तो धर्मांतरण के लिए हिन्दू जनता को मजबूर करने वाले विदेशी पुर्तगालियों को भी नेस्तनाबूत कर भगवा ध्वज को गौरवान्वित किया।

जिस समय बाजीराव प्रथम पेशवा बने, उस समय भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। ये भारत के देवस्थान तोड़ते, जबरन पन्थ परिवर्तन करते, महिलाओं व बच्चों को मारते व भयंकर शोषण करते थे। ऐसे में श्रीमन्त बाजीराव पेशवा  (Bajirao Peshwa) ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे। 1724 में शकरखेडला में श्रीमन्त पेशवा ने मुबारिज़खाँ को परास्त किया। 1724-26 के बीच मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित किया। 1728 में पालखेड़ में महाराष्ट्र के परम शत्रु निजामउलमुल्क को पराजित कर उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली। फिर मालवा और बुन्देलखण्ड पर आक्रमण कर मुगल सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की। 1729 में मुहम्मद खाँ बंगश को परास्त किया। 1731 में दभोई में त्रिम्बकराव को नतमस्तक कर उसने आन्तरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आंग्रिया तथा पुर्तगालियों एवं अंग्रेजो को भी बुरी तरह पराजित किया। 1737 में दिल्ली का अभियान उनकी सैन्यशक्ति का चरमोत्कर्ष था। उसी वर्ष भोपाल में श्रीमन्तबाजीराव पेशवा ने फिर से निजाम को पराजय दी।अन्तत: 1739 में उन्होंने नासिरजंग पर विजय प्राप्त की।बाजीराव प्रथम और उनके भाई चिमाजी अप्पा ने बेसिन के लोगों को पुर्तगालियों के अत्याचार से भी बचाया जो जबरन धर्म परिवर्तन करवा रहे थे और यूरोपीय सभ्यता को भारत में लाने की कोशिश कर रहे थे। जिसके चलते 1739 में अन्तिम दिनों में अपने भाई चिमाजी अप्पा को भेजकर उन्हें पुर्तगालियों को नेस्तनाबूत कर दिया और वसई की सन्धि करवा दी।

काशीबाई और मस्तानी दो अलग-अलग किनारों के बीच तैरते हुए आखिरकार यह अपराजित योद्धा जिंदगी से जंग लड़ता हुआ नर्मदा किनारे रावेरखेड़ी को अंतिम ठिकाना बनाकर 40 साल में ही अनंत यात्रा पर निकल पड़ा।छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा (प्रधानमन्त्री) रहे बाजीराव प्रथम महानतम पेशवा के बतौर इतिहास में दर्ज हैं। जिनका मध्यप्रदेश से अमिट रिश्ता रहा है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बीमार होने के बावजूद डॉक्टरों की सलाह को दरकिनार कर रावेरखेड़ी पहुंचे। वैसे वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बाजीराव प्रथम को याद करने के भाजपा सरकार के कदम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निश्चित तौर पर अच्छा महसूस करेगा। तो मराठा शिल्प में काले पत्थरों से निर्मित बाजीराव की समाधि पर पहुंचे पर्यटकों के दिलों में राष्ट्रभक्ति, धर्मांतरण, वीरता, साहस, प्रेम, भगवा, हिंदुत्व जैसे शब्द भी दस्तक देते रहेंगे।