कानून और न्याय: क्या न्यायपालिका में भी कोई आरक्षण होना चाहिए!

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कानून और न्याय: क्या न्यायपालिका में भी कोई आरक्षण होना चाहिए!

– विनय झैलावत

उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति अभिभाषकों एवं जिला जजों में से मिलाकर होती है। समय-समय पर यह चर्चा और विचार विमर्श होता रहता है। इन दोनों में आखिर अनुपात कितना होना चाहिए। जिला जज उच्च न्यायालयों में कम समय के लिए होते हैं। उनके कार्यकाल की अवधि कम होती है, क्योंकि जब उच्च न्यायालय में उनकी पदोन्नति होती है तब उनकी सेवानिवृत्ति भी नजदीक होती है। इसके विपरित अभिभाषक के पास अधिक समय होता है। क्योंकि, उनको इनकी अपेक्षा कम उम्र में नियुक्त किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में दिल्ली न्यायिक सेवा संघ द्वारा इस संबंध में प्रस्तुत याचिका में इस आशय के निर्देश देने से इंकार कर दिया। इसमें सहायता चाही गई थी कि यदि उच्च न्यायालयों में अभिभाषक कोटे से कोई स्थान कुछ समय से रिक्त हो, तो इन स्थानों पर जिला न्यायपालिका एवं वहां सेवारत जजों से उसकी पूर्ति की जाए।

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने ऐसे निर्देश देने से इंकार कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने आवेदकों को अपनी शिकायतें उपयुक्त फोरम पर देने तथा संपर्क करने की अनुमति दी। चाही गई सहायता पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि सभी उच्च न्यायालयों में कुल रिक्त स्थानों में से कम से कम एक तिहाई जिला कोर्ट की न्यायपालिका में से भरा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायपालिका ने यह आशा व्यक्त की, कि इस अनुपात को कठोरता से बनाए रखा जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि जिला न्यायपालिका से उच्च न्यायालय में पदोन्नत किए गए न्यायाधीशों और वकीलों में पदोन्नत किए गए न्यायाधीशों के मध्य एक:तीन के अनुपात को बनाए रखा जाना चाहिए।

कानून और न्याय: क्या न्यायपालिका में भी कोई आरक्षण होना चाहिए!

न्यायपालिका इस देश की मूलभूत आवश्यकता होने के साथ ही लोकतांत्रिक स्तंभ भी है। इस स्तंभ का एक अहम मूलभूत हिस्सा न्यायपालिका चलाने वाले न्यायाधीश है। हाल ही में एक याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने इन मामलों में भी टिप्पणी की है कि क्या न्यायपालिका में आरक्षण होना चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 224 के तहत की जाती है। इसमें किसी जाति या वर्ग के व्यक्तियों के लिए आरक्षण प्रदान नहीं किया जाता। इसलिए केंद्रीय रूप से कोई जाति/श्रेणीवार आंकड़े नहीं रखे जाते हैं।

काॅलेजियम प्रणाली के माध्यम से संवैधानिक न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है। वर्तमान प्रणाली में, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/महिला/अल्पसंख्यक सहित समाज के सभी वर्गों को सामाजिक विविधता और प्रतिनिधित्व प्रदान करने का दायित्व मुख्य रूप से न्यायपालिका पर ही होता है। सरकार किसी भी ऐसे व्यक्ति को उच्च न्यायालय के न्यायाधीष के रूप में नियुक्त नहीं कर सकती है जिसकी उच्च न्यायालय काॅलेजियम/सर्वोच्च न्यायालय काॅलेजियम द्वारा अनुशंसा नहीं की जाती है।

हालांकि, सरकार एवं उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता के लिए प्रतिबद्धता है। सरकार उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से अनुरोध करती रही है, कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव भेजते समय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के उपयुक्त उम्मीदवारों पर भी उचित विचार किया जाए। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता सुनिश्चित करने के लिए जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाओं के प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय में, सन् 1950 से अब तक कुल 247 न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई। इनमें से केवल 8 महिला न्यायाधीश हैं। 1980 में, न्यायमूर्ति एम फातिमा बीवी इसकी स्थापना के 40 साल बाद शीर्ष अदालत में नियुक्त होने वाली पहली महिला न्यायाधीश बनीं थी। आज, सर्वोच्च न्यायालय में 34 जजों में से केवल 3 महिला जज है। न्यायिक कोटे से रिक्तियों को शीघ्र भरने के लिए उच्च न्यायालय को निर्देश जारी करने के संबंध में प्रार्थना को खंडपीठ ने स्वीकार कर लिया। हाल ही में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में सात न्यायाधीश इसी कोटे से नियुक्त किए गए हैं। अभिभाषकों में से भी नियुक्तियां होना है। उम्मीद की जाना चाहिए कि ये नियुक्तियां भी शीघ्र ही होगी।

अधिकांश समय उच्च न्यायालय में सर्विस जजों का कार्यकाल केवल कुछ वर्षों का ही होता है। इसी को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में उच्च न्यायालयों से तत्काल कदम उठाने और रिक्तियों के होने से पहले जिला न्यायपालिका से जजों की पदोन्नति के लिए नामों की सिफारिश करने का अनुरोध किया। यह आग्रह यह सुनिश्चित करेगा कि सेवा संवर्ग से पदोन्नति में कोई विलंब न हो। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालय की मदद के लिए न्यायमित्र सीनियर एडवोकेट सिद्धार्थ भटनागर और राज्य सरकार, यूनियन ऑफ़ इंडिया और उच्च न्यायालय के वकीलों के लिए विचार करने के लिए सात महत्वपूर्ण मुद्दे निर्धारित किए। इन मुद्दों में यह शामिल है कि क्या उच्च न्यायिक सेवा यानी जिला न्यायाधीश संवर्ग में पदोन्नति के लिए सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा (एलडीसीई) के लिए आरक्षित 10% कोटा को 25% पर बहाल करने की आवष्यकता है?

यह सर्वोच्च न्यायालय ने ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन और अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, और अन्य प्रकरण में निर्धारित किया है! साथ ही क्या उपरोक्त परीक्षा में शामिल होने के न्यूनतम योग्यता अनुभव को कम करने की आवश्यक है, और यदि हां, तो कितने वर्षों तक! यह मुद्दा भी विचारणीय है कि क्या सिविल जज (जूनियर डिवीजन) से मेधावी उम्मीदवारों का एक कोटा सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के लिए आरक्षित करने की आवश्यकता है, ताकि सिविल जज (जूनियर डिवीजन) संवर्ग में योग्यता को प्रोत्साहन मिले! साथ ही यदि हां, तो उसका प्रतिशत क्या होना चाहिए और सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में न्यूनतम अनुभव क्या होना चाहिए! इसके साथ ही क्या किसी विशेष वर्ष में उपरोक्त विभागीय परीक्षाओं के लिए आरक्षित किए जाने वाले कोटा की गणना संवर्ग की संख्या या विशेष भर्ती वर्ष में होने वाली रिक्तियों की संख्या पर की जानी चाहिए।

इसके अलावा योग्यता-सह-वरिष्ठता के आधार पर उच्च न्यायिक सेवाओं में पदोन्नति के लिए मौजूदा 65% कोटा के खिलाफ सिविल जज (सीनियर डिवीजन) को जिला न्यायाधीशों के कैडर में पदोन्नत करते समय कुछ उपयुक्तता परीक्षण भी शुरू किया जाना चाहिए तथा सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की परीक्षा में शामिल होने के लिए कम से कम तीन साल की प्रैक्टिस की आवश्यकता है, जिसे ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन और अन्य के मामले में इस अदालत ने समाप्त कर दिया था। क्या इसे पुनस्र्थापित करने की जरुरत है। यदि हां, तो कितने वर्षों से?

कुछ समय पहले न्यायमंत्री कीरण रीजीजू ने भी इस पर लोकसभा का संबोधन करते समय यह कहा था कि मौजूदा नीति, न्यायपालिका में आरक्षण के लिए स्वतंत्रता प्रदान नहीं करती है। लेकिन, न्यायाधीशों, विशेष रूप से काॅलेजियम के सदस्यों को, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अपनी सिफारिश करते समय उन लोगों के वर्गों को ध्यान में रखने के लिए अनुरोध किया गया है, जिनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान डीएमके नेता तिरूचि शिवा ने पूछा था कि क्या सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में आरक्षण नीति लाने की संभावना पर विचार करेगी।

कानून और न्याय मंत्री कीरण रीजीजू ने कहा था कि मौजूदा नीति और प्रावधान के अनुसार, भारतीय न्यायपालिका में कोई आरक्षण नहीं है। लेकिन, न्यायमंत्री ने सदन को बताया कि पहले ही सरकार ने सभी माननीय न्यायाधीशों, विशेष रूप से काॅलेजियम सदस्यों को याद दिलाया कि भारतीय न्यायपालिका में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं करने वाले पिछड़े समुदायों, महिलाओं और अन्य श्रेणियों के सदस्यों को शामिल करने के लिए नामों की सिफारिश करते समय इनका ध्यान में रखें।