Silver Screen: परदे पर दूज से लगाकर पूनम तक का चांद उतरा!

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Silver Screen: परदे पर दूज से लगाकर पूनम तक का चांद उतरा!

चांद इन दिनों फिर चर्चा में है। हमारा चंद्रयान उसे तीसरी बार छूने की कोशिश में अंतरिक्ष में पहुंच है। ये कोशिश सफल होती है या नहीं, ये बात अलग है। पर, चांद चर्चा में तो आ ही गया! चांद की असलियत तो बरसों पहले खुल चुकी है, पर उसके प्रति आसक्ति में कोई कमी नहीं आई। हमारे पर्व, त्योहार और सामाजिक मान्यताओं में चांद को बरसों से पूजा जा रहा है। महिलाओं के कई त्यौहार चांद को पूजने से ही जुड़े हैं। वास्तव में धरती से अलग सूरज और चांद ही हैं, जिन्हें हम देख सकते हैं। लेकिन, सूरज को लेकर हमारी मान्यता अलग है और चांद को लेकर अलग। चांद के साथ कई कल्पनाएं जुड़ी हैं, उनमें से एक है प्रेम का प्रतीक। जहां भी प्रेम है, वहां चांद है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की सुंदरता की कल्पना चांद से करता है। यही कारण है कि हमारी फिल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी सालों से चांद छाया रहा। फ़िल्मों ने हमेशा चांद के जरिए दर्शकों के दिल के तारों को छेड़कर फिल्माकाश की सतह पर उतरने में कामयाबी हांसिल की।

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आसमान में चांद की जितनी कलाएं हैं, फिल्मकारों ने उन तमाम कलाओं को समेटकर सेल्युलाईट पर उतारने का प्रयास भी किया। दूज के चांद से लगाकर पूनम के चांद तक को पृष्ठभूमि में रखकर फ़िल्मों ने हमेशा दर्शकों को गुदगुदाया। जबकि, धरती से हजारों मील दूर चांद ने भी फिल्मकारों को कई दिलचस्प अवसर दिए। उन्होंने कभी फिल्म के शीर्षक से चांद को जोड़ा तो कभी गीत के शब्दों में चांद को हिस्सेदार बनाया। दर्शकों ने भी हीरो-हीरोइन के सुर में सुर मिलाकर दर्शकों को गुनगुनाने के लिए मजबूर किया। चांदनी रात में बांहों में बाहें डाले प्रेमी युगल को छेड़खानी करते दिखाकर बॉक्स ऑफिस पर सिक्कों की बरसात कर चांद ने हमेशा फिल्मकारों का साथ निभाया।

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याद किया जाए तो चांद शीर्षक से बनने वाली फिल्मों में चांद, दूज का चांद, चौदहवीं का चांद, चांद मेरे आजा, चोर और चांद, चांद का टुकड़ा, ईद का चांद, चांदनी, ट्रिप टू मून, पूनम, पूनम की रात सहित दर्जनों फिल्में बनी और इनमें ज्यादातर फ़िल्में सफल हुई! चांद को केंद्र में रखकर अभी तक कई फ़िल्में बन चुकी है। ‘मिशन मंगल’ से लगाकर ‘रॉकेट्री’ और ‘मून मिशन’ जैसी कई फ़िल्में आई जिनमें चांद पर ही कथानक लिखे गए। 1963 में आई ‘कलाई आरसी’ पहली इंडियन स्पेस फिल्म थी, जिसमें स्पेस ट्रैवलिंग और एलियंस को दिखाया गया था। इसके बाद अंतरिक्ष मिशन और स्पेस पर कई फिल्में बनीं। 1967 में आई ‘चांद पर चढ़ाई’ साइंस फिक्शन फिल्म थी। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में चांद पर लैंडिंग को कल्पना के जरिए दिखाया गया था। जबकि, इसके दो साल बाद अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चांद की सतह पर उतरे थे। इस फिल्म में एस्ट्रोनॉट की भूमिका में दारा सिंह नजर आए थे।

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आर माधवन की फिल्म ‘रॉकेट्री: द नांबी इफेक्ट’ इसरो के एयरोस्पेस इंजीनियर नांबी नारायणन की बायोपिक है। 2019 में आई फिल्म ‘मिशन मंगल’ इसरो के वैज्ञानिकों के पहले मार्स ऑर्बिटर मिशन के सफल परीक्षण की कहानी दिखाती है। विक्रांत मैसी और श्वेता त्रिपाठी की फिल्म ‘कार्गो’ में 2027 का समय दिखाया गया था, जब इंसान चांद से आगे मंगल और बृहस्पति तक पहुंच जाएगा। ऐसी ही ‘टिक टिक टिक’ की कहानी स्पेस ऑपरेशन पर आधारित है, जिसमें इसरो के वैज्ञानिकों को पता चलता है कि एक एस्टेरोइड तेज गति से पृथ्वी की ओर आ रहा है, जो चेन्नई में गिरेगा। 2003 में स्पेसशिप और एलियन पर ‘कोई मिल गया’ आई थी, लेकिन इसमें चांद का जिक्र नहीं था।

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सिर्फ हिंदी फिल्मकारों को ही चांद के प्रति आकर्षण नहीं रहा, हॉलीवुड में भी चांद हमेशा जिज्ञासा का विषय रहा है। ऐसी कई फ़िल्में बनाई जो मून मिशन पर केंद्रित थी। ऐसी ही एक फिल्म थी ‘द मार्शियन’ (2015) जिसका डायरेक्शन रिडले स्कॉट ने किया था। इसमें मैट डैमन की मुख्य भूमिका थी। यह फिल्म एक मिशन की कहानी थी जिसमें मुख्य किरदार को कई परेशानियां उठाना पड़ती हैं। इस फिल्म ने कई अवार्ड जीते। चांद की धरती पर कदम रखने वाले पहले व्यक्ति नील आर्म स्ट्रांग की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘फर्स्ट मैन’ 2018 में रिलीज हुई थी। डेमियन शैजेल के डायरेक्शन में बनी इस फिल्म में नील आर्म स्ट्रांग का कथानक है। जब उन्होंने चांद पर कदम रखा तो उनके सामने क्या चुनौतियां सामने आईं और कैसा रहा था, यह मिशन उन सारी बातों पर ध्यान खींचती है। 2007 में आई फिल्म ‘इन द शैडो ऑफ मून’ का डायरेक्शन डेविड सिंगटन और क्रिस्टोफर रिले ने किया था। इस फिल्म ने वर्ल्ड सिनेमा ऑडियंस अवॉर्ड जीता था। इस फिल्म में अमेरिका की उन कोशिशों का जिक्र था जब 1960 और 70 में अमेरिकी सरकार ने चांद पर जाने का अभियान शुरू किया था। नासा से लिए कुछ ओरिजनल फुटेज का भी फिल्म में इस्तेमाल किया गया था।

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अपोलो अभियान का तृतीय मानव अभियान ‘अपोलो 13’ था, जिस पर इसी नाम से फिल्म बनी। अपोलो 13 को 1970 में प्रक्षेपित किया गया था। यह फिल्म 1995 में रिलीज हुई थी। इस अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण के दो दिन बाद ही इसमें विस्फोट हुआ, जिस कारण नियंत्रण यान से ऑक्सीजन का रिसाव शुरू हो गया और बिजली व्यवस्था चरमरा गई थी। अंतरिक्ष यात्रियों ने चंद्रयान को जीवन रक्षक यान के रूप में प्रयोग किया और पृथ्वी पर सफलतापूर्वक लौट आने में सफल रहे। इस दौरान उन्हे बिजली, गर्मी और पानी की कमी जैसी मुसीबतों से भी जूझना पड़ा था। लेकिन, फिर भी वे मौत के मुंह से निकल आए थे। 1989 में आई फिल्म ‘मूनट्रैप’ साइंस फिक्शन पर आधारित थी। लेकिन, इसका कनेक्शन चांद से था। फिल्म में दिखाया गया था कि दो स्पेस शटल एस्ट्रोनॉट्स को कुछ रोबोट चांद का लालच देकर ले जाते हैं। क्योंकि, उन्हें मानव अंग चाहिए होते हैं।

सिर्फ फिल्मों के शीर्षकों में ही चांद नहीं उतरा। चांद पर सैकड़ों गीत भी लिखे गए। ‘दिल’ शब्द के बाद शायद ‘चांद’ ही गीतकारों का पसंदीदा रहा। धरती से चांद जितना सुंदर दिखाई देता है, उतना ही सुंदर गीत गीतकारों ने उसे कलम बंद किया है। जहां भी नायिका के रूप को कल्पनाशीलता में बांधा गया, चांद को जरूर याद किया गया। फिर चाहे वो ‘चौदहवीं का चांद हो या आफ़ताब हो भी हो तुम खुदा की कसम’ जैसा कालजयी गीत ही क्यों न हो। इसमें नायक ने अपनी नायिका को चांद के बहाने न जाने कितनी उपमाएं दी। माहौल चाहे खुशी का हो या गम का, मिलन का हो या जुदाई का, हिंदी फिल्मों में चांद को हमेशा प्रतीक या गवाह बनाने के प्रयास किए गए। धीरे-धीरे चल चांद गगन में (लव मैरिज 1959), खोया-खोया चांद, खुला आसमान (काला बाज़ार 1960), चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो (चौदहवीं का चांद 1960), ये चांद सा रोशन चेहरा, जुल्फों का रंग सुनहरा’ (कश्मीर की कली 1964), लो दिलदार चलो चांद के पार चलो (पाकीजा 1972), चंदा रे चंदा रे कभी तो जमीन पर आ बैठेंगे बातें करेंगे’(सपने 1997), चांद ने कुछ कहा, रात ने कुछ कहा, तू भी सुन बेखबर, प्यार कर (दिल तो पागल है 1997), जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चांद निकला (जख्म 1998), चांद छुपा बादल में, शरमा के मेरी जाना’ (हम दिल दे चुके सनम 1999), चंदा मामा सो गए, सूरज चाचू जागे’ (मुन्ना भाई एमबीबीएस 2003) के अलावा उठा धीरे-धीरे वो चांद प्यारा प्यारा, आजा सनम मधुर चांदनी मे हम, वो चांद जहां वो जाए, चांद सी महबूबा हो मेरी, धीरे-धीरे चल चांद गगन में, चांद फिर निकला मगर तुम न आए और ये चांद सा रोशन चेहरा समेत सैकड़ों सुरीले गीत चांद पर रचे गए। ख़ास बात ये कि चांद की हकीकत जानने के बाद भी इनमें कमी नहीं आई!

सिनेमा के सितारों की अलग-अलग छवि रही है! लेकिन, चांद ने इन अलग-अलग छवियों वाले छैल-छबिलों को अपने साथ जोड़ने का करिश्मा कर दिखाया। यही कारण है, कि किसी एक फिल्म में राजकपूर और नरगिस की जोड़ी ‘उठा धीरे धीरे वो चांद प्यारा प्यारा’ गीत का राग छेड़ती है, तो दूसरी फिल्म में रोमांटिक देव आनंद माला सिंहा की जोड़ी ‘धीरे धीरे चल चांद गगन’ गुनगुनाते दिखाई पड़ती है। ट्रैजेडी किंग दिलीप कुमार भी चांद को देखकर रूमानी होकर वैजयंती माला से ‘तुझे चांद के बहाने देखूं’ कहे बिना नहीं रहते। विनोद खन्ना और ऋषि कपूर की फिल्म ‘चांदनी’ में ‘चांदनी मेरी चांदनी’ कहते हुए श्रीदेवी के पीछे दौड़ लगाने लगते हैं। 1957 में बनी ‘देवता’ में भी नायिका ‘ए चांद कल तू आना, उनको भी साथ लाना उनके बगैर प्यार आज बेक़रार है’ गुनगुनाते हुए दिखाई देती है। इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि 1978 में फिर बनी ‘देवता’ में भी संजीव कपूर और शबाना आजमी ‘चांद चुरा के लाया हूँ, चल बैठे चर्च के पीछे’ गाते नजर आते हैं।

यह चांद का ही चमत्कार है कि फिल्मों में अक्सर गानों से दूर रहने वाले राजकुमार कभी ‘चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो’ और ‘चांद आहें भरेगा’ गाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। चांद की लोकप्रियता भी कमाल की है। गुजरे जमाने के कुछ फिल्मी कलाकारों में अपने नाम के साथ चांद को जोड़ा और नाम रखे चांद उस्मानी, चंद्रशेखर और चंद्रमोहन। आज की हकीकत भले ही यह हो कि चांद की सतह चूमने की चाहत में चंद्रयान उसकी सतह के आसपास पहुंच गया है। लेकिन, हमारे फिल्मकारों ने धरती का चक्कर लगाने वाले चांद के बेशुमार चक्कर लगाए। संभावना है कि यह सिलसिला आगे भी यूँ अनवरत चलता रहेगा। क्योंकि, चाँद ऐसे ही चमकता रहेगा और प्रेमी दिलों में भी उसके बहाने प्रेम भी उमड़ेगा!